छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी कई त्यौहार मनाते हैं लेकिन इशर देवता और गौरी रानी के विवाह का त्यौहार महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है। यह त्यौहार दिसम्बर महीने में मनाया जाता है। ग्राम तिवरता मे गोंड आदिवासी भी इसे बड़े धूम धाम से इसे मनाते हैं।
इशर देवता और गौरी रानी की मूर्ति मिट्टी से तैयार की जाती है। इसके साथ मिट्टी का एक कलश भी बनाया जाता है, जिस पर ‘जय सेवा’ लिखा जाता है। यह शब्द गोंड आदिवासियों के पहचान शब्द है। इशर राजा व गौरी रानी गोंडवाना आदिवासियों के देवी-देवता माने जाते हैं।
इस त्यौहार में इशर राजा और गौरी रानी के दो अलग मंडप होते हैं। इन देवताओं को मंडप में लाने से पहले गोंड समाज के गुरू के घर में रखा जाता है और सजाया जाता है। दोनों देवताओं को फूल की माला पहनाते हैं और मंडप पर ले जाने के लिए तैयार करते हैं।
गोंडी लड़कों द्वारा मंडप को सजाया जाता है। मंडप में बहुत सारे दीप जलाए जाते है और मंडप के चारों तरफ कलश रखें जाते हैं। कलश के ऊपर भी दीये रखे जाते हैं। मंडप मे बांस से बनी टोकरी, तोरन और सतरंगी झंडा रखा जाता है।
पूजा मंडप। फोटो साभार- वर्षा पुलस्त
गाँव के लोग बाजा बजाते हुए और गाना गाते हुए गोंडवाना देवता के गुरू के घर से इन्हें मंडप पर ले आते हैं। फिर हल्दी- तेल चढ़ाते हैं, गाना गाते हैं, बाजा बजाते हैं और सभी लोग नाचते हैं। इसे हल्दी खेलना कहते हैं। इसेक बाद आरती करते हैं, जिसे परघावनी कहते हैं।
इशर राजा को दुल्हा बनाया जाता है और बरात लेकर गौरी रानी के मंडप पर ले जाते हैं। शादी के दौरान बाराती गीत भी गाते हैं फिर उनका विवाह किया जाता है, जिसके पश्चात दो महिलाएं इशर देवता और गौरी रानी को अपने सिर पर उठाकर नाचते हैं। इस दौरान भी दीप जले रहते हैं।
इशर राजा और गौरी रानी के मंडप के पास बैठने वाले एक-दूसरे को हल्दी लगाते हैं और इस विवाह में हल्दी लगाते वक्त भी हल्दी का ही गीत गाते हैं। पूरे त्यौहार में ‘जय सेवा’ का नारा लगा रहता है।
सभी लोग इशर देवता और गौरी रानी को प्रणाम करते हैं और सभी कुल देवताओं का नाम लेकर ‘जय सेवा’ बोलते हैं। इस विवाह और त्यौहार में सिर्फ गोंड आदिवासी ही शामिल होते हैं और उस दिन सब सफेद धोती पहनते हैं।
जो धोती पहनते हैं, वही लोग विवाह मे शामिल हो सकते हैं। जब विवाह समाप्त होता है, सब खाना खाने जाते हैं। खाना परोसने वाले लोगों को भी सफेद धोती पहननी होती है, नहीं तो वे खाना नहीं परोस सकते। यह गोंड आदिवासियों की परंपरा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
लेखिका के बारे में- वर्षा पुलस्त छत्तीसगढ़ में रहती हैं। पेड़-पौधों की जानकारी रखने के साथ-साथ वो उनके बारे में सीखना भी पसंद करती हैं। उन्हें पढ़ाई करने में मज़ा आता है।
यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था
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