Manoj Kujur

Feb 249 min

क्या है मुड़मा जतरा का महत्त्व जहां मिलती है उराँव जनजाति के इतिहास एवं संस्कृति की एक झलक?

झारखंड के प्रमुख जनजातियों में उरांव जनजाति का भी एक प्रमुख स्थान है। जनसंख्या की दृष्टि से संथाल के बाद दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। उराँवों की भाषा, द्रविड़ भाषा परिवार के अंतर्गत कुड़ख है। इनकी विशिष्ट भाषा, संस्कृति एवं जीवनशैली है जिनके कारण उरांव जनजाति की एक पृथक स्वतंत्र पहचान है। जिसमें जतरा, सरना एवं पड़हा आदि समाजिक संस्थाओं का महत्वपूर्ण स्थान है।

मुड़मा जतरा उरांव जनजातियों के साथ ही राज्य का सबसे बड़ा ऐतिहासिक जतरा है। मुड़मा नामक स्थान पर जतरा लगने के कारण इसे मुड़मा जतरा कहा जाता है। यह जतरा स्थल रांची शहर से पश्चिम दिशा की ओर लगभग 25 किलोमीटर रांची-लोहरदगा मार्ग पर अवस्थित है।

मुड़मा जतरा का मनोरम दृश्य

उराँवों का छोटा नागपुर की धरती में आगमन:-

इतिहास के अनुसार मुंडाओं के शासनकाल में ही उरांव जनजातियों का, इस छोटानागपुर क्षेत्र में आगमन हुआ था। यह सर्वव्यापी सत्य है कि कोई भी समुदाय या समाज अपने क्षेत्र में किसी अनजान समुदाय को, जो कि पूरी तरह अजनबी हो, स्वेच्छा से प्रवेश करने तथा बसने की अनुमति नहीं देता। यह धारणा विभिन्न जनजातियों में हमेशा से ही काफी प्रबल रही है, जो कि एक विशेष क्षेत्र में रहते हुए एक विशिष्ट भाषा-संस्कृति एवं विशिष्ट जीवन शैली का अनुसरण करते हैं। एवं किसी अन्य समुदाय के अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप करने पर पूरी शक्ति से उनका विरोध करते हैं l

संभवत इसी आधार पर कहा जाता है कि जब उरांव लोग इस छोटानागपुर क्षेत्र में प्रवेश किए होंगे तो यहां के स्थानीय निवासियों के साथ इनका जोरदार संघर्ष हुआ होगा। सुरक्षित जीवन एवं आश्रय के लिए, इन्ही संघर्षों, आपसी मतभेद एवं द्वेष-घृणा को पाटने तथा सुख-शांति एवं सम्पन्नता के साथ निवास के लिए इस क्षेत्र के तत्कालीन मुंडा राजा के साथ बैठक कर एक समझौता संपन्न किया गया। चूंकि मुंडाओं ने ही उरांव जनजाति को आश्रय देकर, इन्हे बाहरी आक्रमणकरी दुश्मनों से छुपाकर बचाया था। इसलिए आज भी उरांव जनजाति मुंडाओं को बड़े भाई का दर्जा देते हैं। और उरांव जनजातियों ने इस उपकार के बदले अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए तत्कालीन छोटानागपुर के राजा संभवतः रिसा मुंडा अथवा सुतिया मुंडा को इसी स्थान पर आमंत्रित किया। जहां उरांव समुदाय, इस क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद एक जगह एकत्रित हुए थे।

राजा के आने पर उरांव लोगों ने उनका जोरदार सत्कार किया। उनके सम्मान में नाच गान का भी आयोजन किया। साथ ही मुंडाओं और उरांव में विभिन्न संस्कृति एवं रणनीतिक प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया। जिनमे जिसमें उराँवों ने अपनी निपुणता सिद्ध किया। तभी से इस विशेष दिन की महत्ता की याद में प्रत्येक वर्ष उरांव यहां जमा होते हैं तथा नाच गान करके इस ऐतिहासिक अवसर का स्मरण करते हैं। संभवत यही प्रक्रिया आगे चलकर जतरा के रूप में प्रचलित हुई एवं आज भी इस जतरा स्थल को उरांव एवं मुंडाओं के पवित्र मिलन स्थल के रूप में भी याद करते हुए एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है।

पवित्र खूंटा एवं शक्ति स्थल

मुडमा जतरा आयोजन की तिथि :-

इस ऐतिहासिक मुड़मा जतरा के प्रारंभ होने का निश्चित तिथि स्पष्ट नहीं है फिर भी यह निर्विदित सत्य है कि यह उराँवों के अस्तित्व के संघर्ष एवं इस क्षेत्र में रचने - बसने के संघर्ष से जुड़ा है।

मुड़मा जतरा का आयोजन हिंदू पंचांग के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष प्रतिपदा की रात में तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष के द्वितीय के दिन में होता है।

यद्यपि वर्तमान में जतरा की सामान्य तिथि प्रतिपदा की रात तथा द्वितीय का दिन होता है लेकिन प्रारंभ में ऐसी व्यवस्था नहीं थी यहां के कई वृद्ध लोगों का कथन है कि उनकी याददाश्त में मुड़मा जतरा पूर्णिमा आश्विन शुक्ल पक्ष की रात तथा प्रतिपदा कृष्ण पक्ष के दिन में लगा करता था। इतना ही नहीं मुड़मा जतरा वाली जमीन के खतियान में भी यह दर्ज है कि यात्रा पूर्णिमा की रात तथा प्रतिपदा के दिन में लगता है।

मुड़मा जतरा का इतिहास

मुड़मा जतरा की शुरुआत कैसे हुई इसे लेकर कई कथा - उपकथा प्रचलित है। विद्वानों की मान्यता है कि प्रारंभ में उरांव लोग दक्षिण भारत के पर्वतीय आंचल में रहा करते थे। बाद में उरांव उस स्थान से हटकर रोहतास पहुंचे जहां वे स्थाई रूप से बचकर खेती-बारी करने लगे। लेकिन कुछ समय के बाद मुगलों के साथ मुठ-भेड़ एवं मतभेद हो जाने तथा वहां के राजनीतिक उथल पुथल से परेशान होकर इन लोगों ने वहां से हटाना उचित समझा। अंततः सोन नदी के किनारे-किनारे होते हुए झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र में प्रवेश किए। ऐसा माना जाता है कि उरांव समुदाय छोटा नागपुर के पलामू क्षेत्र से प्रवेश किये और ओपाचापी होते हुए उमेडांडा की ओर बढ़े, जहां इनका यहां के स्थानीय मुंडा जनजातियों से पहली बार आमना-सामना हुआ। अपने अस्तित्व एवं अपने को जिंदा बचाए रखने की जद्दोजहत में, यहां कई बार मुंडाओं से संघर्षों का सामना करना पड़ा। जिस संघर्ष में अंततः उरांव विजयी हुए और यह संघर्ष अंततः एक समझौता एवं मुड़मा जतरा खूंटा गाड़ने के साथ खत्म हुआ। संभवतः इसी जतरा खूंटा को आधार मानकर मुंडा समुदाय इस खूंटा से पूर्व की ओर एवं उरांव समुदाय पश्चिम की ओर केंद्रित हुए। वर्तमान में भी इस भौगोलिक विभाजन को इनके निवास क्षेत्र को सर्वेक्षण एवं अवलोकन कर आसानी से समझा जा सकता है।

पड़हा प्रतीक चिन्ह

इस प्रकार संघर्ष में मिली विजय स्मृति को एक विशेष दिन, इस ऐतिहासिक स्थान पर उरांव समुदाय एकत्रित होकर विजय-दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं। यह विजय दिवस का उत्सव ही बाद में चलकर मुड़मा जतरा के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उस समय से लेकर आज तक, यह ऐतिहासिक जतरा परंपरागत रूप से पूरे उमंग तथा उत्साह के साथ मनाया जा रहा है। यद्यपि इतने वर्षों में मुड़मा जतरा के रूप-स्वरूप तथा अन्य पक्षों में कई बदलाव आए हैं तथापि उरांव समाज के वार्षिक सामाजिक, सांस्कृतिक समारोह के रूप में इस जतरा का महत्व आज भी पूर्ववत कायम है। तथा आज भी इस ऐतिहासिक स्थान की महत्ता एवं भव्यता दिन-प्रतिदिन पूरे विश्व में बहुत तीव्रता से फैली रही है।

वैसे तो मुड़मा जतरा लगने के संबंध में बहुत सारी कथाएं प्रचलित है एवं इस संबंध में विभिन्न विद्वानों का मत भी एक समान नहीं है फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं की मुड़मा जतरा एक विजय उत्सव का प्रतीक है। इस वार्षिक समारोह से जुड़ी अनेक गतिविधियां एवं तथ्य इस बात का समर्थन करती हैं जिसमें मुख्य रूप से जतरा में प्रवेश करते वक्त महिलाओं द्वारा विजय गीतों का गाया जाना, विभिन्न वाद्य यंत्रों विशेषकर नगाड़ा तथा अन्य युद्ध में प्रयोग किए जाने वाले बाजे-गाजे का जतरा स्थान में बजाया जाना, गाये जाने वाले गीतों में वीर रस की प्रधानता, पड़हा राजा को कंधे पर बिठाकर नाचते गाते जतरा स्थल में प्रवेश करना, पड़हा गांवों का दल - बल के साथ जतरा में भाग लेना, जिसमें नौजवानों का सबसे आगे आगे चलना तथा इसी तरह की अन्य गतिविधियां इस मत को एक मजबूत आधार प्रदान करती हैं कि जतरा का मुख्य आधार इसको 'विजयोत्सव' के प्रतिक के रूप में मानना है।

यद्यपि समय के साथ जतरा के स्वरूप में कई परिवर्तन आए हैं तथा अब इसमें व्यावसायिक तथा आधुनिक पक्ष ज्यादा हावी हो गया है फिर भी इस जतरा का मौलिक स्वरूप काफी हद तक कायम है जो कि इस मुड़मा जतरा की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को दृढ़ता के साथ प्रदर्शित करता है।

मुड़मा जतरा का पवित्र खूंटा एवं शक्ति स्थल

मुड़मा जतरा का सबसे पवित्र केंद्र बिंदु 'जतरा खूंटा' है जो जतरा टांड की अधिष्ठित शक्ति का प्रतीक है। यह चालीस पड़हा गांवों के सदस्यों की एकता के प्रतीक के साथ-साथ उरांव समुदाय के मजबूत 'खूंट' का भी प्रतीक है। जिसके माध्यम से चालीस पड़हों के गांवों के सदस्य एक दूसरे से एकता के सूत्र में बंधे होते हैं।

जतरा खूंटा का गुंबद

मुड़मा जतरा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल जतरा खूंटा ही है जिसकी पूजा-अर्चना जतरा प्रारंभ होने के पूर्व ही सम्पन्न की जाती है। ऐतिहासिक मुड़मा जतरा मुख्यतः उरांव समुदयों के तीन पड़हों, क्रमशः सात, बारह और इक्कीस के चालीस गांवों का सामूहिक समारोह एवं मिलन स्थल है। जहां के रहने वाले उरांव समुदाय अपने-अपने विशिष्ट पड़हा चिन्हों, पड़हा झडों, परंपरागत गाजा-बाजा एवं परंपरागत वेशभूषा में पूरे उमंग और उत्साह के साथ सम्मिलित होते हैं।

'चालीस पड़हा' एक पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था

उरांव समुदाय में प्रचलित विभिन्न सामाजिक संस्थाओं में 'पड़हा' पहाड़ की भांति स्थिर और मज़बूत, एवं एक सशक्त पारंपरिक सामाजिक एवं धार्मिक संगठन है। मुड़मा जतरा इन्हीं गांवों के चालीसों पड़हों के द्वारा आयोजित जाता है। जिसके माध्यम से इस क्षेत्र के उरांव समुदायों की प्राकृतिक-अप्राकृतिक, लौकिक-अलौकिक एवं दृश्य-अदृश्य शक्तियों का पारंपरिक ढंग से मुकाबला एवं सुरक्षा सुनिश्चित किया जाता है। जिसमें सम्मिलित होने के लिए उरांव अपने-अपने विशिष्ट पड़हा चिन्ह, पड़हा झंडा, परंपरागत वेश-भूषा एवं गाजा-बाजा के साथ जतरा स्थल में प्रवेश करते हैं। जिसमें इस जतरा से संबंधित विभिन्न विजय गीतों को भी गया जाता है।

अपने प्रतीक चिन्ह पर सवार होकर जतरा में प्रवेश करते पढहा राजा

मुड़मा जतरा में इन पड़हा गांवों के उरांव सदस्य कुछ निश्चित परंपरागत नियमों का पालन करते हुए जतरा में प्रवेश करते हैं। जिसमें सबसे पहले पुनगी पड़हा गांव के सदस्य प्रवेश करते हैं। पुनगी पड़हा गांव को अन्य पड़हा गांवों की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व एवं सम्मान प्राप्त है क्योंकि जतरा के जतरा खूंटा बदलने का अधिकार इसी पड़हा गांव को है। इसके बाद दूसरे पड़हा गांवों के सदस्य इस जतरा स्थल में परंपरागत रूप से पंक्तिबद्ध होकर नाचते गाते प्रवेश करते हैं। जिसमें सबसे आगे जवानों का समूह होता है उनके पीछे बूढ़े-बुजुर्ग एवं सबसे पीछे महिलाएं जतरा स्थल में प्रवेश करती हैं।

मुड़मा जतरा चालीस गांवों के तीन पड़हों का ही जतरा है जिसमें क्रमश सात, बारह और इक्कीस पड़हा गांवों के सदस्य ही सम्मिलित होते थे है। इसी विभाजन के आधार पर वर्तमान में जतरा खूंटा के ऊपर एक टावर जैसा गुंबद बनाया गया है। जिसे पड़हा कुल्ला (छाता) भी कहा जाता है। ये तीनों पड़हा गांवों का प्रतीक भी है।

मुड़मा जतरा का संबंध मुख्यता उरांव लोगों से ही है। मुड़मा जतरा में होने वाले परंपरागत उरांव नाच-गान तथा अन्य मनोरंजनात्मक गतिविधियां आकर्षण के केंद्र रहें हैं। कालांतर में इस जतरा का असर यहां के सदानों (गैर उरांव) पर भी पड़ा, जो कि प्रारंभ में उत्सुकतावश देखने मात्र के लिए एकत्रित होते थे। बाद में धीरे-धीरे वे लोग भी इसमें शामिल होने लगे। इस जतरा में चालीस पड़हा गांवों के उरांव सदस्य सामूहिक रूप से नाच- गान करते हैं। मुड़मा जतरा इस क्षेत्र का एक विशिष्ट सामाजिक सांस्कृतिक महोत्सव है। जिसे देखने के लिए आज भी काफी संख्या में सदान एवं इस क्षेत्र के अन्य समुदायों के हज़ारों लोग हजारों की संख्या में सम्मिलत लेते हैं और उरांव समुदाय अपने बेटा-बेटी के लिए वर एवं वधू की तलाश जैसे पारिवारिक उद्देश्य से भी समलित होते हैं।

पूर्व में इसी जतरा स्थल के चारों ओर व्यापारी तथा व्यवसायी अपने-अपने दुकान एवं स्टॉल लगाकर खरीद बिक्री करते थे। प्रारंभ में इन दुकानों के लिए कोई पूर्व निर्धारित व्यवस्था नहीं थी तथा दुकानदार अपनी सुविधा अनुसार कहीं भी दुकान लगा लेते थे। परन्तु अब जतारा में भाग लेने आए ग्रामीण, दुकानदारों एवं मनोरंजन के विविध संसाधनों को नियंत्रण तथा व्यवस्थित करने के लिए प्रशासन द्वारा कई कदम उठाए जाते हैं। इस दृष्टि से पूरी जतरा क्षेत्र को चार अलग-अलग भागों में विभाजित कर मेले का सफल आयोजन किया जाता है। जिसमें पूजा तथा नृत्य स्थल, मनोरंजन से जुड़े पंडाल, उपयोगी वस्तुओं की दुकानें तथा खाने-पीने के सामानों की दूकानों आदि के लिए अलग-अलग स्थान आवंटित किए जाते हैं साथ ही विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी पंडाल, नियंत्रण कक्ष, विद्युत नियंत्रण कक्ष, ध्वनि नियंत्रण कक्ष आदि की अलग से व्यवस्था की जाती है ताकि जतरा का संचालन सुचारू रूप से सुविधा अनुसार किया जा सके। इन सब कार्यों में प्रशासन के साथ-साथ सामाजिक एवं स्वैच्छिक संस्थानों का भी पर्याप्त सहयोग मिलता है।

जतरा स्थल का प्रवेश द्वार

जतरा में भाग लेने के दौरान किसी प्रकार की कोई अप्रिय घटना अथवा व्यवधान न हो इसे ध्यान में रखकर प्रशासन द्वारा जतरा स्थल में पुलिस सेवा केन्द्र एवं नियंत्रण कक्ष स्थापित भी किए जाते हैं। जहां भारी संख्या में पुलिस बल की व्यवस्था होती है। चूंकि यह जतरा यहां के उरांव समुदायों का ऐतिहासिक, पारंपरिक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक समारोह का एक विशिष्ट स्थल है। अतः प्रशासन और पुलिस बल उनकी व्यवस्था में सीधा हस्तक्षेप नहीं करते, जब तक कि कोई घटना नियंत्रण से बाहर नहीं हो जाती है अथवा जबतक किसी घटना में हस्तक्षेप करने के लिए पड़हा सदस्यों द्वारा उन्हें सूचित नहीं किया जाता है। केवल तभी उनके द्वारा कोई कार्रवाई या बल प्रयोग किया जाता है अन्यथा इनके द्वारा तटस्थ होकर मात्र जतरा संचालन की निगरानी की जाती है।

वर्तमान में प्रशासनिक सहयोग के साथ-साथ अनेक सामाजिक स्वैच्छिक संस्थाओं का भी मुड़मा जतरा संचालन व्यवस्था में उपयोगी भूमिका है इन संस्थाओं के स्वयंसेवक अपने संगठन के नेतृत्व में इस संचालन व्यवस्था में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं। जिससे की जतरा का सफलतापूर्वक आयोजन हो सके। इनमें प्रमुख संस्था मुड़मा जतरा कमेटी, राजी पड़हा तथा सरना नवयुवक संघ है। ये सभी सामाजिक संस्थाएं परस्पर एक दूसरे का सहयोग कर जतरा का संचालन एवं व्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

वर्तमान में उरांव समुदाय में शिक्षा के प्रसार आधुनिकता तथा अन्य प्रभाव से हुए परिवर्तनों के कारण इस परंपरागत सांस्कृतिक उत्सव के प्रति उत्साह में कमी आई है। इसके अतिरिक्त बढ़ती महंगाई ने भी लोगों को कुछ हद तक हातोउत्साहित किया है। फिर भी समाज के आदिवासी संगठनों के अथक परिश्रम एवं प्रयास से इस जतरा की ख्याति देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहुंच गई है एवं आज विदेशों जैसे नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों से भी उरांव समाज के प्रतिनिधि एवं लोग इस जतरा स्थल में अपने-अपने पुरखों एवं सगे-संबंधियों को ढूंढते हुए पहुंच रहे हैं।

मुड़मा जतरा की भव्यता एवं ऐतिहासिकता तथा पड़हा के पारंपरिक लोकतांत्रिक सुशासन व्यवस्था से रूबरू होना चाहते हैं, तो जीवन में एक बार अवश्य मुड़मा जतरा में सम्मिलित होकर इसका आनंद उठा सकते हैं।

लेखक परिचय :  रांची के रहने वाले मनोज कुजूर लोक-साहित्य (folklore) में सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड से स्नातकोत्तर किए हैं। आदिवासी परंपरा एवम संस्कृति के प्रति विशेष रुचि रखते हैं। झारखंड के लोक-साहित्य को लोगों तक पहुंचाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं।