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त्रिपुरा के झूम खेती किसानों के दिन की झलक

Puni Debbarma

भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ कई प्रकार की खेती की जाती है, जिसमें हमारे देश के किसान कड़ी मेहनत करके हम तक खाना पहुँचाते है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है इन किसानों को दिन कैसे दिखता है और खाना उगाने के लिए उन्हें कितना परिश्रम करना पड़ता है?


बाक़ी राज्यों की तरह, त्रिपुरा में भी बहुत खेती-किसानी होती है। एक प्रकार की खेती जो यहाँ की जाती है वह है स्थानांतरण खेती (Shifting agriculture)।


इस खेती के तहत आती है झूम खेती। त्रिपुरा के आदिवासी सदियों से झूम कृषि करते आ रहे है और आज भी त्रिपुरा में यह देखने मिलता है। यहाँ के कुच लोगों के पास खेती करने के लिए अपनी खुद का ज़मीन न होने के कारण उन्हें जंगल और पहाड़ी इलाकों में धान और सब्जियाँ उगानी पड़ती है।


कैसे होता है किसानों का दिन?


सुबह 8:00 बजे से लेकर शाम 4:00 बजे तक लगातार काम शुरू रहता है। इसमें खेती करने वाले लोग सिर्फ दो घंटे विश्राम करते है- खाना बनाने के लिए और खाना खाने के लिए। खाना घर पे बनाकर नहीं लेके जाते है, बल्कि जहां पर झूम कृषि करती है वहां से ताजी सब्जियाँ लेकर वही पकाते है। जिस जगह पर झूम खेती की जाती है, वहाँ एक छोटा बांस का घर बनाया जाता है, ताकि जब मौसम खराब हो और विश्राम करना हो, लोग वहाँ रुक सके।

दोपहर का खाना वही पे बनता है, और ज़्यादातर त्रिपुरा का सबसे मनपसंद बैम्बू शूट का पकवान पकाया जाता है। इस पकवान को बनाने के लिए सब्जियां और बांस यहां आसानी से मिल जाता है। और एक बढ़िया बात? खाना खाने के लिए थाली का इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि खाना केले के पत्ते मे खाया जाता है! है ना बिलकुल ज़ीरो वेस्ट?

दिन भर मेहनत करने के बाद फिर से किसान इकट्ठा होकर खाना खाते है। खाने के लिए ज्यादा सब्जियाँ नहीं पकाई जाती। सिर्फ़ 1-2 प्रकार का सब्जी बनाई जाती हैं और इन्हें इस बात से कोई शिकायत भी नहीं है! खाना अच्छा है या बुरा, इसी खाने से लोग काम चला लेते है।

त्रिपुरा के मेरे इस गाँव के इर्द- गिर्द सबसे ज्यादा धान झूम कृषि से ही उगाया जाता है और यहां का धान बिना रसायानिक उर्वरक के बिना भी अच्छी फसल देते है। फ़रवरी और मार्च में झूम खेती करने के लिए जंगल को काट के, उसे जलाकर फसल उगाने के लिए तैयार किया जाता है और अप्रैल महीने से फसल उगाना शुरू कर देते है। धान की 5 महीनों के बाद कटाई होती है और फसल काटने के बाद बांस का जो घर है, उसमें धान इकट्ठा करते हैं, जिसे बाद में लोग अपने घर ले जाते है।

खेती-किसानी बहुत परिश्रम का काम होता है, और इसे में बचपन से देखती आ रही हूँ। यह सिर्फ़ मेरे गाँव की कहानी है, लेकिन भारत भर लाखों किसान दिन रात मेहनत करके देश के खाने की ज़रूरत को पूरा करते है। आशा है ये लेख पढ़के आप किसानों को, विशेष रूप से महिला किसानों को याद करेंगे और उन्हें मन ही मन धन्यवाद कहेंगे।


लेखिका के बारे में-बिंदिया देब बर्मा त्रिपुरा की निवासी है। वह अभी BA के छट्ठे सेमेस्टेर में है। वह खाना बनाना और घूमना पसंद करती है और आगे जाकर प्रोफेसर बनना चाहती है।


यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था

 

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