अक्टूबर महीना आधा बीत चुका है। छत्तीसगढ़ के लहलहाते धान अब पकने को हैं, और कुछ ही दिनों में यह धान किसानों के खलिहानों की शोभा बढ़ाएंगे। आज छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहलाती है, लेकिन यहाँ के आदिवासी समुदाय शुरू से ही धान की खेती करते आएँ हैं।
इस राज्य के लगभग सभी आदिवासी समुदाय प्रमुख रूप से धान की ही कृषि करते हैं। धान के चावल से बना भात ही इनका मुख्य भोजन रहा है, लेकिन चावल का प्रयोग सिर्फ़ भात ही नहीं बल्कि और भी अनेक खाने के व्यंजनों के रूप में होता है। जैसे:- हड़िया, पीठा आदि।
जैसे-जैसे समाजों में आधुनिकता का प्रवेश हो रहा है, वैसे-वैसे गाँवों एवं जंगलों की जीवनशैली में भारी बदलाव आ रहा है। पहले लोग धान उपजा उसका चावल बनाते थे और साल भर उस चावल का अनेकों तरीके से इस्तेमाल करते थे। अब अधिकतर लोग धान को बेच देते हैं और बदले में पैसा रखे रहते हैं, और ज़रूरत के हिसाब से चावल खरीदकर अपना जीवन यापन करते हैं। चंद लोग ऐसे भी हैं जो अपने धानों को बेचते नहीं हैं और मशीन में उन्हें पिसाकर उसका चावल बना लेते हैं।
आधुनिक मशीनों के बनाये जाने के काफ़ी पहले से आदिवासी किसान अपने खेतों में उपजे धान की पिसाई खुद कर लेते थे। आदिवासी शुरू से ही प्रकृति के साथ रहें हैं, इनकी हर ज़रूरत प्रकृति में मिलने वाले संसाधनों से पूरी हो जाती हैं। इसी प्रकार धान को पीसकर उसकी चावल को निकालने के लिए भी उन्होंने प्रकृति का ही सहारा लिया, और लकड़ी से ही एक बहुउपयोगी तकनीक विकसित किया जिसे 'ढेंकी' कहा जाता है।
पंचायत कुटेशर नगोई के निवासी श्री बाबू सिंह से जब हमने ढेंकी बनाने की प्रक्रिया को लेकर हमने बातचीत किया तब पता चला कि,
सबसे पहले एक अच्छी लकड़ी का चयन किया जाता है, खम्हार,साल,कोसम आदि पेडों की लकड़ियाँ अच्छी होती हैं।
लकड़ी की लंबाई 6 या 7 फुट एवं चौड़ाई आधा से एक फूट का होना चाहिए, लकड़ी को अच्छे से छीलकर उसके आगे के हिस्से को गोल एवं पिछले हिस्से को चपटा बनाया जाता है।
आगे के हिस्से में छेदकर उसमें एक छोटी लकड़ी को फिट किया जाता है, और उसी छोटी लकड़ी के निचले हिस्से में लोहे की एक चूड़ी लगाई जाती है, इसे मूसल कहते हैं, यही हिस्सा धान को कूटने में काम आता है।
फ़िर एक मीटर लंबी एवं लकड़ी में थोड़ा बड़ा से छेद करके ज़मीन के अंदर इस प्रकार गाड़ा जाता है कि जब मूसल गिरे तो उसी छेद में गिरे।
कुछ और लकड़ियों की मदद से ढेंकी को इस प्रकार ऊपर उठा कर रखा जाता है कि, यदि पीछले हिस्से में वजन दिया जाए तो अगले हिस्सा अपने आप थोड़ा उठ जाता है एवं वजन हटाने पर जोर से मूसल के सहारे आगे की ओर गिरता है, और इसी से चीज़ों की कुटाई हो जाती है।
ढेंकी से न सिर्फ़ धान की, बल्कि चावल, महुआ, चना, आदि अन्य अन्नों तथा बीजों की कुटाई भी होती है। ढेंकी की कुटाई में दो से तीन लोगों की आवश्यकता होती है। एक व्यक्ति आगे की रहकर कुटे हुए अन्नों को बाहर निकालता/निकालती है और दो व्यक्ति पीछे खड़े होकर अपने पैरों के सहारे कूटते हैं।
आदिवासी समुदाय के लिए ढेंकी उनके पूर्वजों से मिला धरोहर है, ढेंकी में कुटे हुए अन्न मशीनों की तुलना में ज्यादा स्वादिष्ट एवं पोषण से भरपूर होते हैं।
भले ही हम आज तेज़ गति आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहे हैं परंतु हमें अपने पूर्वजों से मिली इस तरह की अनमोल धरोहरों को बचाकर रखना चाहिए।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l
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