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जानिए कौन थे आदिवासी क्रांतिकारी टंट्या भील?

भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक योद्धा हुए हैं। देश की ख़ातिर इन क्रांतिकारियों ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये। 1857 की क्रांति से पहले से लेकर देश आज़ादी तक, कई क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने अपने तरीके से जंग लड़ी थी। अंग्रेज़ों से जंग लड़ने वाले एक क्रांतिकारी 'टंट्या भील' भी थे।

अंग्रेज़ों द्वारा ली गई टंट्या भील की एक तस्वीर

मध्यप्रदेश के खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडौदा गांव में 26 जनवरी 1842 मै टंट्या जी का जन्म हुआ था। इनके पिता भाऊ सिंह भील ने टंट्या को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया। टंट्या ने धर्नुविद्या में दक्षता हासिल कर ली, लाठी चलाने और गोफन कला में भी महारत प्राप्त कर ली।


आदिवासियों के लिए देवता हैं टंट्या मामा


टंट्या का वास्तविक नाम तांतिया भील था जिसे अंग्रेज़ोंने टंट्या कर दिया था टंट्या भील का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है और आज भी मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र के राज्य में बहुत से आदिवासी घरों में टंट्या भील की पूजा की जाती है क्योंकि टंट्या भील को आदिवासियों ने देवता की तरह माना था। देश में आज़ादी की पहली लड़ाई यानी 1857 के विद्रोह में जिन अनेक क्रांतिकारियों ने कुर्बानियां दी थी, उन्हीं में से एक मुख्य नाम है आदिवासी टंट्या मामा। आज़ादी के इतिहास में उनका जिक्र भले ही ज्यादा न हो मगर वह मध्य प्रदेश में मालवा और निमाड़ अंचल के आदिवासियों के लिए आज भी वो देवता हैं।


ब्रिटिश काल में देश के अन्य हिस्सों की ही तरह मध्य प्रदेश में भी दमन चक्र जारी था। उस दौर में मालवा-निमाड़ इलाके में जन्मे आदिवासी टंट्या भील ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। धीरे-धीरे टंट्या मामा का जलगांव, सतपुड़ा की पहाड़ियों से लेकर मालवा और बैतूल तक दबदबा कायम हो गया। वह आदिवासियों के सुख-दुख के साथी बन गए और उनके सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष करने में पीछे नहीं रहे। वक्त गुजरने के साथ टंट्या भील आदिवासियों के लिए ‘इंडियन रॉबिनहुड’ बन गए और उन्होंने अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया। वह अंग्रेज़ों का धन-सम्पत्ति लूटकर गरीब आदिवासियों में बांट दिया करते थे।

श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए

इंदौर से लगभग 45 किलोमीटर दूर पातालपानी-कालाकुंड मान्यता है कि टंट्या मामा के पास कई रहस्यमय शक्तियां थीं इलाके के आदिवासियों के बीच टंट्या मामा आज़ादी के सेनानी ही नहीं, बल्कि देवता के रूप में पूजे जाते हैं। पातालपानी में उनका मंदिर बना है जहाँ लोग उनकी पूजा कर उनसे मन्नत मांगते हैं। मान्यता है कि वहाँ मांगी गई उनकी मुराद पूरी भी होती है। इतना ही नहीं, इस रेल मार्ग से गुजरने वाली हर ट्रेन भी यहां टंट्या के सम्मान में रुकती है ।


टंट्या मामा ऐसे बने राँबिनहुड


टंट्या मामा एक गाँव से दूसरे गाँव घूमता रहा। मालदारों से माल लूटकर वह गरीबों में बांटने लगा। लोगों के सुख-दुःख में सहयोगी बनने लगा। इसके अलावा गरीब कन्याओं की शादी कराना, निर्धन व असहाय लोगो की मदद करने से ‘टंट्या मामा’ सबका प्रिय बन गया। जिससे उसकी पूजा होने लगी। अमीरों से लूटकर गरीबों में बांटने के कारण वह आदिवासियों का रॉबिनहुड बन गया। बता दें कि रॉबिनहुड विदेश में कुशल तलवारबाज और तीरंदाज था, जो अमीरों से माल लूटकर गरीबों में बांटता था। पर्वतीय क्षेत्रों के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फ़ैल गया। टंट्या ने अकाल से पीड़ित लोगों को सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर गरीब लोगों में बटवा दिया करते थे। टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोएगा, यह विश्वास भीलों में पैदा हो गया था। अंग्रेज़ों के शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए और देखते ही देखते वे गरीब आदिवासियों के मसीहा बनकर उभरे। हम इस महान योद्धा टंट्या मामा की बात कर रहे हैं जो किसी स्त्री की लाज लुटते नहीं देख सकता था। देश में उन्हें आज भारत का रॉबिनहुड के नाम से भी जाना जाता है।


अंग्रेज़ों ने जननायक टंट्या भील को दिया था इंडियन राँबिनहुड का खिताब


जननायक टंट्या भील ने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ग्रामीण आदिवासी जनता के साथ शोषण और उनके मौलिक अधिकारों के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार की खिलाफत किया था। आदिवासियों के रॉबिनहुड नाम से जाना जाने वाले टंट्या भील अंग्रेज़ों की छत्रछाया में फलने फूलने वाले जमाखोरों से लूटे गए माल को भूखे प्यासे और शोषित आदिवासियों में बांट दिया करते थे। एक बागी था जिसने संकल्प लिया था कि विदेशी सत्ता के पांव उखाड़ना है। वह युवाओं के लिए एक जननायक का काम कर रहा था। इतिहास गवाह है कि हमशक्ल रखने से कितनी तत्परता से अपने मकसद में कामयाब हुआ जा सकता है। टंट्या भी अपने दल में हमशक्ल रखता था। पुलिस को परेशान करने के लिये टंट्या एक साथ पांच-छह विपरीत दिशाओं में डाके डलवाता था। उस समय भील विद्रोहियों में जो टंट्या के साथ थे उनमें से महादेव शैली, काल बाबा, भीमा नायक आदि थे।

टंट्या भील, अंग्रेज़ पुलिसवालों के साथ

खंडवा जेल में टंट्या की मुलाक़ात दोल्या नामक एक शक्तिशाली भील नौजवान से हुई। अंग्रेज़ सरकार टंट्या भील को काले पानी की सजा सुनाने जा रही थी किन्तु टंट्या ने दोल्या के साथ मिलकर जेल से निकलने की योजना बनाई गयी। टंट्या ने पहरे पर तैनात सिपाही को उस समय काबू में कर लिया, जब वो उसे अदालत ले जाने की तैयारी कर रहा था और दोल्या ने अपनी ताकत से कोठरी के सरिये मोड़ दिए। दोल्या सिपाही की वर्दी पहनकर मुख्य द्वार से बाहर हो गया तो टंट्या जेल की दीवार फांद कर निकल गया। जेल से बाहर आकर जो पहला काम किया वह था मुखबिर हेमंत पटेल को जहन्नुम पहुंचाने का तथा अपनी प्रेमिका व शिवा पटेल की बेटी से शादी रचाने का। उसके बाद तो टंट्या का जीवन ही बदल गया। अब वह अंग्रेज़ों की नजर में एक डाकू था, किन्तु गरीब मजलूमों की नजर में खुदाई खिदमतगार। वह अमीरों को लूटता और लूट का पैसा गरीब और जरूरतमंदों को बांटता। उसकी छापामार युद्ध शैली को देखकर अंग्रेज़ों ने उसे टंट्या के स्थान पर तात्या कहना शुरू कर दिया। जन श्रुतियों में माना गया है कि वास्तव में ही उन्हें तात्या टोपे ने गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया था। अंग्रेज़ सरकार को यह रॉबिनहूड का अवतार कहाँ पसंद आना था? जब वे किसी भी प्रकार टंट्या को काबू में नहीं कर पाए तो उन्होंने षडयंत्र का सहारा लिया। घोषणा की गई कि टंट्या पर लगाए गए सारे आरोप वापस ले लिए गए हैं। इस प्रकार षडयंत्र और फरेब से उसे गिरफ्तार किया गया। पहले तो इंदौर में सेंट्रल इंडिया एजेंसी जेल में रखा गया किन्तु बाद में उन्हें जबलपुर ले जाया गया। जहां ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उनपर अमानवीय अत्याचार किये गए।


टंट्या भील को पकड़ने में ब्रिटिश हुकूमत को 7 साल लग गए थे और वर्ष 1888-89 में टंट्या भील को गिरफ्तार कर लिए और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, अंततः 4 दिसम्बर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई और उनके शरीर को खंडवा इंदौर के पास रेल मार्ग पर कालापानी रेल स्टेशन के पास फेंक दिया गया। निमाड़ अंचल की गीत-गाथाओं में आज भी टंट्या मामा को याद किया जाता है।


जननायक टंट्या भील के नाम से दिया जाता है राज्य स्तरीय सम्मान

मध्य प्रदेश शासन द्वारा शिक्षा और खेल गतिविधियों में उल्लेखनीय साधना तथा उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए आदिवासी युवा को दिया जाता है। इस सम्मान के अंतर्गत एक लाख रुपये की सम्मान निधि एवं प्रशस्ति पट्टिका प्रदान की जाती है। यह सम्मान किसी एक उपलब्धि के लिए न होकर शिक्षा और खेल गतिविधियों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए, सुदीर्घ साधना एवं उपलब्धि के लिए दिया जाता है। वर्ष 2008 में यह सम्मान श्री राजाराम मौर्य, देवास को प्रदान किया गया था। टंट्या मामा के सम्मान में मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा 26 जनवरी 2009 को नई दिल्ली में "भारतीय रॉबिन हुड" नाम की झांकी का राजपथ पर प्रदर्शित कि गयी थी जिसे बहुत सराहा गया था।


टंट्या मामा आधारित बनी थी दो फ़िल्म

जननायक टंट्या मामा पर 1988 में "दो वक्त की रोटी" और 2012 में "तंट्या भील" नाम की फिल्म बनी जिसे पांच भाषा में प्रसारित किया गया। टंट्या मामा पर अधिक जानकारी के लिए आदिवासी एकता परिषद द्वारा प्रकाशित “शेरे निमाड टंट्या भील” और कुंज पब्लिकेशन द्वारा “द भील किल्स” का अध्ययन किया जा सकता है।


टंट्या मामा सच्चे देश प्रेमी, महान योद्धा, समर्पित देश भक्त और महान क्रांतिकारी थे जिंहोने भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को अमर बना दिया और पूरे देश में अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत की आग को हवा दिया। आज ऐसे महान कोइतूर योद्धा को उनके जयंती दिवस पर शत् शत् नमन और कोटि कोटि सेवा जोहार !


लेखक परिचय:- कलवन, महाराष्ट्र के रहने वाले सुशिल म. कुवर आदिवासी एकता परिषद के सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे एक लेखक, कवि और पत्रकार भी हैं।

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