रायगढ़ के लोहंडीगढ़ से प्रतिस्थापित अगरिया समुदाय ऐसी जनजाति हैं जिन्हें लौह पत्थर गलाने की विधि मालूम है, इनके अलावा कोई भी समुदाय लोहा गलाने में माहिर नहीं है। इस समुदाय में चाहे महिला हो या पुरुष सभी लौह प्रगलकविधि में परांगत होते हैं। हम आपको मिलाना चाहेंगे कोरबा के वनांचल क्षेत्र में रहने वाले अगरिया समुदाय के इस कलाकृति में मिसाल और महिलाओं में अति प्राचीन जानकारी रखने वाले मंगल कुंवर अगरिया से जो लोहे से विभिन्न प्रकार के औजार बनाने में माहिर हैं।
इस महिला की अगर हम बात करें तो वर्तमान में अगर कोई इनसे सीख नहीं लिया तो भविष्य में यह कलाकृति इस क्षेत्र में यहीं तक सिमट कर रह जाएगी l उनका एक ही बेटा है जिनको कुछ-कुछ बनाना आता है बाकी उस गाँव में किसी भी महिला या पुरूष को लोहे से औजार बनाना नहीं आता हैl एक प्रकार से यह इस कलाकृति की अंतिम कड़ी बची हुई है l
वे बताते हैं कि यह कलाकृति उनको अपने पिताजी से मिली है उनके पिताजी समय-समय पर उनको लौह प्रगलक स्थान, जहां वे दुकान लगाते थे वहां पर उनको बुलाकर रखते थे ताकि आगे चलकर उनकी बेटी भी इस काम में माहिर हो सके। आगे बताते हैं कि "मैंने यह सभी कलाकृति अपने पूर्वजों के द्वारा प्राप्त की है। अपने समय में हम दोनों पति पत्नी मिलकर लौह पत्थर से औजार भट्ठी में गलाकर बनाते थे,परंतु लौह पत्थर नहीं मिलने के कारण हम लोग केवल एल्युमीनियम के द्वारा कढ़ाही, चम्मच, हांथ की चूड़ी आदि बनाना शुरू किया। वर्तमान में मैं अकेली हो गई हूँ, मेरा एक बेटा है जो मेरा कुछ गुण को प्राप्त किया है परंतु आगे चलकर इस रीति को वह चलाने में सक्षम प्रतीत नहीं हो रहा है।" वे कहते हैं कि "यह जो परंपरा है हमारे अगरिया जनजाति का एक पहचान है जिन्होंने प्राचीन समय में लौह पत्थर से लोहे को अलग करने विभिन्नऔजारों का निर्माण करते रहे जिसमें कुल्हाड़ी, हंसिया, तलवार, बिंधना, तीर, गैती, फावड़ा, सब्बल, आदि हैं। जिसे बाहर की आई हुई कुछ कंपनी ने उन्हें प्रलोभन देकर उनके सारे विधि को चोरी से प्राप्त कर लिया और आज लोहा गलाने की बड़ी-बड़ी कंपनियां स्थापित हो गई है। इस कारण सभी को आसानी से कम कीमतों से लौह औजार मिल जा रहे हैं जिसके कारण वर्तमान समय में अगर इसजाति के लोग औजार बनाने में रुचि नहीं लेंगे तोलौह भट्टी भी अस्तित्व में दिखाई नहीं देगा।"
अगरिया अर्थात् आग से संबंधित कार्य करने वाला ये लोग दिखने में ज्यादातर काले होते हैं इनका मुख्य देवता अज्ञासुर, लोहासुर, बूढ़ी माय, झगरा खांड, आदि हैं। इस समुदाय मे कुंवारी लौह का विशेष महत्व होता है जिसे हरियाली पर्व पर घर-घर जाकर खिली ठुकाई का रस्म मनाते हैं। कुंवारी लौह के बारे मान्यता है कि इस लौह से घर के सारे कलेश दूर हो जाते हैं।
अगरिया समुदाय के लोग सभी आदिवासियों के लिए धरोहर समान है, उनकी दक्षताएँ और उनके अद्भुत गुण सभी आदिवासियों के लिए उपयोगी हैं। पर वक़्त के साथ उनकी यह कला लुप्त होती जा रही है, सरकार के साथ साथ बाकी समुदायों के लोगों को भी आगे आकर अगरिया जनजाति के इस कला को सरंक्षण देने हेतु पहल करनी चाहिए।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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