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आइए जानें सरगुजा जिले के सिहिरी-जिडिगी के बारे में

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


यह तो अब सभी भली-भांति जानते हैं कि, आदिवासियों की अलग-अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग संस्कृति देखने और सुनने को मिलती है। उसी तरह से, हमारे छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में रहने वाले आदिवासियों में भी देखने को मिलती है। उन्हीं में से एक है "सिहिरी-जिडिगी"


वैसे देखा जाए तो, आज कल सरकार, लगभग हर क्षेत्र में अपने तरफ से हर सुविधा उपलब्ध करा रही है। लेकिन हम आदिवासी जानकारी और पूंजी के अभाव से उन सुविधाओं को नहीं ले पाते हैं। इस वजह से हम अपने पारंपरिक चीजों पर ध्यान देते आ रहे हैं। यह हमारे लिए सही भी है। क्योंकि, हमारी परम्परा और संस्कृति ही हमारी पहचान है। इससे हमारे हाथों की कला जीवित रहती है। क्योंकि, यह कला हमारे पूर्वजों के समय से ही चलती आ रही है।


जगदीश सिंह टेकाम जी से हमें बातचीत करके पता चला कि, सिहिरी-जिडगी क्या होता है और किस चीज से बनाई जाती है। उन्होंने बताया कि, इसको बांस की लकड़ी से बनाया जाता है और इसका उपयोग खेत से लेकर घर के आंगन तक, धान को लाने में किया जाता है। जिडिगी का उपयोग पुरुष लोग करते हैं और महिलाएं सिहिरी का उपयोग करती हैं। सिहिरी और जिडिगी दोनों ही बांस की लकड़ी से बनाई जाती है, मगर दोनों में अंतर है। क्योंकि, इनकी बनावट अलग-अलग प्रकार की होती है।

ग्रामीण पुरुष जिडिगी ढोये हुए

हमारे यहां के आदिवासियों का कहना है कि, हम लोग इन्हीं चीजों के सहारे, धान को खेत से घर के आंगन तक लाते हैं। हमारे पूर्वजों से लेकर दादा-परदादा, सभी लोग इसी का उपयोग करते थे। और हम लोग भी इसी का उपयोग कर रहे हैं। इन्हें हम अपने हाथों से बनाकर, अपने उपयोग में लाते हैं। यह हमारी खुद की कला है, जो हमें पूर्वजों से मिली है और यही हमारी पहचान है। हम आदिवासी लोग अपने आने वाले पीढ़ी को भी सिखाते हैं, ताकि यह कला बची रहे। ये सभी चीजें हमारे गांव में देखने को मिलती है। क्योंकि, इन्हें हम अपने रोज़मर्रा की जिंदगी में उपयोग करते हैं।


शहरों में देखा जाए तो इन चीजों का ज्यादा प्रयोग नहीं किया जाता है। क्योंकि, आप सभी लोग जानते हैं कि, शहरी क्षेत्रों में धान बुवाई से लेकर कटाई तक में मशीनों का ही प्रयोग किया जाता है। और गांव क्षेत्रों में लोग अपनी मेहनत और लगन से करते हैं। क्योंकि, गांव के लोगों के पास इतना ज्यादा पैसा नहीं होता है कि, अपने कृषि कार्यों को करने के लिए मशीनों का इस्तेमाल कर सकें। इस कारण हमारे आदिवासी लोग अपने ही मेहनत और लगन से अपने कृषि कार्यों में इन चीजों का इस्तेमाल खुद कर लेते हैं।


जैसे कि ग्राम पंचायत पवनपुर के रहने वाले आदिवासी, गाय-बैलों से ही अपने धानों को मिसाई-कुटाई करते हैं। और गांव क्षेत्रों में अपने खेत-खलिहानों से धान को लाने के लिए, ‘सिरवानश’ का उपयोग, किसान भाई लोग करते हैं। और कोरबा जिले के रहने वाले किसान भाई लोग, रस्सी से बांध कर, धान को सिरवानश से ढ़ोते हैं।


शहरी क्षेत्रों में यह सभी चीजें देखने को नहीं मिलती है। क्योंकि, वहां परंपरागत तरीकों से कोई भी कार्य नहीं होता है। चाहे वह कृषि से जुड़ा हो या व्यवसाय से। वहां हर कार्य मशीनों से ही किया जाता है। मशीनों के आने से, कृषि कार्य महंगा हो गया है। किसानों को पारंपरिक कृषि के लिए मजदूर नहीं मिल पाते हैं। किसानों को स्वयं ही परिवार के साथ धान की कटाई, मिसाई सहित अन्य कार्य करना पड़ रहा है। हम आदिवासियों के पास इतनी पूँजी नहीं होती है कि, मशीन का उपयोग कर सकें। इसलिए हमारे आदिवासी लोग, अभी भी मेहनत और लगन से पारंपरिक तरीके से कृषि कार्य को करते हैं।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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