Narendra Sijui

Oct 14, 20223 min

आदिवासियों के परंपरिक वाद्ययंत्र को संरक्षित करने कि आवश्यकता क्यों है?

आदिवासी समाज जिस तरह से अपनी संस्कृति परंपरा से गहरा संबंध रखता है ठीक उसी तरह अपने पारंपरिक वाद्य यंत्र से भी रखते हैं। वे अपनी संस्कृति, परंपरा, वेशभूषा, खानपान इत्यादि से पुरे विश्व भर में एक अलग पहचान बनाते हैं। इन सब में परंपरिक वाद्ययंत्र का भी अहम भूमिका होता है, आदिवासियों के वाद्य यंत्र बनाने के पीछे उनकी संस्कृति एवं परंपरा जुड़ी हुई होती हैं।

इस वाद्य यंत्र के जरिए समाजिक के साथ साथ आर्थिक उत्थान भी होता है। मनोरंजन,उत्सव व सुरक्षा के लिए इस वाद्य यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है। आदिवासी लोग प्रकृति से गहरा संबंध होने के कारण प्रकृति से उत्पन्न ध्वनि (पशु पक्षी, आंधी तुफान, बारिश, वायु इत्यादि) आसनी से नकल कर सकते थे जिसे उस आवाज या ध्वनि को वाद्य यंत्र द्वारा परिवर्तित कर जंगली जानवर को भागते हैं, एवं उसके जरिए शिकार भी करते हैं और अपने भोजन प्रबंध करते हैं। इस तरह वाद्य यंत्र को समाजिक कार्यों, आर्थिक कार्यों एवं धार्मिक कार्यों में भी इस्तेमाल करते हैं जैसे कि लोकनृत्य, लोकगाथा, लोकगीत इत्यादि। इसमें विभिन्न कार्यों में विभिन्न वाद्ययंत्रों को इस्तेमाल किया जाता है।

परंपरिक वाद्ययंत्र

अगर एक बार वाद्ययंत्र के बारे कहा जाए या उनको पारिभषित किया जाए तो उसमें कहा जा सकता है कि जिस यंत्र से ध्वनि निकलता हो एवं उस ध्वनि से समाज में एक उत्सव हो एवं समाज के देवी देवताओं खुश हो तो उसे वाद्ययंत्र कहते हैं। अगर झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में देखा जाए तो मुख्यतः तीन प्रकार के वाद्य यंत्र देखने को मिलता है, जैसे कि तंतु वाद्य यंत्र, सुषिर वाद्य यंत्र, और ताल वाद्य यंत्र।

आदिवासी समाज को आकर्षक बानने में वाद्य यंत्र का काफी महत्व है, लेकिन समय के साथ- साथ आदिवासी समाज उनके परंपरिक वाद्ययंत्र से दुर भाग रहे हैं एवं इन वाद्य यंत्र को युवा पीढ़ी भी अनदेखा कर रही है। जिससे समाज में वाद्य यंत्र का माहौल दिन-ब-दिन खत्म होते दिख रहा है। जिसे हमें संरक्षित करने कि आवश्यकता है। क्योंकि ये यंत्र हमारी पुरखों के देन हैं।

झारखंड के खरसावां इलाके के समाज सेवी नारायण जोंकों कहते हैं कि "पहले के जमाने में वाद्य यंत्र को न सिर्फ मनोरंजन के लिए उपयोग किया जाता था बल्कि समाजिक कार्यों में भी जैसे कि अगर गांव के अखड़ा में बैठकी बुलाया जाए तो उस बैठक की सूचना देने के लिए वाद्ययंत्र का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन आज के दौर में इस सबको अनदेखा कर दिया जा रहा है जो समाज का एक गंभीर समस्या बना हुआ है, आज सब कोई अपनी संस्कृति के वाद्ययंत्र को छोड़ आधुनिक वाला यंत्र को ओर भाग रहे हैं। आज के युवा पीढ़ी अपने ही वाद्ययंत्रों के बारे में नहीं जानते हैं, फलस्वरूप आदिवासियों के वाद्य यंत्र विलुप्त होने जा रहे हैं।"

झारखंड ट्राइबल वेलफेयर रिसर्च इंस्टीट्यूट 2006 के मुताबिक आदिवासी के कई सारे वाद्य यंत्र विलुप्त हो चुके हैं, जिससे आदिवासी लोकनृत्य के ताल भी विलुप्त होने जा रहे हैं। आने वाले दिनों में ये सिर्फ म्युजिअम में सीमित रह जायेंगे। दैनिक जागरण के द्वारा प्रकाशित एक खबर के अनुसार और 10-15 सालों में आदिवासियों के वाद्य यंत्र विलुप्त हो के खत्म हो जाएंगे। जो आदिवासी समाज में एक विशेष मौके एवं सुरक्षा के दृष्टिकोण से बजाने के प्रथा थी वह आज आधुनिक यंत्र को अपना चुके हैं। वर्तमान दौर में वाद्यंत्रों का उपयोग पहले के अनूरूप बहुत कम ही समाजिक कार्यों, धार्मिक कार्यों में देखने को मिलता है।

जिन जगहों और परम्पराओं के जरिए वाद्ययंत्रों को बचाए रखा जा सकता था, आज के दौर में वे शब्दकोश में भी नहीं हैं। जो पारंपरिक संस्थाएं किसी समय वाद्ययंत्र, रिति रिवाज के प्रशिक्षण के केन्द्र थे उन पर ज़मीन माफियाओं की नज़र लग चुकी है, चाहे वो गीतिओड़ा (धुमकुड़िया) हो या गोटूल।

ओड़िशा राज्य के सुदुरवर्ती क्षेत्र के समाज सेवी राम चंद्र बोदरा बताते हैं कि आदिवासियों के परंपरिक वाद्ययंत्र विलुप्त होना मतलब उनकी लोकगीत, लोकनृत्य खतरे में आ जाना है। एक बात तथ्यों के साथ कहा जा सकता है कि ये सिर्फ नृत्य-गीत नहीं बल्कि आदिवासियों के इतिहास को दार्शता है। हम सब जानते हैं कि आदिवासियों का कोई इतिहास लिखित दस्तावेज में नहीं है, उनके लोक कथाएं, लोकगीत, लोकनृत्य से ही उनके इतिहास, पुरखोति, रीति रिवाज, संस्कृति को देखा जा सकता है। वाद्ययंत्र विलुप्त होने का मतलब, उनका इतिहास, अस्तित्व, सम्मान सब खत्म हो जाना है। आज के युवा पीढ़ी को थे समझने की जरूरत है ताकि हमारे इतिहास, अस्तित्व और सम्मान को बचाया जा सके। अगर हमारे इतिहास को जीवित रखना है तो नयी पीढ़ी को वाद्ययंत्र के बारे एवं उसको उपयोग में लाने के लिए प्रशिक्षण देने कि जरूरत है।

लेखक परिचय:- झारखण्ड के रहने वाले नरेंद्र सिजुई जी इतिहास के छात्र हैं और आदिवासी जीवनशैली से जुड़े विषयों पर प्रखरता से अपना मत रखते हैं।