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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए क्यों खास होती है शीतला जुड़वासा की मान्यता?

मनोज कुजुर द्वारा सम्पादित


छत्तीसगढ़ अपने आदिवासी संस्कृति के लिए पूरे भारत देश में पहचाना जाता है जहां आपको गोंड समुदाय के अनेक कला संस्कृति सभ्यता परंपरा देखने को मिलेगी जून के महीने में गर्मियां चरम पर होती हैं , साथ ही सावन के आगमन से पूर्व आदिवासी समुदाय अपने गांव में एक विशेष त्यौहार मनाते है जिससे शीतला जुड़वास के नाम से हम हिंदी भाषी लोग जानते हैं। जबकि इसे गोंडी में माता पहुॅचनी के नाम से जाना जाता है। 


शीतला जुड़वासा के पीछे की मान्यता है कि भीषण गर्मी के मौसम के बाद मौसम परिवर्तित होकर बरसात का मौसम आने वाला होता है। इस बीच में लोगों को मौसम परिवर्तन से होने वाली बीमारियां और इस भीषण गर्मी से राहत के लिए पूरे गांव की देवी देवताओं की मुखिया याया शीतला दाई को सेवा अर्जी(पूजा)किया जाता है। जिसमें विशेष रूप से नीम की पत्तियों के रस को पूरे गांव के लोगों के ऊपर एवं देवी देवताओं के ऊपर छिड़काव किया जाता है। इसके पीछे की मान्यता यह है कि इस भीषण गर्मी से गांव और गांव के लोगों में एक शांति और ठंड लोगों के बीच पहुंचे। इस कारण से इस त्योहार को ठंडाई भी बोला जाता है। शीतला जुड़वास के साथ ही गर्मी का मौसम खत्म होते ही वर्षा का सीजन शुरू हो जाता है जिससे गांव में अनेक सारी बीमारियां शुरू हो जाती है जिसमें मुख्य रुप से सर्दी, खांसी, बुखार प्रमुख होती हैं, ऐसे सभी बीमारियों से बचने के लिए शीतला दाई की सेवा अर्जी कर शीतला जुडवासा मनाया जाता है। आप कहेंगे कि सर्दी, खांसी, वायरल फीवर इनसे देवी देवता कैसे मदद करते होंगे? तो इसके लिए हमें शीतला माई की कहानी विस्तार से जानने होगी।

 शीतला दाई 

शीतला दाई का पूरा जीवन गांव और गांव के लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल में ही बीत गया आधुनिक युग में अगर हम शीतला दाई को देखें तो वो किसी वैज्ञानिक या किसी डॉक्टर से कम नही थी। गांव मे किसी को भी कोई समस्या हो चाहे घर में किसी का स्वास्थ्य बिगड़ना हो या फिर फसलों में लगने वाली बीमारियां हो शीतला दाई अपने गांव के जंगल से जड़ी बूटियां लाती और उन्हें देती, जिसे छिड़कने से फसलों की बीमारियां दूर हो जाए और जिन लोगों का स्वास्थ्य खराब होता उन्हें खाने के लिए भी कोई जड़ी बूटी देती और लोग ठीक हो जाते। शीतला दाई को जंगली औषधियों का बहुत ही ज्यादा ज्ञान था। इस कारण से गांव की वेदराज की उपाधि आज भी शीतला दाई को दी गई है। इस तरह से शीतला माई पूरे गांव के लिए एक वैध का काम करती है, जिनके पास जाने से गांव के लोगों की कोई भी बीमारी का समाधान वह कर देती है।


ये सभी जानकारियां गोंड आदिवासी समुदाय के बीच बैठक कर सुन कर मिला हैं, जहां सभी जानकारियां क्षेत्र अनुसार थोड़ी बहुत अलग-अलग सुनेने को मिल जाती है।


कैसा होता है शीतला जुड़वासा का दिन?


जिस दिन गांव में शीतला जुड़वासा का कार्यक्रम रखा जाता है, उस दिन गांव में कोई भी काम चालू नही रखा जाता है। पूरा गांव सेवा भाव से घर में ही रहता है दोपहर में गांव के मुखिया बुजुर्ग लोग गांव के चौराहे पर इकट्ठा होकर पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ शीतला दाई की सेवा में लोकगीत गीत गाते हुए पूरे गांव में घूमते हैं और लोगों को आमंत्रित करते हैं कि चलिए अब हमें देवगुड़ी की ओर शीतला जुडवासा के लिए जाना है। वाद्य यंत्रों की धुन के पीछे-पीछे पूरा गांव देवगुड़ी में एकत्रित होने लगते हैं। देखते ही देखते पूरे गांव की जनसंख्या देवगुड़ी के सामने आ जाती है। देवगुडी पहुंचने के बाद सभी लोग देवगुड़ी की सात बार चक्कर लगाते है। इसी बीच में यह संगीत इतना मनमोहक हो जाता है कि गांव के देवी देवता भी अपने सिरहा से आ कर देवगुड़ी में आ जाते हैं और नाचने लगते हैं। इसे देखकर गांव वालों को अपने जुड़वास की सफल आगाज का अंदाजा लग जाता है। सभी लोग देवगुड़ी की परिक्रमा कर एक ही स्थान पर बैठकर देवी सेवा जैसे गीत का आनंद लेते हुए शीतला दाई के सिंगार का इंतजार करते हैं। जब गांव के गयाता (बैगा) अपनी पूरी पूजा प्रक्रिया सिंगार प्रक्रिया समाप्त कर लेते हैं तब जाकर लोगों के लिए मां शीतला का दरबार खुल जाता है और लोग दर्शन करने जाते हैं। इस बीच में देवी देवताओं का अपने सिरहा में गीत एवं नाच आदि चलता रहता है। इन देवी-देवताओं के लिए देवगुड़ी में झूला लगाया जाता है जिसमें लोहे की किले होती हैं एवं सभी देवी देवता इस कांटो भरी झूले में बड़े आनंद से झूलते हैं, हैरानी की बात यह होती है कि उन्हें कोई भी लोहे की कीलें नहीं चुभते हैं। वे लोग बड़े आनंद से झूला झूलते हैं। दर्शन के बाद सभी लोगों एवं हर देवी देवताओं में ठंडाई छिड़की जाती है जिसमें नीम के रस को नीम के पत्तों द्वारा पहले देवी देवताओं में छिड़की जाती है जिससे यह भीषण गर्मी से जो शरीर तपा हुआ रहता है वह ठंडक महसूस करें फिर गांव के लोगों में ठंडाई छिड़की जाती है। 

गीत गाते हुए देवगुड़ी जाते लोग

इसके बाद लोगों द्वारा प्रसाद के रूप में लाए गए रोटी, धान के लाई और नारियल देवी देवताओं में चढ़ाएं जाते हैं फिर लोगों में इन्हे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। उसके बाद आदिवासी समुदाय अपने-अपने शक्ति अनुसार शीतला दाई को मुर्गी बकरा आदि भेंट करते हैं। जिसमें ज्यादातर गांव वाले मुर्गे ही भेंट करते हैं एवं गांव के लोग सामूहिक रूप से देवभूमि में बकरा भेंट करते हैं जिसे बाद में पूरे गांव के लोगों में बांट दिया जाता है।


इस तरह से एक दिन का कार्यक्रम दोपहर से शाम तक चलता है जिसमें सभी लोग आने वाले बरसात के दिनों में अपने आप को रोग रहित और स्वस्थ और ऊर्जावान रहने की कामना करते हैं और गांव में किसी प्रकार के विघ्न बाधा से बचाने के लिए शुक्रिया अदा करते हैं।

प्रसाद वितरण 

कई स्थानों पर शीतला जुड़वास को शादी विवाह की कहानियों के साथ जोड़कर देखा जाता है लेकिन  आदिवासी समुदाय में शीतला जुड़वास इसी तरह से मनाया जाता है। इसमें किसी भी शादी-विवाह का उल्लेख आदिवासी द्वारा नहीं किया जाता है लेकिन समय के साथ आदिवासी समुदाय में अपने सामुदायिक परंपराओं को भूलते जाने के कारण लोग जुड़वास को आदिवासी विवाह की तरह देखने लगे हैं। लेकिन आज भी ग्रामीण स्तर में शीतला जुड़वास को ठंडाई के रूप में मनाया जाता है और यह आज भी आपको ग्राम स्तरों में प्रत्यक्ष रुप से देखने को मिल जाएगा।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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