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आखिर क्यों है सुतियाम्बे, मुंडाओं का ऐतिहासिक गढ़?

Updated: Feb 24, 2023

प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के दौरान मैंने बहुत बार सुतियाम्बे पहाड़ के बारे सुना एवं पढ़ा था। सुतियाम्बे पहाड़ के बारे ऐसा कहा जाता है कि यह मुंडाओं का प्रथम आश्रय स्थल के साथ गढ़ भी था।


यूँ तो पतरातु आने-जाने के क्रम में मैने बहुत बार इस पहाड़ (बुरु) को देखा है। रांची से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी में स्थित पतरातु जाने वाले रास्ते पर बुकरू के पास से ही पत्थरों से सजा यह पर्वत दिखाई पड़ने लगता है। दूर से देखने पर यह पर्वत, पत्थरों को एक के ऊपर एक रखा हुआ सा प्रतीत होता है। जैसे लगता हो पत्थरों को एक दूसरे के ऊपर रख कर एक प्राकृतिक किला का निर्माण करने की कोशिश की गई हो। परंतु कभी इस पर चढ़ने का सौभाग्य नहीं मिल सका। बहुत दिनों से इच्छा थी कि इस पहाड़ (बुरू) पर चढ़ूं एवं इसके इतिहास से रूबरू हो सकूं।

स्वागत द्वार पर लगा पोस्टर

12 फरवरी को महाराजा मदरा मुंडा केंद्रीय युवा समिति के द्वारा आयोजित सुतियाम्बे गढ़ बचाव सह मुंडा सम्मेलन- 2023 में सम्मिलित होने का मौका मिला। यह समिति द्वारा हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी महाराजा मदरा मुंडा की इस ऐतिहासिक धरोहर के बचाव, संरक्षण एवं संवर्धन के लिए पूजा-पाठ व सम्मेलन का आयोजन किया गया।


इतिहासकारों के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि लगभग 28 हज़ार मुंडाओं के साथ ऋचा मुंडा ने इस छोटानागपुर की पठार में सोन नदी को पार कर प्रवेश किया। ऋचा मुंडा प्रथम मुंडा जनजातीय सरदार था। जिसने इस क्षेत्र में राज्य निर्माण की प्रक्रिया को शुरू किया था। वे अपने रहने-बसने के लिए आश्रय ढूंढते-ढूंढते पेठोरिया के पास पहुंचते हैं। यहां पहुंच कर इन्होंने अपने ईष्ट देवता सिंगबोंगा से यह जानने के लिए प्रार्थना की यह स्थान उनके निवास क्षेत्र बनने के लिए उपयुक्त है या नहीं, एक धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। जिसके फलस्वरूप उन्हें यह संकेत मिलता है कि यह क्षेत्र मुंडाओं के रहने बसने के लिए उपयुक्त है। साथ ही साथ इन मुंडाओं के बीच एक मुखिया का चुनाव भी होता है। जिसका नाम सुतिया मुंडा था। इन्हीं के नाम पर इस क्षेत्र का नाम सुतियाम्बे पड़ा। इसी गांव के पास स्थित यह पर्वत इनका प्राकृतिक किला सुतियाम्बे गढ़ कहलाया। इस बुरू में कई छोटे-छोटे गुफा भी हैं।

अपने पूर्वजों को यादकर अर्पण करती एक महिला

सुतियाम्बे गढ़ से मुंडाओं का गौरवमयी इतिहास जुड़ा है। यहां इनके पूर्वजों एवं राजा-महाराजाओं के द्वारा संपूर्ण छोटानागपुर में मुंडा स्वशासन व्यवस्था के तहत जनतांत्रिक प्रणाली से राजकार्य का संचालन किया जाता था। यही वह स्थान है जहां से बाहरी आक्रमणों व अत्याचारों के विरुद्ध मुकाबले के लिए कूटनीतिक एवं रणनीतिक निर्णयों के लिए बैठकें तथा मुकाबलों के लिए मुंडाओं का जुटान होता था। सुतिया मुंडा के बाद मदरा मुंडा को राजा घोषित किया गया।

मदरा मुंडा ने इस गढ़ का नामकरण ' सुतिया नाग खंड ' किया। इस गढ़ के अंतर्गत मुंडाओं के सात गढ़ को शामिल किया जाता है:- लोहागढ़ (लोहरदगा), हजारीबाग, पालुन गढ़(पलामू), मानगढ़(मानभूम), सिंह गढ़, केसल गढ़, सुरगुजागढ़(सरगुजा)।

पूजा करने पहाड़ पर चढ़ते लोग

ये सभी गढ़ 21 परगनों में बंटे हुए थे। और इनके सभी परगनों के सरदार को मानकी कहा जाता था। इनमें से कुछ परगनों के नाम आज भी यथावत मिल जायेंगे। इससे स्पष्ट है कि सुतिया मुंडा द्वारा स्थापित यह राज्य प्रायः सम्पूर्ण झारखंड प्रदेश में फैला हुआ था। किंतु यह प्रदेश लंबे समय तक स्थाई नहीं रह सका। बाहरी आक्रमण तथा आर्यों का इस क्षेत्र में आगमन के साथ ही यह क्षेत्रीय स्वशासन व्यवस्था बिखरने लगता है। यदि इतिहास के पन्नों को देखें तो नागवंशी राजा का साम्राज्य अभिषेक की गाथा यहीं सुतियाम्बे गढ़ की भूमि से ही शुरू होती है।

ऐसा कहा जाता है कि मदरा मुंडा के पास एक प्राकृतिक सेना की एक फौज थी। जब बाहरी आक्रमण होते थे। और मुंडाओं की सेना हारने वाली होती थी, तब इस सेना का इस्तेमाल अंतिम विकल्प के तौर पर किया जाता था। यह सेना भौरों की सेना थी, जो सरदार की एक आदेश मिलते ही दुश्मन पर टूट पड़ती थी। यह बाहरी आक्रमणों की सेना को तितर-बितर करने के लिए प्रयोग में लाई जाती थी। तब दुश्मनों के पास इस सेना का कोई तोड़ नहीं होता था। जिससे दुश्मन सेना की हार निश्चित हो जाती थी।


पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा लिखते हैं कि "विभिन्न क्षेत्रों के राजा, मानकी या परगनाइत साल में एक बार झारखण्ड 'महाराजा' के दर्शन को राजधानी सुतियाम्बे आते थे और अपने सुख-दुःख सुनाने के बाद स्मृति स्वरूप सलामी दे आते थे"


आज भी मुंडा समुदाय के लिए यह पहाड़ एक पवित्र धरोहर के रूप में विद्यमान है जिसकी महिमा हर धार्मिक अनुष्ठान अथवा मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले नेग-दस्तूर के दौरान सुतियाम्बे-कुड़याम्बे को याद कर करते हैं।


वर्तमान में यह ऐतिहासिक धरोहर उपेक्षा और अतिक्रमण का दंश झेल रहा है। आज यह पर्वत हिन्दूकरण से अछूता नहीं रह गया है। इस पहाड़ पर अनेक हिन्दू देवी-देवता के मूर्तियां भी देखने को मिल जायेंगे। फलस्वरूप आज मुंडा समुदाय अपनी पूर्वजों की परंपरा को भूल रहे हैं जो उन्हें उनके पूर्वजों के द्वारा विरासत में मिली है। साथ ही वे अपनी भाषा-संस्कृति से भी दूर हो रहे है। जो कि मुंडा समुदाय के लिए एक अच्छा संकेत नहीं हैं। परन्तु एक अच्छी बात यह भी है कि महाराजा मदरा मुंडा केंद्रीय युवा समिति जैसे संगठन और कई सामाजसेवी एवं बुद्धिजीवी लोग आगे आ कर लोगों को अपनी धरोहरों के प्रति जागरूक कर रहे हैं।


नोट:- उपरोक्त जानकारियां झारखण्ड पर लिखी गई किताबों तथा सुतियाम्बे गढ़ के आसपास रहने वाले लोगों से बातचीत कर प्राप्त हुई हैं, यदि किन्हीं के पास इस विषय पर और अधिक जानकारी हो या जानकारी का स्रोत हो तो कृप्या हमें ज़रूर बताएं।


लेखक परिचय : रांची के रहने वाले मनोज कुजूर लोक-साहित्य (folklore) में सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड से स्नातकोत्तर किए हैं। आदिवासी परंपरा एवम संस्कृति के प्रति विशेष रुचि रखते हैं। झारखंड के लोक-साहित्य को लोगों तक पहुंचाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं।

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