देश और दुनिया भर में कोरोना की महामारी से हम हैरान, परेशान और घबराएं हुए हैं। जहां प्रधान मंत्री ने 24 मार्च को जनता से अपील कर, लॉकडाउन को 21 दिनों के लिए और बढ़ा दिया, लोगों ने कुछ राहत की सांस ली कि वायरस से बचा जा सकता है।
लेकिन इस महामारी से सबसे बुरा प्रभाव तो किसानों और मजदूरों पर पड़ा है जिन्हें रोजाना अपना श्रम बेचकर पेट पालना होता है। ऐसी आपातकालीन परिस्थिति, जहां बाज़ार, उद्योग, सड़क, परिवाहन, सब कुछ ठप पड़ा है, ऐसे में मजदूर और किसान के हाल बेहाल हुए है।
जो किसान दिन रात, गर्मी और बारिश में मेहनत कर हमें अनाज और जीवन का स्रोत देता है, क्या हम उनकी परेशानियों को जानते हैं? क्या कोई उनकी आवाज़ को सुनता है? क्या कोई उनकी आवाज़ का माध्यम है?
अपने बात, जरूरतों, मांगों और शिकायतों को अधिकारियों तक पहुंचाने के लिए छत्तीसगढ़ के किसानों ने किसान संगठन की स्थापना की है। जिला गरियाबंद में बसे छोटे-बड़े गांव के किसानों ने क्षेत्रीय स्तर पर किसानों को जोड़ने और संगठित करने के लिए ग्राम कोडोपली (ग्राम पंचायत लोहारी, थाना पीपरछेडी) में एकत्रित होकर बैठक की। 29 दिसंबर, 2019 को इस बैठक का उद्देश्य किसानों के मुसीबतों को उजगरकर सरकार को सुविधाओं के लिए प्रस्ताव देना था।
इस बैठक में किसान संघ के विशेष कार्यकर्ता श्री नरेश कुमार, श्री यशवंत सोरी और श्री मूल सिंह ठाकुर प्रस्तुत थे। श्री नरेश कुमार लोहारी, श्री आसा राम जी धमना, श्री खेदू राम जी पीपरछेडी, श्री रामेश्वर निषाद कोदोपाली इस किसान संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। बड़ी संख्या में किसान जमा होकर संघ के माध्यम से किसानों के संगठन को मजबूत किया। करीब 300 किसानों की बड़ी संख्या इस बैठक में सम्मेलित हुई।
कौन बनाया हिंदुस्तान: भारत के मजदूर किसान
भारत को बनाने में किसानों की मुख्य भूमिका रही है। 1947 की आज़ादी हासिल करने में किसानों ने ही बिना रुके, बिना झुके अंग्रेजों और शासकीय ताकतों का विरोध किया है। जब अंग्रेज और ज़मीनदार कम वेतन में नील की खेती कर रहे थे, तब चंपारण (बिहार) के किसान मजदूरों ने इसका विरोध कर अंग्रेजों और जमींदारों, दोनों की कमर तोड़ दी।
आज परिस्थिति ऐसी है कि आत्महत्या और कृषि संकट ने लाखों किसानों को अपनी दुख और मांगों को रखने के लिए प्रोटेस्ट और रैली मार्च निकालने को मजबूर किया है। 2018 में देश भर के किसानों ने प्रदर्शन कर सरकार से कृषि संकट पर संसद में स्पेशल सेशन करने की गुहार लगाई। किसानों ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य, खेती में लगे कीमतों की भरपाई, अनियंत्रित परिस्थितियों जैसे खराब वर्षा के कारण फसल बर्बादी का मुवाजा और ऋण माफी सुनिश्चित करने को कहा।
किसानों की एकत्रित शक्ति का एहसास कर, छत्तीसगढ़ के किसान आदिवासियों ने ये संगठन लोकतांत्रिक तरीके से बनाया।
न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित नहीं
जहां जैविक खेती किसानों को उम्मीद की राह दिखा रही है, वहीं पर्ची से किसानों का उत्पीड़न हो रही है। बड़े व्यापारी किसानों से उनका पर्ची ₹200-300 में खरीद लेते हैं। ये वही पर्ची है जो फसलों के लिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करती है। अगर किसान अपनी पर्ची दिखाकर किसी भी सरकारी दुकान में अपने उत्पाद को बेचते तो इसका मूल्य ₹40-50 होता। लेकिन, बड़े व्यापारी किसान उनकी पर्ची खरीद लेते और उनके फसलों को ₹12-15 के दर पर खरीदते हैं।
आखिर किसान अपनी पर्ची क्यों बेचते? फिरतू राम कवंर बताते हैं कि आदिवासी गांववासियों में जानकारी और जागरूकता की कमी है। सरकारी दुकान गांव से दूर भी होता है। ये कम से कम 40-50 किलोमीटर दूर होता है जहां तक गांववासियों को अपने उत्पाद को ले जाने के लिए बहुत महंगा हो जाता है। यातायात के साधन की कमी के कारण वे गांव में ही बड़े व्यापारियों को चंद पैसों के लिए बेचने को मजबूर हो जाते है।
जैविक खेती के बारे में भी किसान को विस्तारपूर्वक बताया
जलवायु परिवर्तन ने दुनियाभर में जैविक खेती के लिए वापस रुख करने को विवश किया है। केमिकल फर्टिलाइजर और हाइब्रिड बीजों से मिट्टी की उपजाऊपन लंबे स्तर में घटी और अंततः खत्म हुई है। हाइब्रिड बीजों से स्थानीय नस्ले समाप्त हुई हैं। हर स्थानीय फसल उस स्थान के अनुकूल मिलता है। इस प्राकृतिक चक्र से छेड़छाड़ करने से मानवीय सेहत और पर्यावरण को ख़तरा होगा।
जैविक खेती करने से फसल शुद्ध और सेहतमंद रहते हैं जिससे लोग और वातावरण स्वस्थ रहता है। जल, मिट्टी और वायु प्रदूषण से निपटने के लिए ये ज़रूरी कदम है। जैविक खेती करने से ज़मीन की उर्वरा क्षमता बनी रहती है।
बैठक में जैविक खेती की अहमित्यता को उजागर किया गया कि ये गरीब किसानों की जेब पर भी भारी नहीं होती। जैविक खेती में महंगे बीज, फर्टिलाइजर और उपकरणों की जरूरत नहीं होती। इसलिए इसे किसानों में लोकप्रिय करने की ज़दोज़हत है।
जैविक खाद बनाने की सामग्री
घर के बाड़ी (बगीचे) या खेत में एक कूड़ेदान या टैंक बना लें। उसमें घर का कचरा एवं गोबर डाले। पेड़ के नीचे की मिट्टी, 2 किलो गुड़-बेसन साज़ा कर्रा के पत्ता, गोमूत्र आदि सामग्री की आवश्यकता होती है। ये हम आसानी से हर साल घर में बना सकते हैं। इसे खेत में डालने पर फसल की उपज अच्छी होती है और मिट्टी की क्वॉलिटी भी बनी रहती है।
जैविक खाद बनाने की विधि
टैंक के भीतर गोबर खाद को एक परत बिछा दें, फिर टैंक के अंदर 6 इंच मिट्टी डालनी है। मिट्टी के ऊपर शाहजा पत्ता को पूरा बिछा दें। उसके बाद गोबर खाद को 6 इंच पत्ता के ऊपर में डाल देना है। हर परत में गोमूत्र का छिड़काव करना है। घर के कचरे को भी उसी टैंक में डाल देना है। टैंक फुल हो जाने के बाद टैंक को ढक दें। 30 दिन के बाद, टैंक से खाद को निकालकर पूरी तरह पलट लें। उसके बाद गोमूत्र, गुड, बेसन आदि को मिक्स करके उसमें छिड़काव करें। नीम पत्ता भी मिक्स किया जा सकता है। टैंक के पूरे खाद को 30 दिन में एक बार फिर पलट लें। तीसरी माह में खाद यह तैयार हो जाएगा। उसे अपने खेत में डालें, फसल की उपज अच्छी होगी। जल मिट्टी एवं पर्यावरण प्रदूषित नहीं होगा।
छत्तीसगढ़ के किसान आदिवासी पर्यावरण संरक्षण के लिए जैविक खेती का रुख कर रहे हैं। लेकिन, खेती से गुजारा करना इतना आसान नहीं। जागरूकता और साधन के अभाव में गरीब किसान अपनी पर्ची बड़े व्यापारियों को बेच रहे है। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि किसान अपने फसल को सरकारी दुकान तक लाने का साधन रखे ताकि कोई उनका शोषण ना करे।
यह लेख खगेश्वर मरकाम ने दीप्ति मिंज के सहयोग से लिखा है।
लेखक के बारे में- खगेश्वर मरकाम छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं। यह समाज सेवा के साथ खेती-किसानी भी करते हैं। खगेश का लक्ष्य है शासन-प्रशासन के लाभ आदिवासियों तक पहुंचाना। यह शिक्षा के क्षेत्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
About the author: Deepti Mary Minj is a graduate in Development and Labor Studies from JNU. She researches and works on the issues of Adivasis, women, development and state policies. When she is not working, she watches films like Apocalypto and Gods Must be Crazy, and is currently reading Jaipal Singh Munda.
यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था
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