पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
कहते हैं कि, जब एक नारी शिक्षित होती है, तो पूरे परिवार के साथ समाज भी शिक्षित होता है। फिर हम नारियों के सम्मान की बात क्यों नहीं करते? बिटिया तो फूल की तरह होती है, फिर भी बेटियों को क्यों कुचल दिया जाता है? यदि बेटे और बेटियों एक समान होती हैं, फिर बेटियों को पराया क्यों समझा जाता है? बेटियों को सशक्त होना बहुत जरूरी है। जब तक एक नारी, दूसरे नारी की भावनाओं को नहीं समझेंगी। तब तक, कभी भी इस दुनिया में नारी सम्मान से नहीं रहे सकती। जागो-जागो नारियों, हों तुम संगठित, इस पुरुष-प्रधान देश में अपने मौलिक संवैधानिक अधिकारों की बात करो।
गोंडवाना लैण्ड के भु-भाग में, छत्तीसगढ़ के बालोद जिला के, डौंडी ब्लाक के छोटे से नार्र (गांव) की गुजरा आदिवासी समुदाय से आने वाली एक युवती, नीलिमा श्याम किसान परिवार से आती हैं। नीलिमा श्याम का अपने गांव से शुरुआत, “एक कदम गांव की ओर, गांव को सशक्त बनाने व गांव बचाने की”, एक आदिवासी लया (युवती) की पहल, और दुसरी तरफ आज के समय में, गांव के युवा-पीढ़ी, शहर की चकाचौंक देखकर शहर की ओर पहुंच, गांव की परम्पराओं को भुल रहे हैं। ऐसे में नीलिमा श्याम, गांव की परम्पराओं व संस्कृति को बचाने में, जल-जंगल-जमीन व विभिन्न मुद्दों पर सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में कार्य कर रही हैं, जिसमें उन्हें कामयाबी भी मिली रही है।
नीलिमा श्याम का जन्म 30 दिसंबर 1994 को, गृह गांव गुजरा में हुआ। उनके पिता का नाम, तिरुमान हिंसा श्याम जी (याया) और माता का नाम, तिरुमाय राधिका बाई श्याम है। इन्होंने पाॅलिटेक्निक (सिवल) में डिप्लोमा और M.A.(अर्थशास्त्र) में स्नातोकत्तर किया है। इनके आदर्श व्यक्तित्व, माहत्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, बिरसा मुंडा और डाo ए.पी.जे. कलाम हैं। इनकी रुचि कुकिंग, किताबें पढ़ना, सोशल-मीडिया पर लोगों के नजरिए को समझना और पुरानी ऐतिहासिक चीजों में खोज करना तथा हर वर्ग के लिए सामाजिक रूप से काम करना है।
नीलिमा को जीवन के शुरुआत से ही, संघर्षों का सामना करना पड़ा है। वह बताती हैं कि, वह एक मजदूर किसान परिवार से ताल्लुक रखती हैं, और जन्म के कुछ दिन बाद ही इनकी माँ ने इन्हें नानी के घर ले गई। क्योंकि, घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। और वहीं रहकर इनकी स्कूल की पढ़ाई, दसवीं तक हुई। नानी के गुजर जाने के बाद, उन्हें मां वापस घर में ले आईं, और तब भी घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। नीलिमा जी आगे बताती हैं कि, “मुझे पढ़ने का बहुत मन था, पर घर में हमें पढ़ा-लिखा नहीं सकते, कह कर मना कर दिया गया। घर वाले इसलिए भी मना कर रहे थे, कि मैं पढ़ाई में बाकी बच्चों की तरह पढ़ाई में कमजोर थी। हर बोर्ड क्लास में फेल हो जाया करती थी। पर मैंने कभी पढ़ाई नहीं छोड़ी, बहुत बोलने के बाद मुझे एक चाचा रखे थे। उन्होंने कहा, कमजोर है तो क्या हुआ, एक बार कोशिश करके देखने दो करके, उन्होंने हॉस्टल में मुझे एडमिशन करा दिया। मैं अच्छे से मेहनत करने लगी। पर मुझे आर्थिक तंगी भी बहुत हुआ। बहुत मुश्किल से मैंने, अपनी स्कूल की पढ़ाई की। उसके बाद 12वीं में कम नंबर आने के कारण, फिर वही बात आने लगी कि, इतनी कम नंबर में कौन से महाविद्यालय में एडमिशन मिलेगा। पर मेरा नाम पॉलिटेक्निक भारती कॉलेज, दुर्ग में आ ही गया। कॉलेज की पढ़ाई के लिए पढ़ते-पढ़ते, छोटा-मोटा काम करके, मैंने पढ़ाई की और इसमें बहुत सारे लोगों की सहभागिता भी थी, उन्होंने मुझे पढ़ाया। मेरे पढ़ाई में कमजोर होने के कारण, मुझे बहुत सारी मुसीबतें झेलनी पड़ी, लेकिन मैंने कभी हार नहीं माना। इस स्थिति को देखते हुए मैंने 11वीं कक्षा वर्ष (2011-2012) में रहते हुए, जब भी छुट्टी में गांव आती थी। तो छोटे-छोटे बच्चों को निशुल्क पढ़ाना शुरुआत कर दी थी। और मेरी कॉलेज की पढ़ाई 2018 में पूर्ण होने के बाद, मैं निरंतर बच्चों को गांव में और आसपास के गांव के बच्चों को निशुल्क शिक्षा दे रही हुं। साथ में अन्य सामाजिक कार्य भी कर रही हूं, महिलाओं पर अत्याचार होना और ऐसे बच्चे जो पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं, उनकी मदद करना। विकलांग बच्चों को आर्थिक रूप से सहयोग करना और गवर्नमेंट की पूरी योजनाओं का लाभ दिलवाना। मुझे निरंतर निशुल्क काम करते हुए 5 साल हो चुका है। और साथ में अपनी पढ़ाई, प्राइवेट में निरंतर कर रही हूं।”
शुरुआत में नीलिमा ने अपने गांव के बच्चों को, अपने घर में पढ़ाना शुरू किया था। बाद में उन्होंने सोचा कि, क्यों न स्कूल में पढ़ाया जाए, ताकि गांव के सभी बच्चे पढ़ पाए और शिक्षा स्तर सुधर सके। नीलिमा पहली से लेकर 8वीं तक के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दे रही हैं। कोविड के दौरान जब शैक्षणिक संस्थान बंद थे, तब नीलिमा ने बच्चों सहित गांव के अन्य लोगों को शिक्षित कर अनुठा तरीका अपनाया। उन्होंने स्वयं के पैसों से, गांव के दीवारों पर अंक गणित, हिन्दी व अंग्रेजी की जानकारी को लिखवाया। नीलिमा का मानना है कि, गांव की गलियों में बच्चे जब खेलते हैं, तो उनकी नजर दीवारों पर पड़ेंगी और उसे पढेंगे। उन्होंने दीवाल-लेखन के माध्यम से गांव में क्रांती लाई। इसी दौरान उनकी शिक्षा के प्रति लगन व नि:स्वार्थ सेवा की जानकारी, मंत्री प्रतिनिधि पीयुष सोनी को होने पर, उन्होंने शिक्षक दिवस पर उनके घर जाकर सम्मानित किया। उन्होंने दिवाल में लेखन देखा और उससे प्रेरित हुए। प्रशासन ने भी दीवाल लेखन को अपनाया। नीलिमा जी हफ्ता में संवैधानीक शिक्षा, गांव के छोटे-बड़े सभी लोगों को भी देती हैं। जिससे लोगों को समानता का हक और अधिकार मिले।
निलीमा केवल स्कुली बच्चों को ही नहीं बल्कि, गांव के आस-पास के युवाओं व युवतियों को जागरुक कर स्वरोजगार के लिए प्रेरित कर रही हैं। जिससे वे आर्थिक रुप से सशक्त और संवलम्बन हों। नीलिमा हर वर्ग के लोगों की प्रेरणा स्त्रोत बन चुकी है। और वह नि:स्वार्थ भाव से आगे बढ़ रही हैं। वह युवतियों की समूह बनाकर, समाज को सेवा प्रदान कर रही हैं। समूह का नाम वीरांगना लया समूह है, इसके माध्यम से शिक्षा, खेल, स्वास्थ्य, रोजगार और सरकारी योजनाओं का लाभ अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचाना है। ताकि गांव का सर्वांगीण विकास हो। वीरांगना लया में आ रहे बच्चे, खेल के क्षेत्र में, प्रतिस्पर्धा में भाग लेकर गोल्ड मेडल से सम्मानित हो रहे हैं।
निलीमा छोटे-छोटे पंक्तियां के माध्यम से, कविताएं लिख कर जागरुकता लाने का प्रयास करती हैं। इनकी रचनाएं बहुत ही सुंदर होती हैं। इनकी एक रचना इस प्रकार से है :-
शिक्षा दो बेटी को ऐसा
शिक्षा दो बेटी को ऐसा,
बने सावित्री बाई फुले जैसा।
महिलाओं के हक अधिकार के लिए लड़े, बेटियों को बनाओ ऐसा।
शिक्षा दो बेटी को ऐसा,
बने फातिमा शेख जैसा।
सखी के साथ उनके अपने,
शिक्षा के अधिकारों के लिए सहयोगी बने, बेटियों को बनाओ ऐसा।
शिक्षा दो बेटी को ऐसा,
बने पंडित रमा सरस्वती जैसा।
जातिवाद से लड़ सकें अपने ही समाज से,
अपने आत्मसम्मान और हक अधिकार के लिए, बेटी को बनाओ ऐसा।
शिक्षा दो बेटी को ऐसा,
बने रखमाबाई राऊत बाई जैसा।
महिलाओं को विशेष अधिकारों से वंचित,
उनके अधिकारों को दिलाए, बेटी को बनाओ ऐसा।
शिक्षा दो बेटी को ऐसा,
कलम से क्रांति करे वैसा।
समझाओ अपनी बेटी को,
पुरखों के कलम से, लिखा कैसे इतिहास उनका।
पुराने समय की बेबाक और निडर महिलाओं के बलिदान का ही नतीजा है, भले ही हमारे कदमों के नीचे की मिट्टी अब कंक्रीट में बदल गई हो, लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि, हमारा वर्तमान अभी भी एक दोषपूर्ण अन्याय से भरे इतिहास, समावेशी भविष्य के लिए प्रतिरोध की कहानियों का निरंतर लिखा जाना आवश्यक है।
निलीमा के कार्य, छत्तीसगढ़ के अखबारों के माध्यम से पता चलता है कि, संघर्ष व मेहनत रंग लाई है। वर्ष 2022 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर IBC24 रायपुर में, महामहिम सुश्री अनुसुईया उइके जी (राज्यपाल छत्तीसगढ़) और माननीय अनिला भेड़िया जी (महिला एवं बाल विकास तथा समाज कल्याण विभाग, छत्तीसगढ़ शासन) के द्वारा शक्ति सम्मान अवार्ड 2022 से सम्मानित किया गया। इन्हें सामाजिक स्तर के संगठनों के द्वारा भी सम्मानित किया गया है।
समाज सेवा के विषय पर नीलिमा बताती हैं कि, “मुझे सामाजिक कार्य की प्रेरणा, मेरी मां से मिली। उनको एक महिला होने के नाते, जिस तरह समाज ने उन्हें बहुत कष्ट पहुँचाया, पर मां ने कभी हार नहीं मानी। जब हम थोड़े बड़े होते गए और आसपास के माहौल को देखते गए, पहले जैसे महिलों के सामाजिक और राजनीतिक रूप से यहाँ शिक्षा क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं आया था। आज भी इसमें बदलाव नहीं है, जिस तरह मुझे शिक्षा के प्रति अपमानित करते थे, कि तुम आगे जाकर कुछ नहीं कर पाओगे। मैं जहां भी जाती थी, वहां मुझे सुनना पड़ता था। तब से मैंने सोच लिया था कि, मुझे अच्छे से पढ़ाई करके, हर एक को शिक्षा देनी है। उनके अधिकारों के लिए लड़ाई लडनी है। और 16 साल की उम्र से ही लोगों को गांव-गांव जाकर, जागरूक करना और शिक्षा देने का शुरुआत कर दिया था, साथ में महिलाओं के अधिकार के लिए आवाज उठाना और स्वास्थ्य शिक्षा के लिए आवाज उठाना, यह मेरा लक्ष्य बन गया। समाज सेवा करते हुए मुझे कई तरह की कठिनाइयां होती हैं। आर्थिक रूप से और सामाजिक रूप से, लोगों का ताना-बाना और कभी-कभी घर में सुनना। लोगों की वह कठोर बातें सुनकर कभी-कभी उदास भी हो जाती हूं। सबसे मुश्किल काम कि, मैं एक मजदूर परिवार से, एक किसान परिवार से संबंध रखती हूं। इस कारण बहुत ही ज्यादा दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। पर बार-बार मेरा मन यही कहता है कि, नहीं मेरा उद्देश्य मेरा सेवा है और उस सेवा को मुझे निरंतर करना है, जब तक मैं जिंदा हूं। संसार में जब तक मुझे प्रकृति ने मुझे अपने पास रखा हुआ है, तब तक मैं इस संसार की निरंतर नि:स्वार्थ रूप से हमेशा सेवा करती रहूंगी। मुश्किलें आती हैं, तो उस गरीबी को याद कर लेती हूं।”
नीलिमा छत्तीसगढ़ के शासकीय मेडीकल कॉलेज, बस्तर को मरणोपरांत अपना देहदान करने की शपत लेकर, आदिवासी समुदाय के लिए एक जीती-जागती मिसाल हैं। इस फैसले से इनके माता-पिता बहुत गर्व महसूस कर रहे हैं। नीलिमा ने इसपर बताया कि, “पेड़ों को देखकर मिलती है प्रेरणा। जिस प्रकार पेड़ हमें अनेक तरह से लाभान्वित करते हैं और कट जाने के बाद भी वो बहुत सारी चीज़ें उपलब्ध करती हैं। वैसे ही हम मनुष्य, मर जाने के बाद भी समाज के लिए काम आ जाए।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
Comentarios