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लकड़ी से खिलौने बनाने की आदिवासी परंपरा को जीवित रख रहे हैं छत्तीसगढ़ के ये दो भाई

“हमारे पास खिलौने बनाने की कला है, तो हम बाज़ार से खिलौने क्यों खरीदे? हमें इस आदिवासी कला और परंपरा को जीवित रखना है।”


इस लक्ष्य के साथ छत्तीसगढ़ के कोरिया ज़िले के सकताराडाड़ गाँव के दो भाई भवर सिंह और नन्द कुमार खुद गाँव के बच्चों के लिए खिलौने बनाते हैं और इस कला की रक्षा करते हैं।


लकड़ी आदिवासियों के जीवन का बड़ा भाग है। लकड़ी का इस्तेमाल घर बनाने, घर का समान बनाने, आग जलाने के लिए और खेती में भी किया जाता है। इसके साथ-साथ लकड़ी के और भी उपयोग हैं, जैसे बच्चों के लिए खिलौने बनाए जा सकते हैं।

तस्वीर साभार: YKA यूज़र


गाँव के कई लोग खिलौने बनाते थे लेकिन आज ज़्यादा लोग इस कला को नहीं जानते हैं। आधुनिक प्लास्टिक के खिलौने आने से पहले से आदिवासी बच्चे लकड़ी के खिलौने बनाकर खेलते हैं।


गाँव के दो भाई भवर सिंह और नन्द कुमार को बच्चों के लिए खिलौने बनाना और लकड़ी के कई प्रकार की दूसरी वस्तुएं बनाना भी बहुत पसंद है। यह खिलौने और वस्तुएं दोनों मिलकर बनाते हैं। इन खिलौनों में से एक खिलौना है, ढेक्कल गाड़ी।


ढेक्कल गाड़ी या ठेला गाड़ी को बनाने के लिए सबसे पहले 5 फुट की गोयंजा लकड़ी काटी जाती है। यह काटने के बाद उसके ऊपर के छिलके को हटा दिया जाता है और फिर इसके चार छोटे-छोटे टुकड़े करके चक्का बना लेते हैं।


फिर दो लकड़ियों को पतला छीलकर चक्के को लगाया जाता है और उसके ऊपर दो और लकड़ियां लगाकर ऊपर दो पतली और चौड़ी लकड़ियां बिछा दी जाती है, जिसे आदिवासी ‘पला’ बोलते हैं।


इसके बाद गाड़ी पर दो लकड़ियां खड़ी करके कीले से जोड़ देते हैं, ताकि बच्चों को गाड़ी पकड़ने में आसानी हो और बच्चे नीचे ना गिरें। इसके लिए आगे की तरफ भी एक छोटी लकड़ी लगाई जाती है, जहां रस्सी भी बांधी जाती है, जिसे पकड़कर दौड़ते हैं।


खिलौने बनाने के औज़ार और लकड़ी


भवर और नन्दकुमार खिलौना बनाने के लिए कई प्रकार के औज़ार जैसे कुल्हाड़ी, बसुला, रुखना, कीला, इत्यादि इस्तेमाल करते हैं। कुल्हाड़ी से लकड़ी को काटा जाता है। बसुला से छिलते हैं, रुखना से छेद करते हैं और कीले से लकड़ी को जोड़ने का काम करते हैं। खिलौने बनाने के लिए हल्की लकड़ी का इस्तेमाल होता है, जैसे सलैया, गूलर, गोंयजा या कुरलु की लकड़ी। भवर बताते हैं,

“खिलौनों को पारंपरिक रूप से सलई अथवा सलैया की लकड़ी से बनाया जाता है। सलई लकड़ी की रेशे सीधी, सतह चिकनी और स्वभाव मुलायम होता है, जो खिलौने बनाने के लिए उपयुक्त होता है लेकिन अब यह लकड़ी आसानी से नहीं मिलती है, इस कारण अब हमें गूलर या गोयंजा वृक्ष की लकड़ी का उपयोग करना पड़ता है। आजकल हम नीलगिरी की लकड़ी का प्रयोग भी कर रहे है।”

बाज़ार से खिलौने खरीदने के बदले में बच्चे गाँव में बनाए हुए खिलौनों के साथ खेलना पसंद करते हैं।


तस्वीर साभार: YKA यूज़र


आदिवासी कला और परंपरा को जीवित रख रहे हैं यह दोनों भाई


खिलौने बनाना यह एक कला है, जो सभी को नहीं आती है। छत्तीसगढ़ के कई गाँव के आदिवासी अपनी मेहनत, कला और बुद्धिमत्ता से अलग-अलग खिलौने बनाते हैं। यह कला धीरे-धीरे बाज़ार के खिलौनों की वजह से गायब होते जा रही है लेकिन भवर और नन्द कुमार इस कला को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। पैसों की चिंता तो इन्हें भी है लेकिन अपने लक्ष्य पर दोनों काम कर रहे हैं। उनका कहना है,

“हमारे पास खुद खिलौने बनाने का ज्ञान है, तो हम इसका इस्तेमाल करने के बजाय क्यों पैसे देकर बाज़ार से खिलौने खरीदे? बड़ों से ही बच्चे सीखते हैं, आज हम यह कला जीवित रखेंगे तो इसे देखकर हमारे बच्चे भी इस कला को सीखेंगे और एक दिन खुद खिलौने बनाएंगे। यह आदिवासी परंपरा और कला धीरे-धीरे बहुत-से आदिवासी लोग खुद भूल रहे हैं लेकिन हम अपनी यह परंपरा नहीं भूलेंगे।”


यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजैक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, और इसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है।


यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

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