पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
ठंड के मौसम में सब्जियों के भाव में थोड़ी राहत मिलती है। क्योंकि इस समय गांव के लोग भी बाड़ियों में सब्जी की खेती कर लेते हैं। इन्हीं सब्जियों में से एक है सेमि की सब्जी, जिसे गांव के आदिवासी लोग बहुत पसंद करते हैं। यह सब्जी सिर्फ ठंडे के समय ही होता है, जो कुछ हल्की गर्मियों तक रहता है। सेमि को गांव के आदिवासी लोग कई तरह से सब्जी बना कर खाते हैं, साथ ही ठंड में होने वाली भथुआ भाजी को आदिवासी खूब खाते हैं, और इस भाजी को उगाना भी नहीं पड़ता। सेमि और भथुआ भाजी को उगाने में कम मेहनत करनी पड़ती है, और इन सब्जियों की बाजारों में बहुत क़ीमत होती है। इन सब्जियों को पहले के आदिवासी लोग, कुछ अन्य तरीकों से भी सब्जियां बनाते थे। जो अब लगभग बहुत कम लोग ही इस्तेमाल करते हैं।
सेमि जो सूखने के बाद भी, सब्जी बनाने के काम आती है
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के आदिवासी अपने खान-पान के लिए जाने जाते हैं। इस जिले के बालुई मिट्टी वाली क्षेत्रों में सेमि की सब्जी खूब पसंद करते हैं। इस सब्जी को होने में बहुत समय लग जाता है। बरसात के समय इस सेमि के बीज को लगाया जाता है, जो ठंड के मौसम आने के बाद फलना शुरू हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरानी बीज को ही लगाते हैं, इसलिए थोड़ा लेट में होता है। जबकि, बीज भंडार से मिलने वाली महंगी बीज जल्दी फलना प्रारंभ हो जाती है।
ठंड में होने वाले सेमि को आदिवासी, सब्जी के साथ-साथ इसकी दाल भी बनाकर खाते हैं। जब सेमि आवश्यक्ता से अधिक होती है, तो ऐसी स्थिति में आदिवासी इसके फल को सूखने देते हैं। और जब यह पूरी तरह से सूख जाती है, तो इसके दाने को छिलके से अलग कर लिया जाता है। फिर इस दाने को मशीन या गांव में उपयोग करने वाले जांता से दरायी किया जाता है। इसके बाद दाने के दो भाग हो जाते हैं। फिर इसको जब कभी खाने का मन हुआ तो दाल की सब्जी बनाकर खाते हैं। इस दाल का उपयोग सबसे ज्यादा पहाड़ी इलाके के आदिवासी करते हैं।
भथुआ भाजी भी बालुई मिट्टी वाले क्षेत्रों में अधिक होती है। इस भाजी को लगाना नहीं पड़ता, यह भाजी अन्य किसी सब्जी के साथ अपने आप उग जाती है। लेकिन यह भाजी सबसे ज्यादा प्याज-बाड़ी में ज्यादा होती है, और यह भाजी खाने में बहुत ही स्वादिष्ट लगती है।
आदिवासी ठंड के मौसम में बटकर की सब्जी भी बहुत खाते हैं। यह बटकर तिवरा की होती है, तिवरा के कच्चे फल-दाने को बटकर कहा जाता है। जो ठंड के समय ही होता है, और इसके भाजी को भी आदिवासी खूब खाते हैं। इसके भाजी और कच्चे दाने की बाजारों में खूब मांग रहती है। जहाँ तिवरा की फसल होती है, वहाँ के लोग इसको खूब बेचते हैं। यह तिवरा कन्हार जमीन में होती है। यह तिवरा भी होने में बहुत ज्यादा समय लेती है।
ग्राम बिछिपारा के धरम सिंह कंवर का कहना है कि, “हमारे गांव की जमीन बालुई वाली है। यहाँ साग-सब्जी की खेती बहुत होती है, और बिछिपारा गांव नदी के किनारे भी है। यहाँ तो हर घर के लोग सेमि सब्जी की खेती करते हैं। यहाँ की जमीन भी इसके लिए उपयुक्त है। सेमि नार वाली होती है, इसके बहुत ज्यादा नार होते हैं। जिसको चढ़ाने के लिए ढेखरा की जरूरत पड़ती है, जो सिर्फ जंगलों या पहाड़ो से मिलती है। और चूँकि यह गांव पहाड़ी इलाका भी है, तो इस सेमि को फैलने में सहूलियत होती है। इसकी जितनी नार फैलेगी, उतना ही यह फलती भी है"।
इस गांव के लोग सेमि की सब्जी खा-खा कर थक जाते हैं, तो सेमि को सूखने देते हैं। जो बाद में दाल या घुघरी की सब्जी बनाकर खाने में बहुत अच्छा लगता है। इस सूखे सेमि के दाने को किसी भी मौसम में खाया जा सकता है। वैसे अब तो अत्यधिक सेमि होने पर सब्जी बेचने वाले, कोचिया को दे देते हैं। जिससे अच्छे-खासे पैसे मिल जाते हैं।
वहीं ग्राम डोंगरी के माखन सिंह का कहना है कि हमारे यहाँ तिवरा के भाजी और उसके फल की सब्जी को खूब पसंद करते हैं, साथ ही इसकी दाल भी खाते हैं। लेकिन आजकल उसके कच्चे दाने की अत्यधिक मांग होने के कारण, कच्चे फल को बेचते हैं। जिससे अधिक मुनाफ़ा होता है। यह सब्जियां स्वादिष्ट होने के साथ-साथ सेहत को भी खराब कर सकती है। इसलिए बीमार लोगो को इन सब्जियों को खाने से पहले डॉक्टरों से जरूर सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि यह सब्जी इंजेक्शन को निष्क्रिय कर सकती है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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