भारत सरकार द्वारा चलाई गई ऐसी कई योजनाएँ है, जो मज़दूरों को, ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को मदद करती है। इनमें से एक है महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005। इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध किया जाता है, जो प्रतिदिन 220 रुपये की सांविधिक न्यूनतम मज़दूरी पर सार्वजनिक कार्य-संबंधित अकुशल मज़दूरी करने के लिए तैयार है। इस योजना में महिला- पुरुष दोनों भी काम कर सकते हैं।
कोरोना वाइरस महामारी की वजह से आज भारत में कई समस्याएँ खड़ी हो गयी है। रोग से लोगों की मृत्यु होने के साथ साथ लोगों का रोज़गार भी चला गया है। छत्तीसगढ़ के कई गाँव में लोगों की नौकरियाँ चली गयी है और खेती- किसानी पर भी प्रभाव पड़ा है। कई मज़दूरों को काम नहीं मिल रहा और लोगों की मायूसी बढ़ रही है। ऐसे में कई गाँव में मनरेगा के तहत लोगों को रोज़गार मिल रहा है, जिससे लोग अपना घर चला रहे है।
छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के बिंझरा ग्राम के कोसा बाडी में भी लोग इस योजना का फ़ायदा उठा रहे है। सपुरन सिंह, कोसा बाड़ी के कर्मचारी बताते है, “कोसा बाड़ी में मनरेगा के तहत जल संवर्धन, वृक्षारोपण, अर्थात् सीताफल, अर्जुन और करौंदा के पौधे का पौधारोपण और वृक्षारोपण चल रहा है।”
जल संवर्धन के बारे में बताते हुए कहते है, “यह पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण, बरसात के दिनों में जितना भी पानी बरसता हैं, वह सब पहाड़ों से उतर कर नदी- नालों में बह जाता है। यह जल संवर्धन का काम बहुत ही फ़ायदेमंद है। जो जल बहकर नदी- नालों में चला जाता था, अब वह सीधे ज़मीन के अंदर जाएगा। इससे जल स्तर में बढ़ोतरी होगी और पौधों को बढ़ने में मदद मिलेगी और पौधों को पानी की कमी नहीं होगी। यह पानी रोकने के लिए हम डेढ़ फूट का गड्ढा खोद रहे है, जिसकी लंबाई 5 फूट है।”
रोपने के लिए रखी हुई फलदार वृक्ष
कोसा बाड़ी में कई महिलाएँ भी इस योजना के अंतर्गत काम करती है। इनमें से एक महिला है अंजलि श्याम, कौवाताल की निवासी। पौधारोपण के बारे में बताते हुए वह कहती है, “इस कोसा बाड़ी में हम पौधारोपण कर रहे है, जिसका काम सुबह 7:00 बजे से शुरू होता है। बीच में दोपहर 1:00 बजे खाने की छुट्टी होती है और 3:00 बजे हम फिर से काम पर लग जाते हैं, जो शाम को 6:00 खत्म होता है। हमारी एक दिन की रोज़ी ₹190 हैं।”
पौधारोपण के लिए गड्ढा तैयार कर रही महिलाएँ
मनरेगा का इतिहास
इस योजना की शुरुआत 2005 में हुई थी, लेकिन इसका सुझाव भारत के तब के प्रधान मंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव ने 1991 में किया था। इस योजना को पहले भारत के 625 ज़िलों में लागू किया गया, और फिर 2008 में इसे भारत के सब ज़िलों तक फैलाया गया। इस अधिनियम को ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, मुख्य रूप से ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों के लिए अर्ध-कौशलपूर्ण या बिना कौशलपूर्ण कार्य, चाहे वे गरीबी रेखा से नीचे हों या ना हों।
इस योजना के तहत कार्य करने के नियम
अगर किसी भी महिला या पुरुष को इस योजना के अंतर्गत काम करना है, तो आसपास में चल रहे काम के लिए राशन कार्ड, आधार कार्ड की छाया प्रति पंचायत में जमा कर देना पड़ता है। इसके साथ एक फोटो, अपना नाम, अपनी उम्र और पता जमा करते है। जांच के बाद पंचायत घरों मे पंजीकृत करता है। इसके बाद वह एक जॉब कार्ड प्रदान करते है, जिसमें पंजीकृत व्यस्क सदस्य का विवरण और उनका फोटो शामिल होता है। एक पंजीकृत व्यक्ति या तो पंचायत या कार्यक्रम अधिकारी को लिखित रूप से काम करने के लिए एक आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। आवेदन स्वीकृति होने पर ही अपने नज़दीकी क्षेत्र में योजना के अंतर्गत काम दिया जाता है। चाहे वह महिला हो या पुरुष, सभी के लिए नियम और काम एक समान होता है। इसमें एक समारोह से मेहनत करनी होती है। वर्तमान में इस योजना के अंतर्गत काम के लिए प्रतिदिन 190 रुपए मिलते है; महिला और पुरुष को एक समान मेहनताना मिलता है।
नर्सरी में अर्जुन का पौधा
मनरेगा के तहत ग्रामीण क्षेत्र में अनेक प्रकार का काम कराया जाता है, जैसे तालाब का निर्माण, पौधारोपण, मेड़बंदी, इत्यादि।
लॉकडाउन में हो रहा है इस योजना का फायदा
लॉक्डाउन के समय में किसी को भी गाँव से बाहर जाने का अनुमति नहीं है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों को बहुत परेशानी उठानी पड़ रही है। इस परिस्थिति को देखते हुए, शासन ने लॉक्डाउन मे ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए, गाँव में ही रोज़गार का साधन उपलब्ध करा दिया गया है, जिससे लोग गाँव से बाहर ना जाए और गाँव में ही रहकर काम कर सकें।
इस महामारी के बीच में सरकार के द्वारा अनेक प्रकार की योजनाएँ चलाई जा रही है, जिससे गाँव का विकास हो, साथ ही साथ गाँव में रहने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति भी सुधर सके। गाँव के लोगों को इस योजना के बारे में सोचना चाहिए और इसका फायदा उठाना चाहिए।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजैक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, और इसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है।
यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था
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