पुराने जमाने में आज जितने साधन तो उपलब्ध नहीं थे- चावल के लिए न राइस मिल्ज़ थी, ना ही खेती के लिए ट्रैक्टर। ऐसे समय में धान की कुटाई कैसे होती है, यह जानने का मैंने प्रयास किया। हमारे पूर्वज जो औज़ार इस्तेमाल करते थे, यह आज कल शहरों में तो देखने नहीं मिलते, लेकिन ऐसे औज़ारों का उपयोग थोड़े- बहुत लोग आज भी गाँवों में करते है।
छत्तीसगढ़ के मेरे गाँव में भुंजिया आदिवासी के कई घरों में एक लकड़ी का औज़ार होता है, जो धान की कुटाई के लिए इस्तेमाल करते है। इस लकड़ी के औज़ार को पैर से चलाया जाता है। लड़की पे लोहे के सिरे के ज़रिए धान को कूटा जाता है। औज़ार की ढैंकी साल के पेड़ से बनती है, क्योंकि साल की लड़की का वजन ज़्यादा होता है और इससे कुटाई अच्छी होती है। इस प्रक्रिया से धान कूट भी जाता है और छिलका आसानी से निकल जाता है। इसके बाद कूटे हुए धान को बांस के सुपा में डालकर इसकी फुनाई करते है। धान का भूसा इससे निकल जाता है। इस प्रक्रिया के बाद चावल खाना बनाने लायक़ हो जाता है
कुटाई का औज़ार
लोहे की सिरे से होती है कुटाई
धान की कुटाई के उद्गम के पीछे भी एक कहानी है। हमारे पूर्वज बताते थे की धान की फसल जंगलों में मिला करती थी। इस समय जंगल में बड़ी मात्रा में नील गाय, सूअर और कई अलग अलग प्राणी पाए जाते थे। एक बारे सूअर को धान की फसल खाते हुए किसी इंसान ने देखा। सूअर को मारकर खाया गया, लेकिन इंसान यह सोचने लगा की सूअर धान को क्यों खा रहा है? यह सोचके इंसान ने भी धान खाना शुरू कर दिया, लेकिन यह इसके मुँह में चब रहा था। फिर जब एक धान का बीज उसके लकड़ी के औज़ार के साथ पत्थर से टकराया, तो चावल निकला! यह देखने के बाद इंसान को ढैंकीधेंकि बनाने की योजना सूजी और वह धान की कुटाई करने लगा।
सुपा से फुनाई के बाद निकला चावल
इस लकड़ी के औज़ार से हमारे गाँव के आदिवासी धान की कुटाई करते आ रहे है। आज की आधुनिक दुनिया में लोगों को ये भी जानना ज़रूरी है की कैसे लोग हाथों से यह मशीन बनाके अपना काम आसान और सुविधाजनक बनाने के उपाय ढूँड़ते थे।
लेखक के बारे में- खाम सिंह मांझी छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं। उन्होंने नर्सिंग की पढ़ाई की है और वह अभी अपने गाँव में काम करते हैं। वह आगे जाकर समाज सेवा करना चाहते हैं।
यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था
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