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क्या देश के शैक्षणिक संस्थानों से आदिवासियों की संस्कृति और भाषा के संरक्षण की उम्मीद की जा सकती है

Updated: Mar 28, 2023

आदिवासियों की संस्कृति, अपने में अनूठी और विविध होती है। आज के दौर में, दुनियाभर के संगठनों के साथ ही सरकारें, इनकी संस्कृति और परम्परागत प्रथाओं को संरक्षित और पोषित करने का कार्य कर रही हैं। इस कड़ी में, शैक्षणिक संस्थानों के अलावा सरकारों के सांस्कृतिक मंत्रालयों के अंतर्गत कार्य करने वाले स्वायत संगठन भी बड़ी भूमिका अदा करते हैं। इन संस्थानों के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं होती है। भारत में, हाल के वर्षों में, केन्द्रीय सरकार से लेकर राज्य सरकारों ने आदिवासियों को साधने में एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है। राजनैतिक पृष्टभूमि से लेकर सामाजिक गतिविधियों में आदिवासियों की हिस्सेदारी को सुनश्चित करने के लिए, कोई भी अछूता नहीं रहना चाहता है।


हाल ही में, इंदिरा गाँधी राष्ट्रिय कला केंद्र (आई जी एन सी ए) के 36वें स्थापना दिवस के अवसर पर, राजधानी राँची के, डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी विश्वविधालय के प्रांगण में “आदिवासी संस्कृति और परिस्थिकी संरक्षण” के विषय में एक विचार-गोष्टि (सिम्पोजियम) का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में, आदिवासी मुद्दों व विषयों पर बात रखने के लिए, देशभर के विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति, प्रोफेसर, स्वतंत्र शोधकर्ता, लेखक, भाषाविद व विशेषज्ञों को न्योता दिया गया था। इस कार्यक्रम से यहाँ के छात्रों के अलावा, आमजनों को बहुत उम्मीदें थी। किन्तु, इस कार्यक्रम ने सभी को बहुत निराश किया।

पहले सत्र के दौरान, महिला वक्ता अपने विषय पर बात रखते हुए

भारत में अधिकांश कार्यक्रमों की भाँति, यह कार्यक्रम भी निर्धारित समय से डेढ़ घंटे पीछे चला। यदि, बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा दिए गए वक्तव्यों की बात करें, तो कुछेक को छोड़कर, बाकि सभों ने, अपने पद और प्रतिष्ठा के अनुसार, अपने विषयों पर बात रखने में असफलता पायी। चूँकि, यह वक्तागण, अपने मूल मुद्दे से इतर अन्य विषयों पर 'ज्ञान बघार' रहे थे। ये आये तो थे, आदिवासी विषयों पर बात करने। लेकिन, ये लोग हर दूसरी बात में, हिन्दुओं के देवी-देवताओं से लेकर अन्य धर्मों के पौराणिक कथाओं को संलिप्त कर अपना वक्तव्य दे रहे थे। जो किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं बैठता है। चूँकि, जब आप आदिवासियों के संस्कृति के संरक्षण पर जोर देने की बात करते हुए अन्य धर्मों के उदहारण देंगे, तो नयी पीढ़ीयां, अपनी जड़ों से दूर हो जाएँगी। उन अबोध छात्रों को आप असमंसजस की स्तिथि में डालने में सफल हो जायेंगे कि, उनकी अपनी विशिष्ट संस्कृती, विशिष्ट न होकर हिन्दुओं की भाँति समान है, जो अपने गांव से निकलकर, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए, बड़े शहरों की ओर आएं हैं।


यह सर्वथा विदित है कि, आदिवासी स्वाभाव से भोले होते हैं। इनमें धार्मिकता को लेकर कट्टरता विरले ही दिखती है। ऐसे में यदि, इनके मस्तिष्क में यह बात डाल दी जाये कि, “हिन्दू-आदिवसी” एक हैं। यह अपने आप में घातक सिद्ध होगा। चूँकि, आदिवासियों की संस्कृति से लेकर परम्परिक अनुष्ठान व प्रथा, हिन्दुओं से काफी विपरीत है। आज के समय में, आदिवासियों के विरुद्ध विभिन्न संगठनों द्वारा युद्ध छेड़ा हुआ है। और इसका एकमात्र मकसद, आदिवासियों को उनके जमीनों व जँगलों से बे-दखल करना है। चूँकि, आदिवासी जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वहाँ प्राकृतिक संसाधनों से लेकर, खनिज सम्पदा बहुतयात मात्र में पायी जाती हैं। इसी कारण देश में, हर कोई अपने को आदिवासी से जोड़कर बताने में गुरेज़ नहीं करता है। फिर चाहे वो किसी भी धर्म या पंत से सम्बन्ध रखता हो।


इस संगोष्ठी में, भाषा को लेकर, एक युवती ने वक्ताओं से सवाल किया था कि, “आप लोग कहे रहे हैं कि, अभी की पीढ़ी को, अपनी भाषा को संजोने की आवश्यकता है। लेकिन, जब हमें हमारे बड़ो व समाज के लोगों ने ही हमारी मातृभाषा नहीं सिखाई, तो आप हमसे उसके संरक्षण की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?” इस पर मंच की ओर से, एक विशविद्यालय के पूर्व कुलपति ने बड़ा गोल-मोल सा जवाब देते हुए कहा कि, आदिवासी भाषाओं को सुरक्षित करने की जरुरत है, तभी आदिवासी और आदिवासी भाषाएँ बचेंगी। लेकिन, उन्होंने ये नहीं बताया कि, इसकी जिम्मेदारी किन्हें लेनी चाहिये और किस प्रकार से कार्य करके, इन भाषाओं को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। एक विश्वविधालय के कुलपति होने के नाते उनको ठोस उतर देने की आवश्यकता थी।


संगोष्ठी के पहले सत्र में, एक महिला सहायक प्रोफेसर भी वक्ताओं की श्रेणी में शामिल की गयीं थी। लेकिन, दुर्भाग्यवश, उन्हें छोड़कर, कार्यक्रम के प्रारम्भ में, मंच में बैठने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया। वो जब अपना वक्तव्य देने के लिए सत्र के अंत में आयी और वक्तव्य समाप्त की। उसके पश्चात ही उस महिला को उन बाकि वक्ताओं के साथ मंच साझा करने का अवसर प्राप्त हुआ।


संगोष्ठी के दूसरे सत्र में भी अधिकांश वक्ताओं ने, पहले सत्र के वक्ताओं की भाँति अन्य धर्मों की बातों को अपने विषय में प्रबलता के साथ रखा। हद तो तब हो गयी, जब एक प्रबुद्ध विश्वविधालय के मौजूदा कुलपति ने खाने पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “दोपहर का भोजन शाकाहारी होने के कारण बहुत अच्छा था, और सभी को शाखाहारी भोजन ही ग्रहण करना चाहिए।” भोजन पर, पहले सत्र में भी, एक विश्वविधालय के पूर्व कुलपति ने नागालैंड के संदर्भ में बड़े अजीब ढंग से उनके भोजन-पान को लेकर अटपटी बात कही कि, “वहाँ पर आपको एक भी पक्षी देखने को नहीं मिलेगा, और वहाँ के लोग पालतू कुत्तों को छोड़ कर बाकि सब को खा जाते हैं।” उन्होंने इस बात को जिस ढंग से कहा, वो बिलकुल भी शोभनीय नहीं था। जब, देश के विश्वविद्यालयों के कुलपति इस प्रकार की बातें करेंगे, तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि, उन संस्थानों में, आदिवासियों के बेहतर करने की संभावना कितनी कम होगी।


दूसरे सत्र में, एक युवा वक्ता को भी शामिल किया गया था। जिनको आखिर में बोलने का मौका मिला, उक्त युवक ने मंच का उपयोग बहुत ही सुन्दर ढंग से उपयोग किया और वहां पे मौजूद कुलपतियों से आह्वाहन किया कि, “भाषा को संरक्षित करने के लिए, आप सभी को अपने विश्वविद्यालयों में क्षेत्र की जनजातीय भाषाओं को सीखाने के लिए, कक्षाओं को चालू कर देना चाहिए। ताकि, जो आदिवासी बच्चे, किसी कारणवश अपनी मातृभाषा को नहीं सीख पाए, वे विश्वविधालय में पढ़ते-पढ़ते अपनी मातृभाषा को भी सीख पाएं।” इसपर, वहाँ पर मौजूद छात्रों ने तालियाँ बजायी।

पाइका नृत्य करते हुए जनजातीय कलाकार

यदि, तालियों की बात करें, तो जनजातीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा, एक नौजवान युवक के सवालों पर सम्पूर्ण हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। दूसरे सत्र के समापन होने के पश्चात, उक्त युवक ने मौजूद वक्ताओं से कहा कि, “मैं यहाँ, किसी को भी अपने सवाल से आहत करने के इरादे से नहीं आया हूँ। और मेरा सवाल आप सभों से है कि, जब आप ‘आदिवासी संस्कृति और पारिस्थितकी संरक्षण’ के विषयों पर बात करने आये हैं, तो फिर, हर बात पर आप सब ने अन्य धर्मों की बातों को क्यों रखा? क्या आदिवासी विषय पर बात रखने के लिए रामायण, महाभारत और गीता के सन्दर्भ देने जरुरी हैं?” इस पर, मंच पर मौजूद वक्ताओं और संबंधित लोगों के मुख से, कुछ भी बात नहीं निकली। लेकिन, वहाँ पर उपस्थित छात्रों और आमजनों ने, जोरदार तालियां बजा कर उक्त सत्र का शानदार तरीके से समापन किया।

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