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आदिवासी भाषाओं की 21वीं सदी में चुनौतियां

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


भारत, वैसे भी आदिवासी बाहुल्य देश है। वर्ष 1991 की जनगणना में, इनकी आबादी 6 करोड़ से भी अधिक पाई गई, जो पूरे देश की जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत है। आदिवासी समुदाय, देश के पहाड़ी और जंगली इलाकों में फैले हुए हैं। ये पूरे देश के क्षेत्रफल के करीब 15 प्रतिशत भाग में निवास करते हैं। भारत में सैकड़ों प्रकार के जनजातियाँ रहते हैं। उनकी अपनी अलग-अलग संस्कृति और बोली हैं। जो अपने में एक विशिष्ट जाति की पहचान कराने में सक्षम होती हैं। आदिवासी भाषियों में, “भीली” बोलने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है, दूसरे नंबर पर “गोंडी” भाषा तथा तीसरे स्थान पर “संताली” भाषा है। भारत की प्रमुख 114 भाषाओं में से केवल 22 भाषा को ही भारतीय संविधान में शामिल किया गया है। जिसमें सिर्फ संताली और बोड़ो ही आदिवासी भाषाएं हैं। भारतीय राज्यों में, सिर्फ़ झारखण्ड में ही 5 आदिवासी भाषाओं (संताली, मुंडारी, हो, कुडूख और खड़िया) को द्वितीय राज्याभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ है।


छत्तीसगढ़ में 42 जनजाति पाई जाती हैं। जिसमें से प्रमुख हैं :- गोंड, कंवर, बिंझवार, भतरा ,उरांव, मुंडा, कमार, हल्बा, भरिया, मंझवार, खैरवार, धनवार और लोहार आदि। इन सभी जातियों की अपनी अलग ही भाषा और बोली होती है। जिनका प्रयोग केवल अपने ही समुदाय के बीच वार्तालाप करने में किया जाता है। लेकिन, आने वाले दिनों में, इनकी भाषा और बोलियों पर कड़ी चुनौतियां रहने वाली हैं, और इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं।


जिसमें से प्रमुख हैं :-


अपनी संस्कृति से दूर होना - आधुनिक समय में लोग पढ़ाई, पैसा कमाने या दूसरे कारणों से अपने समुदाय से दूर चले जा रहे हैं। जिसकी वजह से उन्हें अपनी संस्कृति और त्यौहारों में अनुपस्थित रहने से अपनी समुदायों में गाये जाने वाले गीतों से वंचित होना पड़ रहा है। जिसे वह जातियां अपनी मातृभाषा में गाती हैं।


अन्य भाषा बोलने पर बाध्य करना - आजकल के माता-पिता चाहते हैं कि उनके पुत्र शुरु से ही हिंदी और अंग्रेजी जैसी भाषा को जानें, बच्चपन से अपने बच्चों को हिंदी या इंग्लिश मे बात करने को सिखाते हैं। अगर गलती से भी वो अपनी भाषा बोलते हैं तो उनहें डांट खाना पड़ता है। इस कारण भी लोग अपनी मातृभाषा नहीं सीख पाते हैं।


आदिवासी भाषाओं का 8वीं अनुसूचि में शामिल न होना - आदिवासियों की भीली और गोंडी जैसी प्रचलित भाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं को जो कम प्रचलित हैं, उन्हें शामिल कर लिया गया। जिसके कारण इन जैसे कई आदिवासी भाषाओं को महत्व नहीं मिला। इसके अलावा दूरदर्शन, समाचार, अखबार जैसे किसी भी जगह में आदिवासी भाषा या बोली का प्रयोग न होना। शासकीय कामों में इसकी महत्व ना होना। स्कूलों में इसकी विषय न होना।


इन्हीं सब कारणों से आदिवासी भाषाओं को 21वीं सदी में बड़ी चुनौती आ गई है। आधुनिक समय में कहीं-कहीं तो आदिवासी लोग ही अपनी भाषा-बोली का प्रयोग करने में संकोच कर रहे हैं। इन सभी कारणों से आज आदिवासी बोलियाँ, जो इनकी संस्कृतियाँ से जुड़ी हैं, विलुप्ति के कागर में पहुँच चुकी हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में ये पुरी तरह से समाप्त हो जाएंगी। ऐसे में हम खोजकर्ताओं का फर्ज बनता है, कि इनकी संस्कृतियों को उभारने और भाषाओं को सुरक्षित करने में मदद करें।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।


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