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जानिये छत्तीसगढ़ के इस औषधीय कंद के बारे में जो गर्मी के दिनों में शरीर को ठंडा रखने में मदद करता है

भारत हमेशा से वन्य संपदा से परिपूर्ण देश रहा है और इसका लाभ यहां के आदिवासी समुदाय के लोग उठाते आए हैं। इसी कड़ी में आज हम जानेंगे तीखुर के बारे में जो गर्मियों के दिनों में शरीर को ठंडक देने में मदद करती है। तीखुर का उपयोग ठंडाई के रूप में किया जाता है। ऐसा माना जाता है की इसके इस्तेमाल से गर्मियों के दिनों में लू लगने का खतरा नहीं होता है।

तीखुर हल्दी और अदरक के परिवार का कंद है

छत्तीसगढ़ में ग्रीष्मकाल बहुत गर्म होता है। ट्रॉपिक ऑफ़ कैंसर से निकटता को देखते हुए, ग्रीष्मकाल में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से लेकर रात में 35 डिग्री सेल्सियस तक होता है। आदिवासी और अन्य लोग इन महीनों के दौरान बहुत काम करते हैं। इससे उन्हें हीटस्ट्रोक होने का खतरा रहता है। तीखुर का सेवन करके बहुत सारे आदिवासी समुदायों के लोग गर्मी से राहत लेते है। आज इसका उपयोग दूसरे समुदाय के लोग भी करने लगे है। आयुर्वेद में तीखुर का बहुत बड़ा स्थान बताया गया है जिससे यह एक औषधि के रूप में भी प्रमाणित किया गया है। पूरे विश्व में इसकी अनेक प्रजातियां पाई जाती।


पूरे विश्व में तीखुर की पहचान


तीखुर एक प्रकार का औषधीय पौधा है और दुनिया भर में इसकी कई प्रजातियां पाई जाती है। यह हल्दी और अदरक के परिवार का पौधा है जिसकी जड़ से कंद निकाला जाता है। ये कंद तभी निकाला जाता है जब पत्ते सूख जाते हैं। इस का वनस्पतिक नाम कुर्कुच्चा अंगुस्टीफोलीअ (kurkucha angustifolia) है। इसे छत्तीसगढ़ के आदिवासी तीखुर और उड़ीसा के आदिवासी पदुवा कहते हैं।


तीखुर के कांदे को पत्थर में खींच खींच कर पेस्ट बनाया जाता है और उसके बाद मटके में रात भर के लिए रख दिया जाता है

कैसे उगाते हैं तीखुर, छत्तीसगढ़ के आदिवासी (पारंपरिक खेती)


छत्तीसगढ़ के आदिवासी इसे हल्दी की तरह ही उगाते हैं। इसकी खेती जुलाई-अगस्त के महीने में किया जाता है। इसके लिए मिट्टी को लंबे-लंबे मांद के रूप में तैयार किया जाता है जिसके बीच में हल्दी की तरह ही अंकुरित लिए हुए छोटे-छोटे कंधों को डाल दिया जाता है जो दो महीने में एक पौधे की शक्ल ले लेता है। नवंबर दिसंबर में इसका पौधा मरने लग जाता है और पत्तियां सूख जाती है, तब इसे दिसंबर से जनवरी में खोदकर निकाला जाता है।


आदिवासी तीखुर का पाउडर तैयार करने के लिए पुरानी पारंपरिक विधि का उपयोग करते हैं:

  • इस विधि में कांदो को पानी में धोकर किसी साफ पत्थर में धीरे-धीरे घिसते हैं जिससे एक गाढ़ा पेस्ट तैयार हो जाता है।

  • उस गाढ़े पेस्ट को दो तीन बार पानी में निथारा जाता है जिससे घिसाई के दौरान आई अशुद्धियां वह रेशे दूर हो जाते हैं। उसके बाद पेस्ट को बारिक कपड़े में छांदा कर फिर इसे धूप में सुखा दिया जाता है।

  • सूखने के बाद इन गुणों को अच्छे से पीस लिया जाता है जिससे ये बेसन आटे की तरह मुलायम हो जाता है।

  • गर्मियों के दिनों में उसे पानी में मिलाकर ठंडाई के रूप में पीया जाता है। इसका पकवान बनाकर भी खाया जाता है गर्मी से राहत के लिए।

थाली में सुखा हुआ तीखुर का पाउडर है और चम्मच में मटके से निकालते हुए तीखुर का पेस्ट

आधुनिक तरीके से तिखूर बनाना


समय के बीतने के साथ ही तीखुर का उपयोग आज सभी लोग करने लगे हैं। इस कारण से इसे समय के साथ आधुनिक तरीके से भी बनाया जाने लगा है। इसके लिए सबसे पहले कंदो को अच्छे से पानी में भिगोकर साफ कर लिया जाता है और उसके बाद चाकू से इसके छोटे-छोटे टुकड़े कर कर उसे मिक्सर ग्राइंडर में पेस्ट बनने तक मिक्स किया जाता है। उसके बाद इसे निकालकर सूती के साफ़ कपड़े में अच्छे से छानकर एक मटकी में रखकर सुखा दिया जाता है जिसके बाद उसे अच्छे से पीसकर रख लिया जाता है। अगर आपके वहां भी तिखूर पाया जाता है तोह हमें जरूर बताएं।


यह आलेख आदिवासी आवाज़ प्रोजेक्ट के अंतर्गत मिजेरियोर और प्रयोग समाज सेवी संस्था के सहयोग से तैयार किया गया है।

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