पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
हमने पहले भी आपको बैगा जनजाति के बारे में अवगत कराया था, जो एक पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोग होते हैं। जिनकी जिंदगी सरल व स्वाभाविक होती है। लेकिन, कुछ समय से बैगा जनजातियों की संख्या में कमी देखने को मिली है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, बैगा जनजाति की जनसंख्या पहाड़ी क्षेत्रों में 50% कम देखने को मिली। जबकि, मृत्युदर में भी वृद्धि नहीं हुई है, तो जाहिर सी बात है कि, बैगा जनजाति के लोग पलायन कर रहे हैं। बैगा जनजाति के लोग पहाड़ी क्षेत्रों व अपनी जन्मभूमि को छोड़कर, दूसरी जगह पलायन कर रहे हैं। ज्यादातर बैगा जनजाति के लोग, मध्य प्रदेश में निवास करते हैं। लेकिन, वे छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश और झारखण्ड के गांव के छोटे-छोटे क्षेत्रों में भी एक गुट में निवास करते हुए देखे गए हैं।
कोरबा जिला के अंतर्गत आने वाला पोड़ी उपरोड़ा ब्लॉक, जहाँ 792 गांव आते हैं। जहाँ कई तरह के आदिवासी बसे हुए हैं। लेकिन, कोडगार क्षेत्र एक ऐसा गांव है, जहां बैगा जनजाति के 50 परिवार निवास करते हैं। हमने गांव में ही रहने वाले 66 वर्षीय पवन साय बैगा से बात की। जिन्होंने हमें बताया कि, हमारे कोडगार क्षेत्र में गोंड जनजाति के साथ-साथ बैगा जनजाति के लोग भी निवास करते हैं। लेकिन, हमारे बैगा जनजाति की संख्या निरंतर धीरे-धीरे घटती जा रही है। क्योंकि, हमारे लोग अपने जन्म स्थान को छोड़कर दूसरे जगह जा रहे हैं।
हमने गांव में ही रहने वाले बैगा लोगों से चर्चा की और उनसे गांव को छोड़ने का कारण पूछा तो, उन्होंने हमें बताया कि, वे लोग काम करने के लिए बाहर जा रहे हैं और शहर की ओर आगे बढ़ रहे हैं। ताकि, मजदूरी करके अपना भरण-पोषण कर सकें और अपने परिवारों को पाल सकें। इस तरह से अपने गांव को छोड़कर बैगा आदिवासियों का जाना, दूसरे आदिवासियों को सोचने पर मजबूर कर रहा है कि, जिन आदिवासियों के वजह से आज हमारा गांव और जंगल सुरक्षित है। जिन बैगा आदिवासियों को हम अपने गांव का रक्षक व जंगलों का रक्षक माना करते थे। आज वही बैगा आदिवासी अपने धरोहर, अपने जंगल व अपने घर को छोड़कर जाने में मजबूर हो गए हैं। क्योंकि, बढ़ती जनसंख्या व बदलते हुए परिस्थिति और बढ़ती हुई बेरोजगारी और महंगाई का सामना करने के लिए, बैगा आदिवासी शहर की ओर बढ़ रहे हैं। ताकि, उन्हें कुछ काम मिल सके और काम करने के बाद वे अपने जरूरतों को पूरा कर सकें।
हम यह कह सकते हैं कि, इस तरह की परिस्थिति अगर ऐसे ही बनी रही तो एक दिन बैगा जनजातियों की संख्या इतनी नीची होती चली जाएगी कि, बैगा जनजातियों की संख्या ना के बराबर देखने को मिलेगी। हम सभी को भलीभांति जानकारी है कि, बैगा जनजाति के जो लोग होते हैं वे जंगलों व पेड़-पौधे से प्राप्त चीजों को अपने जीवन के अमूल्य चीजों में से एक मानते हैं। जो उनके दैनिक जीवन में रुपए कमाने का एकमात्र साधन है। लेकिन, धीरे-धीरे परिस्थिति बदलती गई और जंगल एवं वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी। जिसकी वजह से अब बैगाओं को, जंगलों से उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती है। अगर हम उनके घरों के बारे में बात करें तो उनका कच्चा मकान होता है। जो सिर्फ खप्पर का बना होता है और अपने मकान के चारों ओर लकड़ी का घेराव किए रहते हैं। उनकी सोचने-समझने की जो क्षमता होती है, वह सीमित होती है। कहा जाए तो उनका रहन-सहन बाकि जनजातियों से एकदम अलग रहता है।
आइए जानें, बैगा जनजाति के लोग कब और क्यों पलायन करते हैं?
ज्यादातर हमने देखा है कि, बैगा जनजाति के लोग गर्मी के दिनों में पलायन करते हैं। ताकि, वे बाहर जाकर कुछ काम कर सकें और काम करते-करते बैगा जनजाति के लोग दूसरे स्थानों में चले जाते हैं। और घर वापस नहीं आ पाते। जिससे उनकी संख्या में कमी होती देखी गई है। बैगा जनजाति के लोगों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि, किस तरह से जंगलों से प्राप्त सभी चीजों को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाता है। हमने बैगा जनजातियों के बारे में सिर्फ सुना ही था। लेकिन, जब हम बैगा जनजाति के लोगों के साथ जब चर्चा किए तो हमें पता चला कि, वे मछली पकड़ने में बहुत ही ज्यादा निपुण होते हैं और बांस से तरह-तरह के वस्तु बनाने में भी निपुण होते हैं। वे लोग नदी से मिलने वाले मछलियों के साथ-साथ घोंघी और केकड़ा को भी खाते हैं, और अपने हाथों से स्वयं मछली जाल बनाते हैं। बैगा जनजाति के लोग दूसरों पर निर्भर नहीं रहते, वे अपने लिए उपयोगी सामान, स्वयं अपने हाथों से ही निर्मित करते हैं।
सभी लोगों को अपनी जिंदगी जीने के लिए कुछ-न-कुछ करना पड़ता है। बैगा जनजाति के लोग भी अपने जीवन को सरल बनाने के लिए, अपने जन्म स्थान को छोड़कर दूसरी जगह चले जाते हैं। गांव में रोजगार ना मिल पाने के वजह से, गांव के सभी लोगों को परेशानी होती ही है। लेकिन, बैगा जनजाति के लोगों को और भी ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि, उनके पास अपना जीवन जीने का किसी भी प्रकार का साधन नहीं होता। वैसे तो आदिवासियों को जंगल का रखवाला कहा जाता है। लेकिन, आज उन्हीं आदिवासियों को अपने जंगलों को छोड़कर दूसरी ओर जाना पड़ रहा है। और सिर्फ बेरोजगारी के वजह से बैगा जनजाति के लोगों को आज भी अशिक्षित रहना पड़ता है। इसलिए, बैगा जनजाति के लोगों को बचपन से सिर्फ यही सिखाया जाता है कि, अपने परिवार को आगे कैसे चलाया जाता है। वे लोग स्कूलों से बहुत दूर रहते हैं और हम यह भी कह सकते हैं कि, उन्हें शिक्षा के बारे में बताने वाला और समझाने वाला कोई नहीं होता।
गांव में रोजगार गारंटी के माध्यम से थोड़ा बहुत काम करने में सक्षम हो जाते हैं। लेकिन, यह जो रोजगार गारंटी का काम है, वह समय के हिसाब से चलता है। आप सभी जान रहे हैं कि, ज्यादातर गांव में मनरेगा के तहत ही काम कर सकते हैं। उसके अलावा गांव में और कोई दूसरा काम नहीं मिल पाता। गांव के लोगों के द्वारा बताया जाता है कि, गांव के जो गवटीया होते हैं, जिनके पास कई एकड़ जमीनें होती हैं, वे लोग बैगा आदिवासियों को अपने पुरोहित के रूप में मानकर चार खेत दान में दिए हैं। ताकि, वे अपने जगह को छोड़कर कहीं दूसरी जगह ना जाएं और यहीं रहकर खेती-किसानी कर अपना जीवन व्यतीत करें। लेकिन, वे मात्र चार खेतों से खेती-किसानी करके अपने परिवार का भरण पोषण नहीं कर सकते। और अपने इन समस्याओं को दूर करने के लिए, बैगा जनजाति के लोग मजदूरी करने के लिए दूसरी जगह पलायन करते हैं।
बैगा जनजाति के लोगों के पलायन होने के समस्या को देखते हुए गांव के ही लोगों के द्वारा उन्हें समझाने का प्रयास किया जाता है कि, वह अपने जन्मभूमि को छोड़कर ना जाए। क्योंकि, आदिवासी ही एकमात्र ऐसा समुदाय है, जो प्रकृति को कभी नुकसान नहीं पहुंचाए हैं। प्रकृति को हमेशा सुरक्षा प्रदान किए हैं और अगर यही आदिवासी अपने ही जंगल और धरोहर को छोड़कर कहीं दूसरी ओर पलायन करते हैं तो, यह प्रकृति और हमारे लिए दुर्भाग्य की बात होगी।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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