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त्रिपुरा के आदिवासी करते है मृतकों को विदा करने के लिए Maikhwlai पूजा

त्रिपुरा के आदिवासी लोग १४ जनवरी को मकर संक्रांति के दिन, जिसे वह अपनी भाषा में Hangrai बोलते है, Maikhwlai पूजा देते है। यह पूजा सिर्फ तिप्रासा परम्परा में की जाती है, और इस पूजा को किसी व्यक्ति के मर जाने के बाद किया जाता है। किसी व्यक्ति के देहांत के 13 दिन बाद, 13 दिन तक पूजा की जाती है।

पूजा देने के लिए बैठा हुआ व्यक्ति


इस फोटो मे जो व्यक्ति बैठा हुआ है, उनका नाम किशोर देव बर्मा है और यह अपने पिता के अंतिम शब्द के लिए Maikhwlai देने के लिए बैठे हुए है। किशोर जी Maikhwlai देने के लिए तैयार है और अभी घर के औरतों का इंतजार कर रहे हैं जो Maikhwlai पूजा के लिए भोजन का तैयार कर रही हैं। किशोर जी के पिता के अंतिम संस्कार का दिन है, जिन्हे गुज़रे हुए 1 साल पूरा हो चुका है।

Maikhwlai पूजा मे देने के लिए लाया हुआ भोजन


यह Maikhwlai पूजा मे देने के लिए लाया हुआ भोजन है। इसकी ख़ास बात ये है की यह गुज़रे हुए व्यक्ति का मनपसंद खाना होता है।


इस Maikhwlai पूजा में चावल भात, मटन तरकारी, मास तरकारी और सूअर का मांस तरकारी बनाया हुआ है। प्रसाद में फल भी दिया गया है जिसमे सेब, बिस्कुट,जलेबी के साथ साथ और भी स्वादिष्ट चीज़ें मौजूद है। पानी का एक ग्लास भी रखा गया है।


पूजा के लिए सब कुछ भोजन रख देने के बाद इन सब चीजों को थोड़ी देर के लिए Maikhwlai nok/ पूजा के घर में बिठाया जाता है। इस घर को बनाने के लिए छतरी, कपड़े, और बॉस/ bera waphi की ज़रूरत होती है। छोटे-छोटे बॉस को मिट्टी में दाऊ से गाड़ दिया जाता है उसके बाद कपड़े को उसके ऊपर डाल दिया जाता है, और फिर जाकर बीच में छतरी भी लगायी जाती है।

Maikhwlai पूजा बनाए हुए नियमों से शुरू करते है।सबसे पहले जो जो भोजन देना होता है, उसको एक-एक करके निकाल कर, एक बांस के बनाए हुए हाल/baling में अलग से रख देते है।मन ही मन में अपने पिता का नाम लेकर खाने के लिए पुकारते हैं। भोजन को यहां पर रखने के बाद पूजा खत्म होने लगती है। इस भोजन को गांव के पशुओं को खिलाया जाता है। अगर कुछ बाकी रह जाए, जैसे के फूल, केले का पत्ता, आदि उन्हें किसी दूर जगह या फिर पानी में फेंक दिया जाता है, जहां कोई पैर न रखें।

पूजा के नियम अनुसार सब रीति-रिवाज खत्म हो जाने के बाद, आखिर में एक विधि होती है- एक लोटे में पानी लेकर पीछे मुड़कर हाथ धोना होता है।

इन नियमों का त्रिपुरा के आदिवासी सदियों से पालन करते आ रहे हैं और इसे हमारे तिप्रासा हिंदुओं की परंपरा माना जाता है।



About the author: Khumtia Debbarma is a resident of the Sepahijala district of Tripura. She has completed her graduation and wants to become a social worker. She spends her free time singing, dancing, travelling and learning how to edit videos.


यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

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