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रेला मडा वृक्ष, जिसने मानव समुदाय को ज्ञान संकलित करना सिखाया

Writer's picture: Chaman NetamChaman Netam

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


प्रकृति में फैली चारों ओर हरियाली ही हरियाली है और इस प्रकृति में हमें अनेक तरह के पेड़-पौधे दिखाई देते हैं। और इन्हीं पेड़-पौधों से हमें जीवन में सुखद अनुभव का ऐहसास होता है। इन्हीं पुरुड से हम कोयतुर गण्ड जीवों को अयाम मिली। इसलिए, आदिवासी प्रकृतिवादी कहलाते हैं। प्रकृति में अनगिनत पेड़-पौधे हैं और इनके अलग-अलग महत्व होते हैं। इन्हीं में से एक रेला मडा वृक्ष है।

रेला मडा वृक्ष गोंडवाना लैण्ड का एक ऐसा वृक्ष है, जो औषधीय गुणों से भरपूर है। लोग इस वृक्ष को क्षेत्र अनुसार अन्य नामों से जानतें हैं, जैसे रेला मंडा, अमलतास, धनबोहर, भालुमुसर आदि। रेला मडा वृक्ष की 5 से लेकर 15 मीटर तक ऊंचाई हो सकती है। गर्मी के मौसम में वृक्षों की पत्तियां झड़ जाती है, इसके बाद नई अक्ती (पत्ती) और पीले रंग के फूल साथ निकलते हैं। इसके फली लंबी, गोल एवं नुकिले होते हैं और लटकती रहती है। इसका रंग शुरुआत में हरे रंग का होता है और धीरे-धीरे यह फली पकने के बाद काले रंग में दिखाई देता है।

रेला मडा वृक्ष

रेला मडा वृक्ष दिखने में बहुत ही सुंदर दिखाई देता है, जब वृक्ष पर पीला सोना अर्थात पुंगार (पुष्प) खिला हो। गर्मी के मौसम में रेला मडा वृक्ष पुष्प से ढका रहता है। बुजुर्ग लोगों का कहना है कि, पहले इनके फुल के डुहडी को सब्जी भी बनाते थे। जो बहुत ही लाभदायक होता था। आयुर्वेद के दृष्टिकोण से रेला मडा बहु उपयोगी गुणकारी वृक्ष है। जिसके फुल, फल, बीज व जड़ी को उपयोग में लाया जाता है। जिस प्रकार कोयतुर गण्ड जीव (गोंदला) समुदायों में एक लय के साथ कार्य में सहयोग की भवना एक दुसरे में होती है। चाहे कोई भी परब या पडुंम क्यों न हो आपस में सामांजस्य देखने को मिलता है। रेला मडा की वृक्ष से हमें यह ज्ञान मिलता है। प्रकृति हमें यही सिखाता है, परिस्थिति जैसे भी हो पुनेम हमेशा अपन मार्गदर्शिका की बोध करती है। ठीक वैसे ही रेला मडा का पुष्प गुच्छ समुह में होती है। इसकी फली के गूदे का स्वाद मीठा होता है और हल्की कसेली भी होती है। लेकिन, ज्यादातर मीठी ही होती है।

पुंगार पुष्प गुच्छ

रेला मडा वृक्ष के फुल, फल, छाल और जड़ी कई बिमारियों से निजात दिलाने में मददगार होते हैं। रेला मडा के फल कब्ज़ से राहत देते हैं और पेट संबंधी विकारों तथा बुखार में लाभकारी साबित होते हैं। यह दाद-खाज-खुजली और जलन से राहत देते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करते हैं। फोड़-फुंसी को भी जड़ से खत्म कर, चेहरे की खुबसूरती को बढ़ाते हैं। इनका डायबिटीज जैसे रोग से भी छुटकारा पाने में इस्तेमाल होता है।

रेला मडा के फल

गोटूल युनिवर्सिटी के कुलपति तिरु. नारायण मरकाम जी का कहना है कि, “ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से रेला मडा (अमलतास) के फल मिल जाते हैं। इनका उपयोग बुखार को ठीक करने के लिए, अमलतास की फली मंजा को पिपली की जड़ हृतकी कुटकी एवं मोथा के साथ बराबर भाग में मिलाएं। फिर, इसका काढ़ा बनाकर पीएं, इससे ज्वर में लाभ होता है। अमलतास के इस्तेमाल से फोड़ा, फुंसी और छाले की परेशानी दूर होती है। अमलतास के पत्तों को गाय के दूध के साथ पीसकर लेप बनाने से, नवजात शिशु के शरीर पर होने वाली फुंसियां और छाले दूर हो जाते हैं। पेट का पाचन संबंधी समस्याएं होने पर, अमलतास की फली के रस का सेवन करने की सलाह दी जाती है, इसके लिए अमलतास की फली और विजय राजभर को पानी में भिगो दें, इसके बाद हल्के भूरा निकालकर जूस बनाएं और सेवन करें। आप चाहे तो अमलतास की फली का पानी भी पी सकते हैं और पुराने से पुराने कब्ज से छुटकारा पा सकते हैं।”


मानव में सामुहिकता व सभ्यता के भावों की प्रथम पाठशाला गोटूल एजुकेशन सिस्टम की पहली क्लास, प्रथम नृत्य संयोजन, प्रथम वैज्ञानिक अनुसंधान परक शिक्षा, प्रथम संगीत संयोजन ज्ञान को संगीत नृत्य करसना (खेल) प्रकृति के उदाहरणों से समझाने की तकनीकी, एक अदभुत मौसम सूचक केन्द्र आदि अनेक विशेषताओं के साथ रेला मड़ा ऐसा वृक्ष है, जिसने मानव समुदाय को "ज्ञान" को संकलित करना सीखाया। ऐसा वृक्ष जिसने महान परावैज्ञानिक पहादीं पारी कुपार लिगों पेन को नृत्य संयोजन हेतु प्रेरित किया। जिसके फुलों में मंडराते भौंरो व मधुमक्खियों के करतल गुंजन ने "रे रे लोयो रेला" की संगीत संयोजन ने हम इंडिजीनस /कोयतोरों को सदियों से "एडोर्फीन व डोपामीन" जैसे उत्प्रेरकों के साथ, हमें हमेशा प्रसन्नचित्त रखते आया है। इनके लम्बे फलों ने नृत्यों में सबसे अनुशासित नृत्यों में से एक "कोंलाग" (डण्डार) नृत्य की भी खोज को प्रेरित किया। जिसने आगे चलकर ‘रामदेव’ जैसे बाबाओं के ‘धन योग’ के धनचक्कर से बचाते हुए आदिवासीयों के शारीरिक चंपलता व स्वास्थ्य तन को हरदम बनाऐ रखा। इन्हीं फलों ने मानव समुदाय के सबसे बड़े लैबोरेटरी अर्थात ‘पेट’ को स्वस्थ व संतुलित रख "कोयतोरियन्स" के शारीरिक व मानसिक स्थिति को हमेशा प्रकृति/पुनेम की ओर गतिशील बनाये रखा।


आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान, इनसे रीढ़ में पाऐ जाने वाले ‘स्टेम सेल 2’ के पुनर्उत्पादक गुणों को वृद्धि करने वाले औषधीय खोज, भविष्य में लिगों पेन, गोटूल एजुकेशन सिस्टम, कोयतोरिन टेक्नोलॉजी व रेला मड़ा दुनिया के वैज्ञानिकों/दार्शनिकों/मानव शक्तियों को आकर्षित करते रहेगी। आज विकसित देशों के बच्चों व युवाओं में मानसिक अवसाद तेजी से बढ़ रहे हैं। उनके ‘हावर्ड’ व ‘आक्सफोर्ड’ जैसे आधुनिक "पुजीं केन्द्रित शिक्षा केन्द्र" इनका अब तक हल नहीं निकाल पा रहे हैं। उन पढ़े लिखे, लेकिन प्रकृति के स्कूल के अनपढ़ ‘धनपशुओं’ को अब इन अनपढ़ "मुरिया-कोयतोर-गोण्ड-आदिवासीयों” द्वारा पल्लवित "गोटूल" एजुकेशन सिस्टम व रेला मड़ा से कुछ तो सीख लेकर एडोर्फीन, आक्सिटोसिन और डोपामीन जैसे रसायनों के प्राकृतिक ढंग से उपयोग के तरीके तो सीखने ही होगें। ताकि, हम अपने आने वाले पीढ़ियों को, प्रकृति को लीलने वाले धनपशु बनने से रोक सकें।


स्रोत: केबीकेए प्रशिक्षण शिविरों से अनुग्रहीत अंश व नारायण मरकाम (शोधार्थी, लिंगो हुय्मन मेट्रिक्स एण्ड इनवार्नमेन्ट सिस्टम)


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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