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एक अलग तरह का नवरात्र जिसमें गाँववाले सुरक्षा और अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करते हैं

भारत देश में आदिवासी लोग नवरात्र पूजा चैत्र माह में अलग-अलग तरीके से मनाते हैं। इस दौरान आदिवासी लोग अपने पूर्वजों के कुल देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करते हैं। देवी-देवताओं को पेड़-पौधों के नीचे स्थान दिया जाता है और इस कार्य के लिए गाँव के बैगा को रखा जाता है। आदिवासी लोग अपने देवी-देवताओं पर पुरा विस्वांस करते हैं।

बांस से बनी एक टोकरी में मिट्टी और गोबर भरा जाता है। इन टोकरियों पर धान लगाया जाता है और देवी-देवताओं के सामने रखा जाता है

कोरिया-ग्राम पंचायत पैनारी पारा सुकताराडाड़ के बैगा का नाम बांकेलाल है। गांव का बैगा उस व्यक्ति को बोला जाता है जो उस जगह में, सबसे पहले निवास करने आता है। उस जगह के देवी-देवता सिर्फ उन लोगों की बात सुनते हैं जो पहले से उन्हें जानते-मानते आ रहे हैं। बैगा बताते हैं कि उनके चले जाने के बाद यह प्रथा उनके पुत्र चलाएंगे क्योंकि ये ज़िम्मेदारी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है।


इस गांव के बुजुर्ग मिल-जुलकर अपने देवी-देवताओं को आम के पेड़ के नीचे स्थान देतें हैं। सभी लोग यहाँ मिलकर हर त्यौहार मनाते हैं और स्थापित की गई चौंरा में पूजा-अर्चना करने के बाद अपने घर चले जाते हैं।


चैत्र नवरात्र

चैत्र नवरात्र का त्यौहार पुरे गांव द्वारा मिलकर मनाया जाता हैं। श्रद्धालु और भक्त मन की शांति प्राप्त करने के लिए और बुराइयों को अच्छाई में बदलने के लिए चैत्र नवरात्र मनाते हैं। एक सप्ताह पहले चंदा इकट्ठा किया जाता हैं और जगह की साफ-सफाई की जाती है। देवी देवताओं के स्थान को सफेद मिट्टी या गाय के गोबर से लिपाई की जाती है। चौंका के पश्चिम दिशा में देवी-देवताओं को रखने के लिए एक झोपड़ी बनाई जाती है। चंदा द्वारा इकट्ठा हुआ पैसा पूजा का सामान खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ख़रीदे गए सामान में बुनने की जौ, चारों दिशाओं में गाड़ने के लिए लाल रंग का कपड़ा, देवी-देवताओं को चढ़ाने के लिए नारियल ,अगरबत्ती, दिप जलाने के लिए घी या सरसों का तेल और माँ के दरबार में आते-जाते भक्तों के लिए प्रसाद बनाने की सामग्री आती है।

नवरात्र का प्रारंभ :-

यहां के लोगों की यह मान्यता है कि नवरात्र शुरू होने से समाप्त होने तक मांस, मछली नहीं खाना चाहिए। यहां के लोग चैत्र नवरात्र में अपने देवी-देवताओं, ठाकुर -ठकुराईन को मानते हैं और उन्ही के नाम से खेती ( फुलवारी) दी जाती है। इसके लिए अलग से झोपड़ी बनाई जाती है और उस झोपड़ी के अन्दर जौ बुना जाता है। जौ को बुनने से पहले उसे रात को पानी में डाल देते हैं और सुबह मिट्टी, रेत, और गाय के सुखे गोबर को मिलाकर खाद्य पदार्थों वाली मिट्टी तैयार की जाती है। फिर बांस के बर्तन बनते हैं, जैसे - गरगज, चुर्की (टोकरी) और मिट्टी के बर्तन या कलश इत्यादि। इसके बाद जौ बुनने की तैयारी की जाती है।

देवी-देवताओं को एक नई झोपड़ी में रखा जाता है जो कि उनके लिए ख़ास बनाई जाती है। उनके सामने टोकरियाँ रखी जाती हैं।

सभी लोग शाम को ४-५ बजे इकट्ठे होकर जौ बुनते हैं। इसकी देख -रेख के लिए नौ दिन के लिए इसे गांव के बैगा को सौंपा जाता है। इस तरह से नवरात्र विस्थापन किया जाता है। गाँव की भाषा में इसे ज्वांरा भी कहते हैं। बुनी गई जौं को बैगा (पण्डा) सुबह-शाम आरती उतारते हैं और अपने देवी-देवताओं से मन्नत मांगते हैं। सुबह-शाम इस पर पानी भी छिड़का जाता है और पांच दिन के बाद देवी-देवताओं की फाटक खुलती है। गांव के सभी बाल - बच्चे और अन्य सदस्य लोग देवी माँ के दर्शन करने आते हैं। इस गांव के पुरूष एवं महिलाएँ मिलकर इसकी सेवा करते हैं और कई लोगों के सिर देवी-देवत वृजमान होते हैं। वे आ कर नाचते-खेलते हैं। किसी के सर में ठाकुर और किसी के सर में ठाकुराइन आती हैं।


आठवें दिन अठईं मनाने के लिए गांव के महिलाएं थाली में चावल, नारियल, अगरबत्ती और हुमसकला लिए माँ के द्वार जाती हैं । आठवें दिन जौ को बाहर निकाल कर पूजा की जाता है। नौवें दिन देवी-देवताओं की खेती या फुलवारी को पवित्र पानी में विसर्जन की जाती है। यहां के बुजुर्गों की यह मान्यता है कि हर प्रकार की बिमारी आती जाती है, जैसे - सर्दी, खांसी, और कभी-कभी बुखार का रुप ले लेती है। कितनों प्रकार के बिमारी आती है लेकिन हमारे गांव को ज्यादा दिन तक नहीं सताती। ठाकुर देव और ठकुराइन दाई की कृपा से हमारे गांव में सुख और दुःख शान्ति पूर्व बने रहते हैं।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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