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आदिवासी शिकारी समाज के लोग अपने घर से बाहर रहकर जीवन-यापन करने के लिए जंगली खजूर के झाड़ से झाड़ू और चटाई बनाकर बेचते हैं और बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मैं ग्राम पंचायत छुरी खुर्द के आश्रित ग्राम झोरा में शिकारी समुदाय के एक सदस्य से मिला जिनका नाम है राजा बाबू। उनकी उम्र 35 वर्ष है। वे बेलतारा गांव के मूल निवासी हैं। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण पैसे कमाने के उद्देश्य से वे घर से बहुत दूर आए हैं। करीब 60 किलोमीटर साइकल चलाकर वे ग्राम झोरा में आकर उन्होंने बसेरा डाला है। उनको यहाँ आए हुए लगभग 15 दिन हो चुके हैं।
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राजा बाबू ने बताया कि वे कैसे झाड़ू बनाते हैं। सबसे पहला कदम होता है जंगल जा कर झाड़ काट कर लाना। इन 15 दिनों में उन्होंने एक पेड़ के नीचे रहते हुए जंगलों में जाकर छिंद (एक किस्म का खजूर) के झाड़ो की कटाई कर उसे 1 सप्ताह सुखा लिया है। उसके बंडल बाँध कर वहीं पेड़ के नीचे के अपने निवास स्थान के बगल में रखते हैं। फिर उसे हल्के पानी से भिगोकर उसकी छटनी करते हैं। उसके बाद झाड़ू बनाना शुरू करते हैं। झाड़ू भी दो प्रकार के बनाए जाते हैं, एक शहरी झाड़ू और दूसरा ग्रामीण झाड़ू। शहरी झाड़ू एक ऐसा झाड़ू है जिसको बनाने के लिए अपने हाथों से पत्ते और उसकी छड़ी को छोटे-छोटे भागों में चीर दिया जाता है। इतना करने के पश्चात उसे 3 तरीके से बांधा जाता है। पहला, 8 से 10 छड़ी को पहले एक साथ बांधा जाता है फिर उसे उल्टा करके मोड़ा जाता है। उसके बाद उसे गोल मोड़ कर चारों तरफ बराबर भागों में जमा कर एक पतली रस्सी से बांधा जाता है। इसके पश्चात बगई रस्सी को लकड़ी के डंडे पर एक बार लपेट कर दोनों हाथों से झाड़ू के हत्थे को पकड़ कर पाँवों की सहायता से दबा कर रस्सी को टाइट और गोल लपेटा जाता है। इससे झाड़ू काफी मजबूत बन जाता है और देखने में भी अच्छा लगता है।
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दूसरे झाड़ू को बनाने के लिए इसी तरीके से 8 से 10 छड़ी बांधा जाता है लेकिन इसमें जंगली खजूर के झाड़ को छोटे-छोटे भागो में चीरने का काम नहीं किया जाता। इसे उसी तरीके से उल्टा करके चारों तरफ गोल जमा कर बांधा जाता है फिर उसी तरीके से झाड़ू के हैंडल पर बगई रस्सी को टाइट लपेटा जाता है। इसकी वजह से दोनों प्रकार के झाड़ू मजबूत और बहुत अच्छे होते हैं जो शहरियों और ग्रामीणों के लिए बहुत उपयोगी साबित होते हैं। वे 1 दिन में 100 नग बना लेते हैं। शहरी झाडुओं से इनके मूल्य में अंतर होता है। शहरी झाड़ू का मूल्य ₹ 30 प्रति नग है और ग्रामीण झाड़ू का मूल्य ₹20 प्रति नग होता है।
इसके साथ ही जंगली खजूर (छिंद) की पत्ती से आदिवासी के चटाई भी बानाते हैं।चटाई बनाने के लिये रस्सी और छड़ी का जरूरत नहीं होती है। लेकिन इसको बनाने में झाड़ू की अपेक्षा बहुत मेहनत लगती है। चटाई बनाने में दो से तीन दिन लगता है। इसका मूल्य ₹200 से ₹250 तक होता है।
राजा बाबू ने बताया कि झाड़ू और चटाई को कभी-कभी व्यापारी लोग लेने आ जाते हैं और कभी-कभी वे गांव, शहर और बाजारों में घूम कर इसका बिक्री करते हैं। थोक में खरीदने वाले व्यापारियों को थोड़ा कम रेट में दे देते हैं। उन्होंने बताया कि हम लोग महीने में ₹20000 तक की बिक्री कर लेते हैं। उसमें से कुछ रुपये गाँव वालों (जिस गाँव में रहते हैं) को देना पड़ता है। राजा बाबू के परिवार में 14 सदस्य हैं, जिनका गुजारा उनके द्वारा कमाए गए पैसों से होता है। इस प्रकार भारी मुसीबतों का सामना करते हुए पैसा कमा कर परिवार का पालन-पोषण करते हैं।
राजा बाबू जैसे लोगों द्वारा बनाए गए झाड़ू पूरे भारत के घरों में पाए जाते हैं। लेकिन इसके पीछे का कठोर सच यह है कि ये झाड़ू कड़ी मेहनत और चुनौतियों का परिणाम हैं। शिकारी समुदाय के सदस्य झाड़ू बनाने में निम्नलिखित समस्याओं का सामना करते हैं:
जंगली खजूर का झाड़ साल भर नहीं मिलता। वे लोग पूरे साल भर इसकी बिक्री नहीं कर सकते हैं। साल में 6 महीनें धंधा करके, 6 महीनें मजदूरी कर घर चलाते हैं।
इसकी कटाई के लिए जंगल जाते हैं तो बहुत सारे जंगली जानवरों का डर रहता है। साँप, बिच्छू,भालू, शेर आदि बहुत सारे जानवरों से डर रहता है फिर भी अपनी जान जोखिम में डालकर वे यह काम करते हैं।
फारेस्ट विभाग के लोग झाड़ काटने पर बात-बहस करते हैं और रोकते हैं।
मौसम खराब होने पर जब पानी गिरता है तब वे किसी के घर या पेड़ के नीचे ही रह लेते हैं। उनके द्वारा काटे गए झाड़ अगर पानी मे ज्यादा भीग जाते हैं तो खराब हो जाते हैं। ये झाड़ू या चटाई बनाने के काम नहीं आते हैं।
कई जगहों में जंगली खजूर का झाड़ ज्यादा पाया जाता है लेकिन उसे घर ले जाने के लिए उनके पास गाड़ी का साधन नही होता है। साधन जुगाड़ करके झाड़ साथ ले जाने में उनको काफी परेशानी होती है।
आदिवासी शिकारी समाज के लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। जिसके कारण वे जीवन-यापन के लिए घर छोड़ कर पैसे कमाने बाहर निकल जाते हैं। वे अपनी जान से खेलकर मुसीबत भरा यह काम करते हैं तब जाकर उनको कुछ पैसे मिलते हैं जिससे वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। अतः सरकार को उनकी आर्थिक स्थिति देखते हुए उनपर ध्यान देना चाहिए ताकि वो अच्छे से जीवन यापन कर सकें।
यह आलेख आदिवासी आवाज़ प्रोजेक्ट के अंतर्गत मिजेरियोर और प्रयोग समाज सेवी संस्था के सहयोग से तैयार किया गया है।