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Writer's pictureRabindra Gilua

आदिवासी भाषाओं के लिए 21वीं सदी की चुनौतियां

Updated: Feb 23, 2023

इस लेख को आदिवासी आवाज़ शिखर सम्मेलन 2022 में हुए लेखन प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।


हर समाज की अपनी एक भाषा होती है जो उस समाज की सभ्यता और संस्कृति को दर्शाता है। वैसे ही भारत में भी सभी आदिवासी समुदायों की अपने विशिष्ट भाषा है, जो उसके संस्कृति, परंपरा और सभ्यताओं को दिखाती है। भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। इनमें हाल-फिलहाल शामिल की गयी संथाली और बोड़ो ही मात्र आदिवासी भाषाएं हैं।


आदिवासी लोग हमेशा से ही बाहरी चुनौतियों का सामना करते आ रहे हैं। साथ ही साथ अपने अधिकारियों को लेकर भी संघर्ष कर रहे हैं। अभी 21वीं सदी में अपने भाषाओं को लेकर भी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। क्योंकि 21वीं सदी वास्तव में डिजिटल रूप ले लिया है या कहें कि 21वीं सदी कंप्यूटर और इंटरनेट की सदी है। अभी कंप्यूटर और मोबाइल शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आज समय के साथ- साथ शैक्षिक प्रणाली में भी परिवर्तन हुई है, और इस प्रणाली को डिजिटल प्रौद्योगिकी से जोड़ा गया है। हाँ यह बात तो सही है की इसकी मदद से लोग जल्दी से नई भाषा सीख रहे हैं। पर इस आधुनिकीकरण के वजह से आदिवासी लोग अपनी भाषाओं से दूर होते जा रहे हैं। लोग शहरों की ओर अपना रुख मोड़ रहे हैं। शहरों में रह रहे हैं, वहाँ के लोगों से घुल मिल रहे हैं। ये भी ठीक है पर उन लोगों के साथ- साथ रहकर अपने भाषा के तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं। दूसरों की भाषा सीखना भी चाहिए इसका मतलब यह नहीं कि अपने आने वाले पीढ़ी को भी अपनी भाषा से दूर रखें। आज कल के बच्चे हिंदी और अंग्रेजी तो सीख रहे हैं, पर अपनी मातृभाषा नहीं सीख पा रहे हैं। आज कल के बच्चे आंख खोलते ही मोबाइल, लैपटॉप, कंप्यूटर और टेबलेट जैसे गैजेट के साथ खेलते दिखाई दे रहे हैं। यानी आँखें खोलते ही वह खुद को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के करीब पाते हैं। लेकिन होश सम्भालते हुए जो शिक्षा प्रणाली उनके सामने पेश किया जाता है उनमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती है। जब की आज के दौर में वही भाषा जिंदा रहेगी जो आप को बदलते हुए इलेक्ट्रॉनिक और तकनीकी पटल के साथ जुड़ने की क्षमता रखती है। किसी भी भाषा की तरक्की का दारोमदार उसके बोलने वालों के ऊपर है कि वह किस हद तक अपनी भाषा को बदलते हुए हालातों के साथ खुद को जोड़ते हैं।

हो भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए प्रदर्शन करते लोग।

अगर आप को भी आदिवासी भाषाओं का दर्द है तो चारों तरफ नज़र दौड़ा कर देखिए कि आदिवासियों की भाषा आज कहाँ है? 21वीं सदी में अगर हमें वाकई आदिवासियों से हमदर्दी होती तो, हम अपने बच्चों को अपने भाषाओं से दूर नहीं करते। मैं ये नही बोल रहा हूँ कि आप अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर या पायलट और वैज्ञानिक मत बनाइए। जरूर बनाइए लेकिन साथ में आप की अपनी भाषा भी सिखाइए। इससे आप की भाषा भी बचे रहेगी और आदिवासियों की भाषा भी लुप्त होने से बच जाएगी। क्योंकि किसी भी आदिवासी समाज, समुदाय को गुलाम बनाना हो तो पहले उसकी जड़ें काटी जाती हैं। अगर हम अपने भाषा को तव्वजो नही देंगे तो अपनी पहचान खुद खो देंगे और हमारी जड़े अपने आप कटने के लिए मजबूर हो जायेंगी।


हर माँ बाप को हमेशा से डर रहता है कि अभी जो रोजगार के लिए प्रतियोगिता का दौर चल रहा है उसमें उनके बच्चे उन बच्चों से पिछड़ जाएंगे जो आधुनिक शिक्षा ले रहे हैं। और उनके बच्चों को कोई रोजगार नही मिलेगी। आप सभी को ये बता दूं कि ये सिर्फ वहम है। अगर आप अपनी मातृभाषा, आदिवासी भाषा की पढ़ाई कर रहे हैं, लिख रहे हैं और व्यवहार में ला रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि आप या आपके बच्चे किसी अन्य भाषा की पढ़ाई नही कर सकेंगे। और न ही इसका अर्थ है कि मातृभाषा आदिवासी भाषा पढ़ना रोजगार में सहायक नहीं होगा। आज का हर बड़े एग्जाम में एक ऑप्शनल पेपर रिजिनल भाषा का होता है।


अगर रोजगार की बात करें तो, रोजगार की समस्या आज हर व्यक्ति को है। क्या कला और विज्ञान वर्ग के छात्र रोजगार के लिए भटक नही रहे हैं। फिर हम क्यों खौफ में अपनी भाषा छोड़ रहे हैं? हमें ये नही भूलना चाहिए कि हमारी भाषा ही हमारी पहचान है। अगर हम अपनी भाषा छोड़ देंगे तो हम अपनी पहचान और संस्कृति भी खो देंगे। हमारी मातृभाषा ही हमारी समाज की और हमारी आदिवासी होने का प्रमाण देती है। हमारे आने वाले पीढ़ी को यह बताया जाए कि भले हमारी भाषा हमें रोजगार दे या न दे, लेकिन ये हमारी विरासत और हमारी पहचान को बनाये रखने में मुख्य भूमिका निभाती है। इस लिए अपनी भाषा से लगाव बनाए रखना चाहिए। यदि हम भी हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, बंगला, तमिल इत्यादि भाषाओं की तरह अपनी भाषा को महत्व को समझ जाएंगे तो हमें भी अपनी भाषा से प्यार हो जाएगा। हमारी तरक्की के रास्ते में भी कोई बाधा नहीं आएगी।


हम आदिवासी लोग अगर अपनी- अपनी भाषाओं से दूर जाएंगे तो 21वीं सदी में हमारी आदिवासी भाषाओं के विकास की हालात कैसी होगी इस का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। हमें अपनी भाषाओं को बचाने के लिए, बेहतरी के लिए, विकास के लिए, हमें कुछ अहम कदम उठाने की ज़रूरत है। इसकी शुरुआत हमें अपने आप से, अपने घर परिवार, दोस्तों से करना चाहिए।


आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान के अध्यक्ष श्री दामोदर सिंह हांसदा कहते हैं “जब तक हम अपने भाषा में बात चीत नही करेंगे तब तक कोई माहौल नहीं बनेगा। हम कहीं भी रहे चाहे शहर हो या गांव- जंगल अपनो के साथ अपनी ही भाषा में बातें करनी चाहिए। तब जा कर हम अपने आने वाली पीढ़ी को यह माहौल दे सकते हैं कि वो भी हमारे साथ अपनी मातृभाषा में ही बातें करेंगे। अपनी भाषाओं की शिक्षा के दायरे को फैलाने के लिए हमें उसे घर-घर पहुँचाने होंगे। एक आंदोलन के तौर पर लोगों से संपर्क करनी होगी।"


अंत में हम ये ही कहेंगें की 21वीं सदी में आदिवासियों की और आदिवासी भाषाओं की हालत को देखते हुए कुछ जिम्मेदारी हमारी भी बनती है। अपनी आदिवासी भाषाओं के विकास के लिए दूसरों की प्रतीक्षा करने या किसी दिव्य शक्ति की प्रतीक्षा करने के बजाए आप जो भी कर सकते हैं वो कीजिए। चाहे आप अकेले करें या समूह में करें, कार्य शुरू कर दीजिए। धीरे-धीरे लोग आप के काम को देखते हुए आप से जुड़ते चले आएंगे। फिर आप की सोच, आंदोलन, कार्य बड़ा रूप ले लेगी। मुझे पूरी उम्मीद है कि हालात और बेहतर होंगी। इन्हीं अंधेरे से सूरज निकलेगी और चारों तरफ रोशन कर देगी। और हमारी आदिवासियों की भाषाओं को उचित एवं वास्तविक जगह मिलेगी।


लेखक परिचय:- चक्रधरपुर, झारखंड के रहने वाले, रविन्द्र गिलुआ इस वक़्त अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रहे हैं, भारत स्काउट्स एवं गाइड्स में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं। लिखने तथा फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी करने के शौकीन रविन्द्र जी समाजसेवा के लिए भी हमेशा आगे रहते हैं। वे 'Donate Blood' वेबसाइट के प्रधान समन्वयक भी हैं।

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