पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
छत्तीसगढ़ में, इन दिनों कृषि कार्य की समाप्ति और धान बेचने के बाद, छत्तीसगढ़ का आदिवासी किसान बेरोज़गार हो जाता है। और इस स्थिति में, केवल वन उपज इकट्ठा करना, एकमात्र सहारा रहे जाता है। लेकिन, विगत 15-20 सालो में, आदिवासी क्षेत्रों में, ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम’ एक महत्त्वपूर्ण रूप ले चुका है। इस स्कीम के तहत, सरकार द्वारा कराए जाने वाले तालाब निर्माण, कुआं निर्माण और मेड़बंदी जैसे कार्यों से रोजगार मिलता है। बीते कुछ महीनों में, आधुनिकरण के चलते ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम’ के अंतर्गत, सभी चीजें ऑनलाइन होने लगी हैं। इस कारण इस स्कीम में काम करने वाले मजदूरों की हाज़री से लेकर, उनके द्वारा किए गए कार्यों की देखरेख और अन्य सभी चीजें, ऑनलाइन एप्स के माध्यम से सरकारी विभागों तक भेजी जा रही है। इन सब चीजों का होना, अच्छी बात लगती है और यह पहल भी अच्छा है। लेकिन, अभी तक जिन गांव में इंटरनेट नहीं पहुंचा है, या जिन गांव में मोबाइल फोन के नेटवर्क नहीं हैं। उनके लिए, यह एक बड़ी परेशानी का सबब बना हुआ है। छत्तीसगढ़ के अधिकतर पहाड़ी इलाकों के, आदिवासी गांव में, अभी तक इंटरनेट नहीं पहुंचा है। इस कारण से, उन ग्रामीणों के, इस रोजगार गारंटी योजना के तहत, किए जाने वाले कार्यों में बाधा आ रही है।
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महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम, ऑनलाइन करने की आवश्कता क्यों पड़ी?
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), भारत सरकार ने, देश में सन 2009 में, इस अधिनियम को लागू किया। सरकार इसके माध्यम से किसी भी ग्रामीण परिवार के, सभी व्यस्क सदस्यों को 100 दिन का काम उपलब्ध कराती है। जिसमें, सभी मजदूरों को, प्रतिदिन 220 रू की मजदूरी दिया जाता है। वर्ष 2010-11 के बजट सत्र में, इस योजना के लिए, केंद्र सरकार ने ₹40.100 करोड़ दिया था। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत, हर वित्तीय वर्ष में, कम से कम सौ दिनों का काम देने की गारंटी देते हुए, सभी ग्रामीण अंचल में, सभी ग्रामीणों की आजीविका की सुरक्षा के उद्देश्य से, महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम लागू किया गया। इस योजना का एक उदेश्य, मजबूत सम्पत्ति बनाना है। जैसे सड़क निर्माण, तालाब निर्माण, कुंआ निर्माण, नहर निर्माण आदि कार्य, ग्रामीण इलाकों में ही होता है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम, कैसे काम करती है?
सभी ग्रामीण, अपने पंचायत में, महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना से लाभ प्राप्त करने के लिए, अपने ग्राम पंचायत में जॉब कार्ड बनवाते हैं। और यह नि:शुल्क बनता है। एक ग्रामीण किसान, काम करने की इच्छा लिए, अपने ग्राम पंचायत में, 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम' के तहत आवेदन देता है। फिर उस पर, जिला मुख्यालय से जांच होती है। उसके बाद, काम करने की इच्छा रखने वाले का, नाम भेजा जाता है। फिर, जिला प्रशासन, नाम के सूची को जॉब कार्ड के हिसाब से, पास कर भेज देती है। फिर काम शुरू हो जाता है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम में, ज्यादातर जल संरक्षण, भूमि सुधार, भूमि विकास और अलग-अलग तरीके के, आवास निर्माण किए जाते हैं। इन सभी कामों की देखरेख व निगरानी के लिए, मजदूरों के बीच से, गांव के शिक्षित व्यक्ति या युवा को सारी जानकारी दी जाती है। और वह, सभी कागज़ी कार्यवाही, काम का देखरेख और मजदूरों की उपस्थिति आदि कार्यों की निगरानी करता है। और अपने ऊपर, ग्राम पंचायत और जिला पंचायत में रिपोर्ट बना कर भेजता है। जिसके अनुसार, मजदूरों का पैसा बनता है। जिन्हें यहां, साधारण बोलचाल की भाषा में, मेट कहते हैं।
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मनरेगा को ऑनलाइन करने के कारण
विधि के पास 10 सालों में, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत, बहुत अच्छी तरीके से कार्य चल रहा था। जिसमें, बहुत सारे जगहों में नहर व तालाब निर्माण हुए। इसी के साथ भूमि सुधार जैसे कार्य भी चल रहे थे। कई स्थानों में, वृक्षारोपण के लिए, गड्ढे भी खोदे जा रहे थे। लेकिन, धीरे-धीरे इसमें भी, बेमानी देखने को मिली। जिसमें, लोगों के फर्जी उपस्थिति दिखाकर, कागजों में ही कुंआ और तालाब का निर्माण कर लिया जाता था। या फिर, जिस किसान के घर में, कुएं का निर्माण किया जाना था, उसके सारे पैसे, अधिकारी और सरपंच द्वारा गबन करने की खबरें, आए दिन, उठने लगी। इस कारण से, यह योजना इतनी कारगर नहीं रह गई थी। क्योंकि, जिनके भरोसे पर, सरकार, यह सब काम कराती थी। वह खुद ही कुछ-कुछ जगहों में, बेईमान हो गए थे। और इसके पुख्ता सबूत नहीं होने के कारण, उन पर कोई एक्शन भी नहीं लिया जा सकता था। लेकिन, अब सरकार द्वारा, ऑनलाइन आधुनिकीकरण के कारण, आज सरकार इस योजना की निगरानी रख सकती है। और यह फैसला, बहुत सोच-समझ कर लिया गया है। क्योंकि, इसमें मजदूरों के उपस्थिति से लेकर, उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य तक का डाटा, इंटरनेट के माध्यम से, तुरंत ऊपर अधिकारियों तक पहुंच जाता है। और इंटरनेट पर अपलोड होने के कारण, इन कामों की वस्तुस्थिति, अधिकारी, कभी भी देख सकते हैं। इसके लिए, सरकार द्वारा ऑनलाइन एप्प भी बनाए गए हैं, ताकि इनके माध्यम से सभी के ऊपर निगरानी रखी जा सके।
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इस आधुनिकीकरण से, लापरवाह एवं बेईमान अधिकारी और पंचायत के सरपंच और सचिव, एकदम से बेहाल हो गए हैं। लेकिन, यही फैसला, जंगली क्षेत्रों में, बिल्कुल ही किसानों और मजदूरों के गले की हड्डी बना हुआ है। क्योंकि, ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकतर गांव और ग्राम पंचायतों तक, इंटरनेट सुविधा तो पहुंच गई है। लेकिन, उनके खेत और खदानों तक, अभी तक इंटरनेट सुविधा नहीं पहुंची है। इस कारण से, उनकी उपस्थिति एवं उनके द्वारा किए गए कार्यों को, ऑनलाइन एप्स के द्वारा, रजिस्ट्रेशन कराना थोड़ा सा मुश्किल बना हुआ है। इस कारण से, मजदूर को अपनी मजदूरी करने के बाद, अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए, घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। क्योंकि, इस एप्स में, लोकेशन भी दिखाता है। इस कारण से, किसी और जगह ले जाकर, फोटो लेना संभव नहीं हो पाता है। इस कारण से, निराश मजदूर, अब मनरेगा में काम करने के लिए, थोड़ा सा सोचने पर मजबूर हो गए हैं। और जंगली क्षेत्रों में, आदिवासियों की संख्या अधिक होने के कारण, उनको इसका बहुत बड़ा नुकसान देखने को मिला है। क्योंकि, आदिवासियों के लिए, फसल कटाई के बाद का यह सीजन खाली ही रहता है। क्योंकि, वे दोहरी फसल का लाभ, बहुत कम ही ले पाते हैं। इस कारण से, वे लोग इस योजना के तहत ही काम कर, अपना एक पहर की रोजी-रोटी निकाल लेते थे। और वे दूसरी पहर में, वनोपज इकट्ठा करने में समय बिता देते थे। और इस योजना के ऑनलाइन होने के कारण से, ग्राम पंचायतों के सरपंच का कहना है कि, "हमने इसके ऊपर लिख कर दिया है। जल्द ही इसका, कोई ना कोई निराकरण किया जाएगा, और फिर से हम काम शुरू करेंगे।" इस तरह के आश्वासन, पंचायतों द्वारा दिए जा रहे हैं।
किसी एसी कमरे में बैठे अधिकारियों को, यह भी सोचना चाहिए कि, क्या वह जमीनी स्तर पर बदलाव लाने के बारे में सोच रहे हैं? क्या योजनाएं, जमीनी स्तर पर ग्रामीणों को फायदा दे रही है की नहीं दे रही है? और अगर, नहीं, तो फिर उसके लिए, उन्हें उचित कार्य कर निचले तबके के लोगों को लाभ पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।