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छत्तीसगढ़ के 'बायर' उत्सव के जरिये बचाई जा रही हैं आदिवासी परम्पराएं


नितेश कु. महतो द्वारा सम्पादित


भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, हमारे देश में कोई भी मनुष्य किसी भी धर्म को अपना सकता है। हमारे देश के सभी राज्यों में भिन्न भिन्न प्रकार के सांस्कृतिक व पारंपरिक त्योहार मनाने का रिवाज है।

यह बायर देवली है जहां पर पूजा-पाठ, गीत-संगीत, और नृत्य होता है

ऐसा ही एक त्योहार छत्तीसगढ़ राज्य में भी मनाया जाता है, जिसे बायर उत्सव कहते हैं। यह उत्सव पूरे राज्य में न होकर बस कुछ ही गाँवों में मनाया जाता है। यह उत्सव 3,5 या 12 वर्षों बाद मनाया जाता है।

गाँव में बैगा के घर के आँगन में पूजा-पाठ करने के बाद नृत्य किया जाता है

यह उत्सव 12 दिनों तक लगातर चलता है। पारंपरिक मान्यता के अनुसार एक समय बायर रानी और बायर राजा हुआ करते थे उन्हीं के सम्मान में यह उत्सव मनाया जाता है। गाँव के लोग 11 दिनों तक रोज उत्सव के स्थान पर पूजा करते हैं जहां पर ठाकुर देव, बूढ़ी माई, ग्रामीण देवी- देवता का निवास रहता है। वहीं इस बायर उत्सव का आयोजन किया जाता है, और 12वें दिन इसका अंतिम पूजन होता है। यह उत्सव जिस भी गाँव में हो रहा होता है, उस गाँव के आसपास के सभी ग्रामीण क्षेत्रों के लोग इसमें शामिल होते हैं।


इस 12 दिन के उत्सव में आनंद का विषय यह होता है कि दिन को आधा समय तक तथा रात को पूर्ण समय तक मनमोहक नृत्य एवं गान होता है। नृत्य में स्त्री, पुरुष समूह बनाकर ढोल, नगाड़ा, निशान, बाँसुरी, मंजीरा तथा भिन्न - भिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों से युगल गीत (प्रेम गीत) के साथ झूमते गाते हैं। उत्सव में नाचते गाते तथा गीत और संगीत से लोग एक दूसरे से संवाद करते हैं, इस दौरान अगर कोई लड़की- लड़का एक दूसरे को पसंद कर बैठते हैं तो वह रात को एक दूसरे के साथ भाग जाया करते हैं। यह बहुत ही पुरानी परंपरा है, जो अब कभी कभार ही देखने को मिलता है।

इस उत्सव को जहां पर मनाया जाता है। उस स्थान को "बायर देवली" कहते हैं, जहां पर बाजार लगी होती हैं। इस मेले में हमारे छत्तीसगढ़ ग्रामीण क्षेत्रों के सभी प्रकार के पारंपरिक मिठाई, खिलौने एवं खाद्य पदार्थ की व्यवस्था होती है। इस उत्सव में गाँव के लोग अपने - अपने रिश्तेदारों को बड़े ही प्रेम से निमंत्रण देते हैं। जिससे प्रेम संबंध सभी लोगों में प्रगाढ़ हो जाता है और इस उत्सव में चार चांद लग जाता है।


अंतिम दिनों में बायर देवली से देवी- देवताओं का आह्वान किया जाता है। ये देवी देवता लोगों पर सवार होते हैं और लोग बायर देवली से गाते बजाते हुए बैगा के घर जाते हैं। जहां पर गाँव के बैगा (गाँव का मुखिया) घर में उनके कुलदेव यानी गाँव के देवी देवता की पूजा करते हैं। वहां से इसके बाद पूरे गाँव वाले नाचते गाते फिर से बायर देवली आते हैं, जहां पर अंतिम पूजा पाठ की जाती है। उस दिन जितने साल बाद यह त्योहार मनाया जाता है उतने ही बकरे काटे जाते हैं। लोग अपने- अपने रिश्तेदारों को इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने के लिए निमंत्रण देते हैं, और इस तरीके से बायर चलती है।

बली के लिए बकरे की पूजा की जाती है

बायर को सामूहिक तौर पर आयोजित करने का एक नहीं कई कारण हैं। हम देखते हैं, कि आधुनिक जीवन में हमारे तौर-तरीके, हमारे रहन-सहन, हमारी संस्कृति हमारी संगीत, हर चीज बदल रही है। और जितने भी गाँव के बुजुर्ग लोग हैं उनका मानना है, कि इस तरीके से अगर दिनों दिन दुनिया बदलती रहे, तो हमारी आदिवासी एवं हमारी जनजाति की पहचान कुछ दिन में समाप्त हो जाएगी।


अतः इन त्योहारों के माध्यम से अपनी परम्पराओं को भी समाज में बचाये रखा जाता है।


यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है l




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