top of page
Adivasi lives matter logo

छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसान धान-कटाई का उत्सव कैसे मनाते हैं

Khilesh Netam

भारत में बैसाखी, वंगला और नुआखाई जैसे कई तरह के कृषि-प्रधान पर्व मनाए जाते हैं। अलग-अलग समुदाय अपनी धार्मिक मान्यताओं और रीति-रिवाज़ों के अनुसार अच्छी फसल होने की खुशी में उत्सव मनाते हैं। ऐसा ही एक उत्सव छत्तीसगढ़ के कई गाँवों में भी मनाते हैं।


यहां के आदिवासी संप्रदाय के लोग अभी भी विधिपूर्वक नियम से कोठार को बनाते हैं। कोठार का अर्थ है, हाथों से बनाया गया मिट्टी का टीलानुमा भवन, जिसमें धान को कटाई के बाद रखा जाता है। पूर्वजों के समय से चली आ रही यह प्रथा का पालन ठाकुर देवता को आदरपूर्वक स्थान देने की मंशा के साथ कटाई के बाद फसल रखने के लिए एक साफ-सुथरी जगह बनाने के उद्देश्य से किया जाता है। कोठार किसी भी ज़मीन के टुकड़े पर नहीं बना दिया जाता।

कोठार या ब्यारा।


कोठार बनाने से पहले जिस भी ज़मीन को चुना गया है, उसमें तीन या पांच जगह सतही गड्ढे कर इनमें थोड़ा-थोड़ा चावल भर दिया जाता है और इन्हें पत्तों से ढककर गड्ढों को वापिस मिट्टी से भर दिया जाता है। यह रस्म शाम के समय की जाती है।


अगली सुबह जाकर मिट्टी को हटाने के बाद पत्तों को धीरे से उठा कर देखते हैं। अगर चावल बिखरे हुए मिलेंगे तो वह ज़मीन अशुभ मानी जाती है। चावल एक जगह इकट्ठा और विषम संख्या में मिलें तो यह शुभ माना जाता है और यहां कोठार बनाने की तैयारी की जाती है।


उस जगह की साफ-सफाई करने के बाद मिट्टी से छबाई की जाती है। जब यह आधा सूख जाए और नम हो, तब कोठार पर गोबर से लिपाई-पुताई करते हैं और बीच में मेडवार खूंटा गाढ़ते हैं। यह खूंटा सुनारी के पेड़ के छाल से बनता है। कोठार बनाने के रस्म को पूरा करने के लिए अंत में मुर्गी की बलि देते हैं।


अब कटी हुई धान को बांधने से पहले पूजा-पाठ करके कोठार में लाते हैं। कोठार एक पवित्र स्थान माना जाता है, इसलिए यहां पर चप्पल पहनकर इधर-उधर घूमना निषेध है। एक प्रकार से इसे देव स्थल माना जाता है। कोठार में धान की खरही यानि धान का गट्ठा तैयार करते हैं। धान के खरही को भी दो प्रकार से रचा जाता है- ठाढ़ खरही या भिंड़ा खरही/परत भांवर खरही।


धान की खरही की ठाकुर देव की जात्रा किए बिना मिंजाई नहीं की जाती। पहले जात्रा के बाद धान को पूजा-पाठ करके कोठार में बिछा दिया जाता था । उसके ऊपर खूंटे से बैलों को बांधकर धान के उपर चलाया जाता है। खुरों के दबाव से धान के बीज अलग गिर जाते है और भूसा पड़ा रह जाता है।


बेलन या दांवर (देवरी) के सहारे धान की मिंजाई की जाती थी। उसके बाद जब धान का भूसा (ऊपरी परत) झड़ जाता है, तब बची हुई घास-फूंस को उड़ाकर साफ की गई धान को एक जगह इकट्ठा करते हैं। आज के आधुनिक युग में हाथों के बजाय थ्रेशर हार्वेस्टर ट्रैक्टर आदि से मिंजाई की जाती है। अब धान की पूजा-अर्चना करते हैं फिर कांटे से धान का वज़न तौलते हैं।


धान लेकर जब पुरुष घर आते हैं, तब महिलाएं द्वार पर जल पात्र (लोटा) लेकर खड़ी रहती हैं। पानी का छिड़काव कर वे धान को मन ही मन प्रणाम करती हैं, तब उसे घर के अंदर ले जाते हैं। धान को घर लाकर धुलाने के बाद रात में दीप जलाकर पूजा की जाती है, अर्थात धान की मिंजाई के अंतिम दिन कोठार करते हैं या छेवर मनाते हैं।


अगली सुबह लोगों द्वारा पूजा-पाठ के साथ-साथ कोठार करने आए लोगों को नारियल, दारू, बीड़ी, आदि सुपा से दान देकर विदा किया जाता है। शाम को लोग एक-दूसरे को खाने पर आमंत्रित करते हैं और खाने में मुर्गे और शराब का सेवन भी किया जाता है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी किसान धान-कटाई का उत्सव यानि छेवर मनाया जाता है।



यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

0 comments

Comments


bottom of page