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अपने जंगल को पेड़ कटाई से बचाने की कोशिश कर रहा है छत्तीसगढ़ का यह आदिवासी युवा समूह

वनों और जंगलों से आदिवासियों का बहुत गहरा रिश्ता है। स्वयं आदिवासी शब्द की अवधारणा, उनकी आत्मकथा और अस्मिता जंगलों से परिभाषित होती है। आदिवासी स्वयं को जंगलों का, प्रकृति के संरक्षक मानते हैं। जंगलों, नदियों, पहाड़ों को हम अपने पुरखों और संबंधी समान मानते हैं। आदिवासियों के गीत, हमारी कहानियों और नीतियों और पूरा जीवन जंगल से जुड़े हुए है। आदिवासी यह मानते है की जंगल उगाए नहीं जा सकते, सिर्फ उनकी देखभाल की जा सकती है, या उन्हें संरक्षित किया जा सकता है।


जब भी कोई बाहरी व्यक्ति या सत्ता ने आदिवासियों से जंगलों को छीनने की कोशिश की, आदिवासियों ने जंगलों को अपनी माँ समझ कर, अपनी धरोहर समझकर, जंगलों की रक्षा की है। जंगलों को बचाने के लिए भारत भर में आदिवासियों के अनेक आंदोलन हुए है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में हुआ स्वयं बिरसा मुंडा का आंदोलन “उलगुलान” इसका साक्ष्य है।


इन्हीं आंदोलनों और आंदोलन कार्यों को देखकर और सुनकर, उनकी कहानियों से प्रेरणा लेकर छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के ग्राम पंडरीपानी के नव युवकों ने अपना एक समूह बनाने का फैसला लिया, ताकि अपने गाँव के नाम 275 एकड़ जंगल को बचाने का प्रयास किया जा सके। इन युवकों को बहुत हद तक इस काम में सफलता भी हासिल हुई है। नव युवकों का कहना है कि जब तक यह जंगल है और उनकी जरूरत है, वह काम करते रहेंगे।

लोगों के लिए जीवन धारा है जंगल


छत्तीसगढ़ के इन जंगलों से प्राप्त हुई घर बनाने के लिए लकड़ी, आग जलाने के लिए लकड़ी जैसे हर तरह की लकड़ी का उपयोग गाँव में किया जाता है। यह लकड़ी सिर्फ जंगलों में ही प्राप्त हो सकती है। गर्मी के दिनों में जंगल से प्राप्त हुए तेंदूपत्ता और फल फूल बेचकर गाँव के लोग अपना जीवन यापन करते हैं।


बरसात के दिनों में जंगल में अनेक प्रकार के फल-फूल मिलते हैं, जो खाने में बहुत ही स्वादिष्ट और बलवर्धक होते हैं। बरसात में जंगलों में अनेक प्रकार के मशरूम भी पाए जाते हैं और छोट- बड़े जीव जंतु पाए जाते हैं जिनको लोग खाते हैं। यह गाँव पहाड़ों के नीचे बसे होने के कारण लोगों के खेत खलियान भी पहाड़ों के नीचे ही हैं। लोगों का कहना है कि अगर जंगलों में पेड़ काट दिए, तो जो बरसात के दिनों में उनके खेतों में अनेक प्रकार के पत्ते बहकर आते हैं, वह आना बंद हो जाएगा। यह गाद बरसात के दिनों में खेतों में जमा हो जाता है और सड़ने के बाद खाद का निर्माण करता है। आज तक गाँव में किसी भी प्रकार के रासायनिक खाद का उपयोग नहीं हुआ है, और लोग जंगलों ने निर्माण हुए खाद पर ही निर्भर है।


क्यों है समूह बनाकर जंगल की सुरक्षा करने की ज़रूरत


छत्तीसगढ़ के इस आदिवासी गाँव के आसपास लगभग 5-6 गाँव निवास करते है- सगुना, भाटापारा, बांका, लोहड़ीबहरा, कौआताल और बिंझरा। इतने गाँव वालों के द्वारा जंगलों में इमारती लकड़ी काटे जाने के कारण जंगल खाली होते जा रहा है। अगर सभी गाँव के लोग ऐसे पेड़ काटते रहे, तो कुछ ही समय में यह विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाएगा। इसी को रोकने की कोशिश कर रहे है पंडरीपानी के आदिवासी युवा। पंडरीपानी के लोगों का कहना है की अगर सिर्फ़ उनके गाँव को जंगल में जाने की अनुमति हो, तो इस प्रकार का नुक़सान नहीं होगा। अन्य गाँव के लोग लापरवाही से पेड़ काटे जा रहे है, और इससे सभी को हानी पहुँचेगी।


10 वर्ष पहले की बात करें तो अनेक प्रकार के जीव-जंतु और प्राणी इस जंगलों में निवास करते थे, जैसे चीता, लकड़बग्घा, लोमड़ी, शाही, हिरण, खरहा, बरहा, इत्यादि। एक समय यह सब इस जंगलों में निवासरत थे, अब स्थिति ऐसी है की पक्षियों की आवाज तक सुनाई नहीं देती।

पकड़ी हुई लकड़ी देखते हुऐ


नए नियमो को लागू करके बचा रहे है आदिवासी अपना जंगल


युवक समूह और पंडरीपानी के गाँव वालों का कहना है कि किसी को भी जंगल जाने से मना नहीं या रोका नहीं जाएगा, बस शर्त यह है कि कोई भी पेड़ नहीं काटेगा, ना इमारती लकड़ी लाएगा; सिर्फ गिरे हुए सूखे पेड़ को ही काटकर लाया जा सकता है। सप्ताह में दो बार शनिवार और रविवार को ही जंगल जाने की अनुमति दी जाएगी। अगर किसी को भी लकड़ी लाते पकड़ लिया जाएगा, तो लकड़ी और कुल्हाड़ी तक जप्त किए जाएँगे, जिससे लोगों का लकड़ी काटना बंद हो जाएगा।


ऐसे बचा रहे है छत्तीसगढ़ के यह युवा अपने जंगल को। आपको इन नियमों के बारे में क्या लगता है? क्या आपके पास जंगल बचाने के और कोई उपाय है?


यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजैक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, और इसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है।


यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

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