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खेल-खेल में गांव को एकता में बांधता है रेंचू झूला

Rakesh Nagdeo

8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन, और 8 घंटे आराम। औद्योगिक क्रांति के दौरान इस नारे पर आधारित उचित काम और आराम की लड़ाई हुई थी। ये नारा आज भी वही महत्व रखता है।


मनोरंजन की जरूरत


दुनिया में रहकर कुछ खेल नहीं खेला, कोई गीत नहीं गाया, या कोई रंग नहीं भरा, उसने ज़िंदगी की ख़ुशियों को बर्बाद कर दिया। इसके अलावा भी, शोध और अध्ययन ने भी पाया है कि काम में उत्पादकता बढ़ाने के लिए नियमित अवकाश और मनोरंजन ज़रूरी है।


पर अफसोस, जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वहां कुछ मुफ्त नहीं है। खाना, पानी, घर, सुरक्षा…सब की कीमत है। जहां बुनियादी सेवाओं पर ही दाम लगे हुए हैं, तब तो मनोरंजन, जिसे बुनियादी नहीं माना जाता है, उसकी कीमत इतनी ज़्यादा है कि कुछ ही इसे प्राप्त कर सकते है।


लिंग, क्षेत्र, आर्थिक वर्ग या धर्म, कोई भी विभाजन को बच्चों को खेलने-कूदने और खुद को आनंदित करने से नहीं रोकना चाहिए। शहरों में परिवार के बच्चे मनोरंजन के लिए फोन, वीडियो गेम्स, मॉल, सिनेमा घर या पार्क हैं, लेकिन ऐसा मनोरंजन सभों को नहीं मिलता।


बच्चों के मानसिक, शारीरिक और अनुभौतिक विकास के लिए खेल खुद और मनोरंजन अनिवार्य है। इनसे बच्चों के शरीर, दिमाग और अनुभूति का रोचक तरीके से कसरत होती है। गांव हो या शहर, गरीब परिवारों में जिनके पास मनोरंजन खरीदने के साधन नहीं होते, वे अक्सर मानसिक बीमारी जैसे डिप्रेशन या नशे से झूँजलाते है और सुस्त हो जाते हैं। इसलिए, खेल कूद और मनोरंजन ज़रूरी है।


खुशियों की खोज


गांव में कुछ परिवारों के अलावा, बाकियों के पास मनोरंजन के साधन खरीदने के लिए पैसे नहीं होते। ऐसे में परिवार अपने बच्चों के लिए अपने हाथों से ही खिलौने बनाते हैं।


छत्तीसगढ़ के गांव में लोग स्वयं ही मनोरंजन के साधन बना लेते हैं। कहा जाता है कि जरूरत आविष्कार का स्रोत है। ठीक उसी प्रकार छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने भी मनोरंजन के लिए खोज कर ली है। इसके साथ खुशियों की भी जो जिंदगी में कुछ रंग, कुछ हंसी, और बहुत सारा प्यार भरती है।


पैसों के अभाव में, जो संसाधनों आसपास में और मुफ्त में मिलती है, लोग उन्ही वस्तुओं का उपयोग करके अपने बच्चों के मनोरंजन करने के लिए प्रदान करते हैं।


ग्रामीण क्षेत्रों में साधन संपन्नता, कौशलता और आत्म निर्भरता की झलक बाकी कार्यों में भी दिखती है। जैसे, घर बनाना है तो मिट्टी, लकड़ी, पत्थरों, या घास-फूंस से बना लिए। खेती के दिनों में हल चलाना है तो लकड़ी से स्वयं ही हल तैयार कर लिया। बैल या मवेशियों को बांधने के लिए रस्सी पेड़ से प्राप्त की जाती है। लोगों के आसपास जो भी वस्तुएं जंगल, पेड़ पौधे या प्रकृति से उपलब्ध है, उसका उपयोग करके अपने जीवन में साधन के रूप में करते हैं।

बच्चों द्वारा रेंचू झूला झूला जा रहा है।


क्या है रेंचू झूला


रेंचू सुनने में अजीब लगता है। लेकिन यह छत्तीसगढ़ी बोली में इसका मतलब एक प्रकार का झूला होता है। रेंचू झूले में बच्चे एक लकड़ी के सहारे गोल गोल बहुत तेजी से घूमते हैं।


एक लकड़ी को ऊंचाई के अनुसार जमीन पर काट दिया जाता है। यह उतनी ऊंचाई की होती है जहां तक छोटे बच्चे आसानी से पहुंच सके। इसे सीधा ज़मीन पर गाढ़ दिया जाता है। इसके ऊपरी सिरे को नुकीला किया जाता है।

रेंचू में डालने के लिए कोयला पिसा जा रहा है


उसके बाद, इस लकड़ी के चोटी के ऊपर, धनुष के आकार की एक मोटी लकड़ी रखी जाती है। धनुष आकार के लकड़ी के बीच में ऐसे जगह पर गड्ढा किया जाता है जहां दोनों तरह बिल्कुल सामान्य रहे। किसी तरफ ना कम, ना ज्यादा हो। जहां रेंचू में गड्ढा किया जाता है, वहां पर कोयले को पीसकर डाल दिया जाता है, ताकि वह गोल गोल घूम सकें। यह लुब्रिकंट की तरह काम करता है जो आसानी से बिना रुके झूला को घुमाता रहता है। और बस, रेंचू झूला को आकार देने में इतनी ही चीज़ों की जरूरत होती है!

रेंचू बनाते हुए राकेश नागदेव


रेंचू के दोनों ओर पर अलग-अलग बच्चे बैठते हैं। बैठने के बाद, इसे गोल-गोल घुमाना शुरू किया जाता है। छोटे बच्चे बहुत ही आनंद लेते हैं। आशावादी आँखों से बच्चे झूला झूलते बच्चों को देखते और अपनी पारी का इंतजार करते हैं।


खेल से बढ़ता है मेल मिलाप


रेंचू झूले को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से बनाया जाता है। लेकिन ज्यादातर ये सामूहिक उपयोग के लिए बनाया जाता है, जिससे पूरे गांव के बच्चे यहां खेल सके। इसे कोई बड़े पेड़ के नीचे बनाया जाता है। यह सार्वजनिक स्थान होता है ताकि गांव के सभी लोग यहां इकट्ठा हो सके और सभी बच्चे खेल सके। बच्चों को झूलते हुए देखना बहुत ही आनंददायक अनुभव होता है। इस झूले से कभी-कभी बच्चों के दिमाग में चक्कर आ जाते है और वे गिरकर चोटिल हो जाते हैं। इसके अलावा, वयस्कों की निगरानी में बच्चे सुरक्षित भी रहते हैं। यह झूला गांव के लोगों को एक साथ बांधे रखता है।


बच्चों का दूसरा बहुत ही प्रिय खेल है झूला झूलना। कुछ बच्चे बरगद के पेड़ के पर झूला झूलने चले जाते हैं। बरगद पेड़ के तने से लंबी और मजबूत जड़े ज़मीन की ओर गिरती हैं। इसे उछलकर बच्चे पकड़ते हैं और इसपर रस्सी की तरह झूलते हैं।


मनोरंजन के उचित प्रबंध नहीं होने के कारण गांववासी खुद ही मौजूदा साधन से खिलौने और खेल बना लेते हैं। झूले बनाने के प्रक्रिया में गांव वासियों का व्यावहारिक ज्ञान भी झलकता है। तोल, भार, फुलक्रम जैसे भौतिक विज्ञान की भी समझ होती है। पूरे गांव को यह एक धागे में मोती की तरह बांध के रखता हैं।


गांववासी अपने स्वयं के साधन और समझदारी से ये झूला बनाते हैं। लेकिन, कभी कभी बिना सुरक्षा उपकरण ये खतरनाक भी हो सकता है क्योंकि ये जुगाड़ से बना है। मनोरंजन और खेल हमारे दिमाग और शरीर के कसरत के लिए ज़रूरी है। लेकिन, सब इसके साधन जुटा नहीं पाते। इसीलिए, ये तो प्रबंधन की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वे गांववासियों के मनोरंजन के लिए भी काम करें। मनोरंजन के उपकरण जैसे झूले सार्वजनिक और सुरक्षित होनी चाहिए।


मैं तो यही कहूंगा कि रेंचू झूले का मज़ा हर इंसान को एक बार अवश्य आज़माना चाहिए।


यह लेख राकेश नागदेव ने दीप्ति मिंज के सहयोग से लिखा है।


लेखक परिचय : राकेश नागदेव छत्तीसगढ़ के निवासी है। वॆ मोबाइल रिपेयरिंग का काम करते हैं। वो खुद की दुकान भी चलाते हैं। इन्हें लोगों के साथ मिल जुलकर रहना पसंद है और वो लोगों को अपने काम और कार्य से खुश करना चाहते हैं। उन्हें गाने और जंगलों में प्रकृति के बीच समय बिताने का बहुत शौक है।


About the author: Deepti Mary Minj is a graduate in Development and Labor Studies from JNU. She researches and works on the issues of Adivasis, women, development and state policies. When she is not working, she watches films like Apocalypto and Gods Must be Crazy, and is currently reading Jaipal Singh Munda.



यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

 

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