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खुद अपने हाथों से बुनती है त्रिपुरा की यह आदिवासी महिलाएँ परंपरागत चामाठोय

Bindya Debbarma

आदिवासियों को उनकी आत्मनिर्भरता के लिए जाना जाता है। आदिवासी बाज़ार पर ज़्यादा निर्भर नहीं होते है और खुद से खेती करके, अपने खाने का प्रबंध करके, घर के लिए ज़रूरी वस्तु खुद बनाके अपने जीवन बिताते है। बाज़ार में मिलने वाले प्रदूषण फैलाने वाली वस्तुओं से आदिवासियों का कम ही वास्ता होता है। आज के प्रदूषण की चर्चा में हम कपड़ों के बारे में भूल ही जाते है। दुनिया की फ़ैशन इंडस्ट्री सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वालों में से एक है। हम सस्ते दाम में कपड़े ख़रीदते रहते है उर उन्हें फेंकते रहते है। ऐसी दुनिया में त्रिपुरा के आदिवासियों की उनके कपड़े खुद बनाने की संस्कृति एक प्रेरणा है।


त्रिपुरा के कई आदिवासी समुदायों में कपड़े खुद बुने जाते है, और त्रिपुरा के बुधाराई सरदार पारा गाँव में देब बर्मा आदिवासियों की कपड़े बुनने की प्रक्रिया क्या है, यह इस लेख के द्वारा मैं आपको बताना चाहूँगी। त्रिपुरा के इन आदिवासियों का सांस्कृतिक पोशाक लाल और सफ़ेद रंग का होता है और इसे चामाठोय कहते है। यह दिखने में सुंदर और पहनने में आरामदायक होता है। इसे ही आदिवासी महिलाएँ खुद बुनके पहनती है।

धागे को भिगोते हुए


एक कपड़े का सेट बनाने के लिए 1-1.5 किलो धागे की ज़रूरत पद सकती है। इसको नाप कर किलो में या फिर लर मे खरीदना पड़ता है। कपड़े बुनने के लिए सबसे पहले चावल के आटे को पानी में मिलाकर पकाया जाता है। चावल पक जाने के बाद इसे एक बर्तन में ठंडे होने के लिए 5 मिनट रखा जाता है। यह ठंडा होने के बाद ठंड होने के बाद मास लाई के धागे को उस चावल के आटे मैं भिगोया जाता है। इसे अच्छे से भिगोने के बाद धूप में पूरे दिन सुखाकर रात को एक कागज में बुना जाता है।

कताई-मशीन


अगले दिन कपड़ा बुनने के लिए जो लकड़ी की ज़रूरत होती है, उसे बांधके तैयार करेंगे। इस काम में वासा, खानदाई, सौरक, रौसामी, शुभाम और नाल लकड़ी का उपयोग होता है। धागे को कताई-मशीन पर बुनने के बाद उसे लड़की के करघे पे लेकर आते है और उसे करघे पे एक समान किया जाता है। कपड़े को एक समान करने के लिए साही के काटा, जिसे आदिवासी छोरी बोलते है, इस्तेमाल किया जाता है। कपड़े बुनते समय इन्हें बहुत ध्यान से और मापके बनाना पड़ता है क्योंकि १ इंच भी अगर आगे-पीछे हो गया, तो कपड़ा तेडा हो जाता है और इसकी सुंदरता कम हो जाती है। एक ग्राफ़ बनाया जाता है, जिस पर कपड़े पर बुनने वाला डिज़ाइन बनाया जाता है। ज़्यादातर इसमें फूलों का डिज़ाइन बनाते है। ग्राफ़ के हिसाब से कपड़े पर फूल बनाने के लिए झाड़ू की लकड़ियों को तोड़कर ग्राफ़ के फूल को कपड़े पर गिन-गिन कर बुनते है। यह कपड़े का एक सेट बनाने में कम से कम 2 महीने का वक्त लगता है।

ग्राफ़ के हिसाब से कपड़े पे डिज़ाइन बुनते हुए


त्रिपुरा की आदिवासी महिलाएँ रंग बिरंगी धागे को मिलाकर बहुत खूबसूरत से कपड़े बुनती है। यह कपड़े बनाने के लिए कोई नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल नहीं करते हैं, कपड़े अपने हाथों से बनाए जाते है। ऐसे कपड़े बुनना बड़े मेहनत का काम होता है। पूर्वजों से चलते आ रहे है इस प्रथा और पहनावे को आदिवासी अभी भी बचाए रखे है।


यह घर में बुनकर बाज़ार में भी बेचा जाता है, लेकिन यह हाथ का बना और अद्वितीय होने के कारण इसकी क़ीमत ज़्यादा होती है। एक कपड़े के सेट को 5000 से 7000 रुपए तक बेचा जाता है। कई आदिवासी महिलाएँ कपड़े बुनकर अपना घर चलाती है।

तैयार चामाठोय


भारत भर में हाथ से कपड़े बनाना कम हो रहा है और दुकानों से कपड़े ख़रीदना बढ़ रहा है। अगर आप कभी त्रिपुरा आते है, तो इन कपड़ों को ज़रूर ख़रीदें, इससे आदिवासी समुदायों की कला और मेहनत दोनों का आदर होगा।


लेखिका के बारे में-बिंदिया देब बर्मा त्रिपुरा की निवासी है। वह अभी BA के छट्ठे सेमेस्टेर में है। वह खाना बनाना और घूमना पसंद करती है और आगे जाकर प्रोफेसर बनना चाहती है।


यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

 

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