पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
यदि आपसे ये कहा जाए कि, मवेशियों के लिए भी साप्ताहिक छुट्टी देना चाहिए या दिया जाता है। तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? आप कॉमेंट्स बॉक्स में जरूर बताएं। आज हम बात करेंगे ऐसे गांव के बारे में, जहां मवेशियों को कृषि-कार्य में साप्ताहिक छुट्टी दी जाती है।
आम तौर पर हम साप्ताहिक अवकाश कि कल्पना सरकारी-कर्मचारी, स्कूली-छात्रों एवं कलकारखानों आदि में कार्यरत मजदूरों के लिए करते हैं। लेकिन बेजुबान मवेशियों, जो मनुष्य के दैनिक दिनचर्या (कृषि-कार्य) में शामिल हुए जानवरों के लिए साप्ताहिक छुट्टी। ऐसा कहना शायद एक काल्पनिक कहानी की भांति प्रतीत हो रहा होगा। परंतु यह बात काल्पनिक नहीं सत्य है।
मवेशियों के लिए अवकाश देने वाले गांव के बारे में जानने से पहले ये जानना आवश्यक होगा कि हम मनुष्यों के लिए साप्ताहिक छुट्टी कैसे और कब से शुरू हुआ।
सन् 1843 में, अंग्रेज गवर्नर के एक आदेश पारित करने पर, रविवार के दिन छुट्टी की सबसे पहली शुरुआत, एक स्कूल से की गई थी। और भारत में सन् 1890 में, बड़े संघर्ष के बाद रविवार के दिन अवकाश को मंजूरी मिली।
अंग्रेजों ने अपने शासन काल में, भारत में व्यवसाय को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर कलकारखानो की स्थापना की थी। जिसे चलाने के लिए बड़ी संख्या में मजदूरों की आवश्यकता पड़ती थी। अंग्रेज, भारतीय मजदूरों को काम करा कर आवश्यकताओं को पूरा करते थे। और इसके लिए भारतीय मजदूरों को, अंग्रेज सप्ताह के सातों दिन काम पर लगाते थे। जिसके कारण मजदूरों में शारीरिक-दुर्बलता, मानसिक तनाव जैसी स्थिति आने लगी थी। और अंग्रेजो के सामने आवाज उठाने की किसी में हिम्मत नहीं थी। लोगों की यह हालत देख, नेता नारायण मेघाजी लोखंडे जी ने अंग्रेजों के सामने एक दिन की छुट्टी का प्रस्ताव सन् 1881 में रखा, जिसे अंग्रेजों ने खारिज कर दिया था।
अंग्रेजों के इस बरताव से नेता नारायण मेघाजी अत्यंत ही दुखी हुए और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। लगभग 8 साल, लगातार आंदोलन चलने के बाद अंत में सन् 1890 में अंग्रेजों ने रविवार को सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की घोषणा कर दी। तब से साप्ताहिक अवकाश का चलन आज तक चलता आ रहा है। मानव जीवन में साप्ताहिक छुट्टी कितनी आवश्यक है, यह हम सब जानते हैं।
कृषि कार्य में पालतू-पशुओं के लिए साप्ताहिक छुट्टी, कोरबा जिला के ग्राम पंचायत सरभोका में पिछले कई सालों से चलता आ रहा है
श्री नैहरसाय एक्का गुरुवार के दिन बैलों की सप्ताहिक छुट्टी के बारे में बताते हैं, कि कुछ साल पहले बारिश कम हो रही थी, जिसे देख गांव के लोग तीन बिरष्पतिया (गुरुवार) उपवास रखना शुरू किये, और महादेव (देव-स्थान) में जाकर बारिश के लिए पानी और दूध, देवताओं को अर्पित कर, पूजा-अर्चना करते थे। और अंतिम उपवास 'गुरुवार' के दिन मांदर, झांझ-मंजीरा बजा कर, महिला व पुरुष कर्मा नृत्य करते थे। तब से गुरुवार को कृषि कार्य के लिए, “बैलों को हल नहीं जोतेंगे”, यह निर्णय लिया गया। जिसका पालन ग्रामीणों द्वारा आज भी किया जा रहा है।
साल के बारह महीनों में से अगस्त या सितंबर माह में लगातार तीन गुरुवार को उपवास रखा जाता है। और अंतिम तीसरे उपवास (गुरुवार) को देवालय में दूध या जल चढ़ाकर, पूजा अर्चना कर उपवास तोड़ी जाती है। उपवास महीने के तीन बृहस्पतिवार (गुरुवार) को ही नहीं, बल्कि साल के बारह माह के बृहस्पतिवार को बैलों से खेत-बाड़ी की जुताई करना मना है। यदि कोई कृषक भूल से भी खेतों में बैलों से जुताई करता है, तो उसे जुर्माना में गांव वालों को बकरा और चावल देना पड़ता है।
श्री धनसिंह बिंझवार जी से बातचीत में उन्होंने बताया कि, "मवेशियों से हमने सप्ताह के सातों दिन कृषि कार्य में रोजाना, सुबह करीब 7 बजे से लेकर, लगभग दो बजे तक हल चलाने का काम करते हैं। और हमारे लिए गाय-बैल, खेती-किसानी के लिए कितना आवश्यक पालतू जानवर है, यह हम जानते हैं। तो इसकी रखरखाव, देखभाल हमारी जिम्मेदारी बनती है। लगातार बैलों से खेत में जुताई, उनके सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है। इसलिए भी यह छुट्टी आवश्यक थी। और हम इस अवकाश को बड़ी ही सम्मान पूर्वक निभाते चले आ रहे हैं।"
वहीँ ग्राम पंचायत पोड़ी उपरोड़ा के निवासी मनराखन अगरिया जी ने बताया कि, मवेशियों के लिए ऐसी साप्ताहिक छुट्टी की कोई मान्यताएं नही है। सप्ताह के सातों दिन बैलों से खेतों की जुताई-बुनाई कर सकते हैं।
गांव में कई तरह के रूढ़ीवादी परंपरा एवं अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोग निवास करते हैं। सरभोका पंचायत में भी अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोग निवास करते हैं। यहाँ रूढ़ीवादी परंपरा धर्म वाले एवं ईसाई धर्म को मानने वाले लोग निवास करते हैं। ईसाई धर्म को मानने वाले आदिवासी समुदायों में उरांव जनजाति के लोग अधिकतर हैं।
अब सवाल यह उठता है कि ईसाई धर्म और रूढ़ीवादी धर्म वालों की मान्यताएं भिन्न है
मसीह को मानने वाले आदिवासी समुदायों की साप्ताहिक अवकाश रविवार को होती है। क्योंकि इनका रविवार के दिन चर्च में गिरजा प्रार्थना करने का दिन होता है। इसलिए इनका छुट्टी कृषि-कार्य में ही नहीं, बल्कि रोजी-मजदूरी और अन्य कार्य में भी छुट्टी रहता है। ग्राम पंचायत सारभोका में निवासरत ईसाई धर्म समुदाय के लोग भी अपना अलग धार्मिक अवकाश होने के बावजूद भी रूढ़िवादी धर्म समुदायों की धार्मिक अवकाश की सम्मानपूर्वक पालन कर सकते हैं। इस तरह गांव में आपसी-तालमेल एवं भाईचारे की भावना हमेशा बरकरार रहे सकती है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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