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जानिए कैसे गोंड आदिवासी चावल के दानों के माध्यम से अपने पूर्वजों से जुड़ते हैं

हमारे भारत देश में हर साल कई त्यौहार मनाये जाते हैं। हर त्यौहार का विशेष महत्व होता है। भाद्र पक्ष में मनाए जाने वाले पितृ-पक्ष की बात ही कुछ और है। पितृ-पक्ष को भारत में कई लोग मनाते हैं लेकिन हर राज्य में इसे अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के गोंड समाज के लोग इसे बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। इस दौरान वे अपने पूर्वजों को याद करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं।

पूर्वजों की आत्माओं को चावल और दाल जैसे अनाज का भोग लगाया जाता है

हिंदू धर्म के अनुसार पितृ-पक्ष 16 दिनों का होता है। पितृ-पक्ष के दौरान लोग नदी या तालाबों में स्नान करने के बाद पूजा अनुष्ठान और दान करते हैं। सामान्य तौर पर हिंदू धर्म में दान और अनुष्ठान करने की प्रक्रिया है। साथ ही साथ कौऐ को भोजन कराने का कार्य किया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समुदाय में अलग नियम का पालन करते हुए इसे पर्व के रूप में मनाया जाता है।


गोंड आदिवासी हमारे देश के सबसे पुरानी जनजातियों में से एक हैं। इनके समुदाय में पितृपक्ष का विशेष महत्व होता है, जिसमें वह अपने पूर्वजों को पूरे 16 दिन तक याद करते हुए उन्हें अन्न-पानी अर्पित करते हैं। आदिवासी लोगों में यह मान्यता है कि उन्हें उनके पूर्वजों द्वारा दिए गए आशीर्वाद से जीवन में खुशहाली मिलती है। आदिवासी महिलाएं हर सुबह उठकर अपने घर के आंगन के किनारे बने हुए दीवार, जिसे छत्तीसगढ़ी में आँट कहते हैं, में चावल-आटा से चौक बनाती हैं। चौक को हिंदी में रंगोली कहा जाता है। उसी चौक के ऊपर रंग-बिरंगे फूलों को सजाया जाता है। यह कार्य केवल आदिवासी महिलाएं करती हैं। चौक बनाने और फूल सजाने का काम लगातार 16 दिन तक किया जाता है और शाम होने पर एक कोने में इकट्ठा कर रख दिया जाता है। घर के आदिवासी पुरुष नदी या तालाबों में जाकर पितृ तर्पण करते हैं, पितृ तर्पण करने में चावल, उड़द दाल जौ इन सब को नदी में डालकर हाथों से जल चढ़ाया जाता है और प्रणाम कर वे घर वापस आते हैं। घर में आदिवासी महिलाओं द्वारा स्नान करने के बाद भोजन पकाया जाता है। भोजन में कभी खिचड़ी या कभी चावल, दाल, तोरई की सब्जी, कद्दू की सब्जी बनाई जाती है, और आंगन के किसी कोने में थोड़ा सा भोजन साल के पत्तल में डालकर पानी के साथ रख दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि आदिवासी घरों में जो भोजन पकता है, पितृ-पक्ष में उस भोजन को वे अपने पूर्वजों को अर्पित करते हैं। पूर्वजों को अर्पित करने के बाद घर के सभी सदस्य एक साथ मिलजुल कर भोजन करते हैं।

महिलाएं सुबह उठकर अपने घर के आंगन के किनारे बने हुए दीवार, जिसे छत्तीसगढ़ी में आँट कहते हैं, में चावल-आटा से चौक बनाती हैं

अगर आदिवासी घरों में किसी बच्चे की मृत्यु हो जाती है तो इस पितृपक्ष के सातवें दिन उस बच्चे के पसंद का खाना बनाकर आंगन के किसी एक कोने में रख दिया जाता है। इसी तरह अगर किसी महिला की मृत्यु हुई होती है तो उनकी याद में जो उन्हें पसंद रहा होगा, वह व्यंजन दसवें दिन पकाकर साल के पत्तल पर रख कर आंगन के किसी कोने पर रख दिया जाता है। और अगर पुरुष की मृत्यु हुई होती है, तो उनके लिए ग्यारहवें दिन उनके पसंद का व्यंजन पकाकर रखा जाता है। सभी चीजों को अर्पित करने के बाद यह मान लिया जाता है कि हमारे पूर्वजों को यह भोजन-पानी प्राप्त हो गया है। अंत वे पंद्रहवें या सोलहवें दिन आँट में जो फूल और चौक धूप सजा कर रखा जाता है, उनको इकट्ठा कर नदी या तालाब में विसर्जित कर देते हैं। पितृ-पक्ष के अंत में अपने समुदाय और परिवार वालों को घर में बुलाकर पारंपरिक रूप से मिलजुल कर भोजन कराया जाता है। इस तरह से हमारे छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के गोंड आदिवासी समुदाय में पितृ-पक्ष का विशेष महत्व है। आदिवासी समुदाय में इस तरह से पितृ तर्पण किया जाता है।


दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा क्षेत्र में आदिवासी समुदायों में पितृ-पक्ष को अलग ही तरीके से मनाते हैं। दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा के आदिवासी अपने पूर्वजों को याद करते हुए लघु दान जिसको वहाँ चिकमा के नाम से जाना जाता है, और खट्टा भाजी की नई फसल को पूर्वजों को अर्पित करते हैं। वहाँ के आदिवासी घरों में मिट्टी के बर्तन में ही खाना पका कर पूर्वजों को अर्पित करते हैं। इस तरह से पितृ-पक्ष मनाते हुए उनके घरों में नया खाई का भी काम हो जाता है। जब आदिवासी समुदाय में नए फसल के बीजों का प्रयोग किया जाता है तो इसे नया खाई कहा जाता है। पितृ तर्पण करने में दंतेवाड़ा में महुआ के पत्ते का प्रयोग किया जाता है और छत्तीसगढ़ में अपने पितर को भोजन-पानी देने के लिए साल के पत्तों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह अच्छे से पितृपक्ष को मनाने पर पूर्वज खुश होते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है।


यह लेख आदिवासी जीवन में पितृ-पक्ष के विशेष महत्व को बताने के लिए लिखा है। अगर आपको यह लेख पसंद आया हो तो शेयर और कमेंट जरुर करें।


यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l

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