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फिल्मों में आदिवासियों का चित्रण, सच्चाई से इतना दूर क्यूँ?

आखिर भारतीय जन मानस को आदिवासियों के बारे में पता ही क्या है? कितने लोगों को पता है कि भारत में 700 से ज्यादा आदिवासी समुदाय रहते हैं? कितने लोगों को पता है कि भारत की आदिवासी समुदाय 500 से ज्यादा भाषाएं बोलते हैं? आदिवासियों की संस्कृति, रहन-सहन, खानपान, पहनावा उनकी पूरी जीवन शैली के बारे में आखिर भारत के लोगों को कितना ही पता है? आदिवासियों के बारे में जो भी धारणा है, जो भी जानकारियां हैं वह कहीं ना कहीं भारत के फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंचती हैं। तथाकथित मुख्यधारा की फिल्में और मीडिया जगत में गिने चुने ही आदिवासियों को शामिल किया जाता है और इसका एक दुष्परिणाम यह हो रहा है कि आदिवासियों से संबंधित विषयों के बारे गलत तथ्य बताए जा रहे हैं। जो भ्रांतियां मुख्यधारा की समाज ने आदिवासियों के प्रति बना ली हैं, फिल्म और मीडिया के जरिए भी वही पोषा जा रहा है।


नौ दिसंबर को रांची में टाटा द्वारा आयोजित किए जा रहे दो दिवसीय लिटरेरी मीट में दो युवा आदिवासी फिल्मकार निरंजन कुजूर और सेराल मुर्मू ने फिल्म जगत में आदिवासियों, उनके मुद्दे और उनकी संस्कृति को गलत तरीके से दिखाए जाने से संबंधित विषय पर एक लंबी बातचीत की।

निरंजन कुजूर सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (SRFTI), कोलकाता के छात्र रहे हैं, 'एड़पा काना' 'मदर' जैसे आदिवासियों से जुड़े हुए फिल्मों के निर्माता रह चुके हैं, उन्हें राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई अवार्ड से भी नवाजा गया है। गैंग्स ऑफ वासेपुर और मिर्जापुर से शुरू हुए ऐसे मूवीज और वेब सीरीज का जो ट्रेंड चला है जिसमें खुलकर गालियां दी जा रही हैं और हिंसा को दिखाया जा रहा है, इसपर सवाल किए जाने पर निरंजन बताते हैं कि "इस तरह की फिल्म या वेबसरीज़ को उत्तरप्रदेश, बिहार, और झारखंड की कहानियां बता दी जाती हैं, लेकिन इन राज्यों की असल संस्कृति, यहां की भाषा जैसे अवधि, ब्रज, मैथिली, अंगिका, संथाली, कुडूख आदि को शामिल नहीं किया जाता। फिल्मों के जरिए इन राज्यों के बारे जो भ्रांतियां बनाई जा रही हैं, वो पूरा सच नहीं है।"


उदाहरण देते हुए निरंजन जी आगे बताते हैं कि "एक वेबसरीज आई जिसमें झारखंड के उस क्षेत्र पर फिल्माया गया जो संथाल बहुल है एवं संथालों के बिना उस क्षेत्र की कल्पना भी नहीं किया जा सकता लेकिन उस सीरीज में न ही कोई संथाल किरदार है, न ही संथाली भाषा का प्रयोग किया गया है।" इस तरह के कई उदाहरण निरंजन जी ने दिए जिसमें आदिवासियों को गलत तरीके से दिखाया गया या फिर जानबूझकर फिल्म की पटकथा में आदिवासियों को अनदेखा किया गया है।


सेरल मुर्मू, एफटीआईआई - पुणे से पढ़ाई किए हैं और उन्होंने 'सोनध्यानी', 'रावाह' जैसे फिल्मों का निर्माण किए हैं। बातचीत के दौरान वे बताते हैं कि "फिल्मों में किसी भी चीज के बारे जैसा पेश किया जा रहा है, उसमें फिल्म इंडस्ट्री के साथ-साथ फिल्म देखने वालों का भी बड़ा योगदान है। फिल्म इंडस्ट्री के केंद्र में जो उद्देश्य है वो पैसा कमाना है, ऐसे में उसी तरह के फिल्में बनाई जाती हैं जो लोगों को पसंद है। समाज में लोग जिन भ्रांतियों को मानते चले आ रहे हैं फिल्मकार भी उन्हीं के इर्द-गिर्द ही फिल्म बनाते हैं, जिससे लोगों को पसंद आए और वह फिल्म खूब चले। बहुत कम फिल्मकार हैं जो समाज की भ्रांतियों पर सवाल करते हैं और जनमानस की सोच को चुनौती देते हैं।"


भारत के फिल्म जगत में आदिवासियों की हक़ीक़त को बयां करती हो, ऐसी फिल्मों को न के बराबर जगह मिली है। अगर किसी फिल्म में आदिवासी को दिखाया भी गया तो वो सिर्फ़ दिखावा मात्र होता है, और उनमें भी तथ्यों को न दिखाकर भ्रांतियों को ही बढ़ावा दिया गया है। भारत में 700 से अधिक आदिवासी समुदाय रहते हैं और सबकी बहुत ही भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं। लेकिन फिल्म जगत में जो भ्रांतियां चली आ रही हैं, कि आदिवासी बस जंगल में रहते हैं, पत्ते पहनते हैं, भूखे नंगे होते हैं, नक्सली होते हैं, अनपढ़ और असभ्य होते हैं आदि को ही बार-बार चित्रण किया जाता रहा है। 


यह बहुत हास्यपद एवं चिंताजनक है कि लाखों करोड़ों में बनने वाली फिल्मों में आदिवासी समुदाय के नाम या मुद्दों को बस दिखा तो दिया जाता है लेकिन उसके पीछे रत्ती भर भी शोध नहीं किया जाता।


श्रोताओं द्वारा पूछे जाने पर कि आखिर फिल्मकार या लेखक किन कारणों से आदिवासियों को गलत तरीके से दिखाते हैं? निरंजन कुजूर जी बताते हैं कि "इसमें कई सारे कारण हैं, जैसे कई मामलों में फिल्म के निर्माता शोध ही नहीं करते, आदिवासियों पर फिल्में बनाते हैं लेकिन उन क्षेत्रों में आदिवासियों और उनके मुद्दों पर पहले से कार्य कर रहे लोगों तक वे पहुंचते नहीं हैं जिससे सही जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती। कुछ मामलों में यह चीज़ें जानबूझकर की जाती हैं।" निरंजन जी आगे बताते हैं कि "दर्शकों का भी इसमें बड़ा अहम योगदान होता है, फिल्म देखने वाले आदिवासियों के प्रति जो भ्रांति रखते हैं, फिल्मों में भी वे वही देखना पसंद करते हैं।" 


इसके समाधान पर बात करते हुए सेरल जी बताते हैं कि "जनता को जागरूक करना बहुत जरूरी है, फिल्म देखने वाली जनता के पास जाकर के वर्कशॉप द्वारा फिल्मों के बारे में जानकारी देना एवं सही तथ्यों के बारे बताना अत्यंत आवश्यक है। कोई चीज़ अगर गलत है तो उस पर आवाज़ उठाई जानी चाहिए, चर्चाएं होनी चाहिए तभी जाकर जनमानस के बीच यह बात पहुंचेगी कि मुख्यधारा की फिल्मों द्वारा क्या गलत दिखाया जा रहा है।


इसी पर सहमति देते हुए निरंजन जी चर्चा को यह कहते हुए आगे बढ़ाते हैं कि "आज जिस तरह से हम दोनों, और आप सभी यहां आकर फिल्मों में आदिवासियों के गलत चित्रण, उनकी भागेदारी और प्रतिनिधत्व की बातें कर रहे हैं ऐसा ही बातें और चर्चाएं ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए। फ़िल्म जगत में काम कर रहे आदिवासियों को भी गलत चीजों पर सामने आकर खुलकर बात करनी होगी।"

चर्चा करते फिल्म निर्माता निरंजन कुजुर और सेरल मुर्मू

अंत में निरंजन जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि "मुख्यधारा के फिल्म जगत से यह उम्मीद नहीं किया जा सकता है कि वे आदिवासियों की भागेदारी को सुनिश्चित करें, या सही तथ्यों के साथ आदिवासियों के बारे बताया जाए। यह सब मुख्यधारा के द्वारा कर पाना संभव नहीं है। इसका एक ही समाधान है कि लोकल और आदिवासी फिल्मकार सही तरीके से अपने फिल्मों के जरिए आदिवासियों के बारे दुनिया को बताएं, सटीक और सही चित्रण करें तभी दुनिया जान पाएगी कि सच्चाई क्या है और उनकी भ्रांतियां टूटेंगी, परिणामस्वरूप मुख्यधारा के फिल्मकार भी अपनी फिल्मों में बदलाव करेंगे।"


लगभग एक घंटे से ऊपर हुई इस चर्चा में सेराल और निरंजन जी ने अपने बातों और अनुभवों से सौ से ऊपर बैठी श्रोताओं को कई विषयों पर सोचने पर मजबूर कर दिए तथा आदिवासियों से जुड़े अनेक भ्रांतियों और मिथकों को भी तोड़े। रांची जैसे शहर में जहां बड़ी संख्या में आदिवासी युवा पढ़ाई और कैरियर बनाने आते हैं, वहां ऐसी चर्चाएं होना बहुत ही जरूरी है ताकि युवा जागरूक हो सकें।


निरंजन कुजूर और सेराल मुर्मू जी द्वारा आदिवासी विषयों पर कई बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया गया है, समय निकालकर के जरूर से देखें।

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