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गोंड़वाना समाज को आज भी तलाश है आधुनिक पहांदी पारी कुपार लिंगो की

मनोज कुजूर द्वारा सम्पादित

कोयामुरी द्वीप में कोया वंशीय गण्डजीव का अति प्राचीन काल से ही इतिहास रहा है। जिसमें उनके पुर्वजों का कार्य सराहनीय रहा है। कोयावशीं गोंदला (समुदाय) को सही दिशा निर्देश देकर संचालित करने तथा मार्ग दर्शन करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती थी। जो पुनेम के मार्ग पर चलने वाले समाज को दिशा और दिशा-निर्देश कर सकें। कोयामुरी द्वीप का 'शंभु शेक' पंच दीपों का स्वामी है, जो गण्डजीवों का राजा होता था। ऐसे 88 शंभु शेक अपने-अपने काल में कोयामुरीद्वीप में आधिपत्य किए गए और गण्डजीवों को संरक्षण कर सत्य मार्ग स्थापित किए गए। ऐसे मुठवा पोय, धर्म गुरू पहान्दी पारी कुपार लिंगों ने शंभु कार्यकाल के दौरान गोण्डवाना गण्डजीवों के गोंदला समुदाय को एक सुत्र में संचालित किया। ऐसे अनेक लिंगों हुए जो गोंडवाना को अपने-अपने कार्यकाल में समाज को दिशा प्रदान की। लेकिन, आधुनिक गोंड़वाना में लिंगो की कमी से पूरा गोंड़वाना समाज बिखरा हुआ है।


जब भी गोंड़वाना भू-भाग की बात होती है, तो हम देखते है कि गोंड़वाना भू-भाग का नामसर्व प्रथम आता है, जहां मानव सभ्यता की शुरुवात मानी जाती है। सबसे पहली विकसित सभ्यता कोई थी तो वह कोयतुरो(आदिवासियों) की ही व्यवस्था थी, जो आज आधुनिक भारत में छीन-भीन व्यवस्था में है। यह इसलिये है क्योंकि हमने समय के साथ बदलाव को स्वीकार नहीं किया और ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं हुवे है। गोंड़वाना भू-भाग में रहने वाले गण्ड जीवों जिसे "गोड़" कहा जाता है। यह समय के अनुसार आपने आपको बहुत बदले हैं। एक कहावत है कि हर 10 कोश में पानी बदल जाता है। उसी तर्ज पर गोंड़ लोगों की परिवेश व्यवस्था भी बदल जाती है। लेकिन इस कहावत को कभी समझने का प्रयास ही नहीं किया गया कि आख़िर ऐसा क्यों हुआ ।


बहुत सारे इतिहासकारों ने और बुद्धजीवियों ने लिखा है कि, कोयतुरों की या गोंडों की पहिली सामाजिक व्यवस्था को रूप देने का कार्य किसी ने किया है तो वह 'प्रथम शंभु शेक कोसोडूम-शंभु मुला' की जोड़ी है। आगे चल कर इससे भी बड़ा महत्वपूर्ण कार्य 'शंभु ईसर-गवरा' के समय काल में 'पहांदी पारी कुपार लिंगो' ने एक समग्र रूप से इस पूरे गोंड़वाना भू-भाग के गण्ड जीवों को एक सूत्री में बांधते हुए, गोत्र एवं टोटामिक व्यवस्था सभी कोयतुरों (आदिवासी) को दिया। जिससे इस आदिवासी समाज की गोत्र एवं टोटामिक जीवन चक्र बनी रहे। जिसे अभी तक हम सभी जानते और मानते आ रहे हैं।

पहांदी पारी कुपार लिंगो

जब पहांदी पारी कुपार लिंगो ने यह गोत्र एवं टोटामिक व्यवस्था बनाई तब गढ़ व्यवस्था नहीं थी। इस व्यवस्था में ध्यान आकर्षित करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि, उन्होंने हर व्यक्ति को एक अलग-अलग गोत्र दिया और कुछ गोत्रों को समूहों में प्रदान किया। जैसे कि जो समूह आता गया उसमें जितने लोग थे, उसी के अनुसार प्रदान किया। जैसे कोई समूह जिसमे 3 लोग आये तो उनको 3 अलग-अलग गोत्र तो दिया परंतु उनको गोत्र भाई माना अर्थात ये आपस मे बेटी-रोटी का लेन देन नहीं करेंगे। साथ ही इनको 3 देवों वाला वंश या कुल माना। उसी प्रकार कोई समूह 4 लोगो के साथ आया, तो कोई 5, तो कोई 7 लोगो के समूह में इस प्रकार सभी को सागा भाई-बहन के गोत्रों में बांटा गया।


गोत्रों से यहां वंश की पहचान से है। जिससे उसकी परिवार की पहचान होती हैं साथ ही वह किस वंश का है ये भी पहचाना जा सकता है। जिससे यह सुविधा होती है कि उस पहचान के बाद वे आपस मे बेटी-रोटी के लेन-देन करने में कोई भी कठिनाई नहीं रह जाती है। इसके बाद उन अलग-अलग गोत्रों को एक अलग-अलग टोटेम भी प्रदान किया गया। जिसके स्वरूप उन्हें एक पक्षी, एक जीव ,एक जंतु या जानवर दिया गया। यहां टोटम का मतलब है कि, वह व्यक्ति उस जीववर्ग का सदस्य है। उसे उस जीववार्ग के पक्षी या जानवर को मारना एवं खाना भी वर्जित है। अर्थात वह उस जीव का संरक्षक होगा। उसका संरक्षण करेगा, ताकि इस पृथ्वी के जीवों और मनुष्यों का प्रकृतिक संतुलन बना रहे है। यहां इस नियम के साथ पूरे गोंड़वाना खंड के संपूर्ण कोयतुर समुदाय जुड़ा हुआ है एवं पूरा समाज "टोटामिक सिस्टम" के साथ संचालित होता है। लेकिन हम देखते हैं कि, अगर 'पहांदी पारी कुपार लिंगो जी' इस व्यस्था को अगर आज से हजारो साल पहले बनाई है, तो उसमें परिवर्तन नहीं हुआ होगा। निश्चित ही इस व्यव्स्था में परिवर्तन हुआ होगा।


इसको समझने के लिये हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। हम बस्तर की बेटी-रोटी की व्यस्था को देखते है तो पाते हैं कि यहां पर मरकाम-शोरी समधी का गोत्र होता है। जबकि धमधा गढ़ की व्यवस्था के हिसाब से देखेंगे, तो मरकाम और शोरी भाई होता है। उसी प्रकार छत्तीसगढ़ में मरकाम को 3 देव वाला माना जाता है जबकि मध्यप्रदेश क्षेत्र में मरकाम 6 देव में आता है। अगर मैदानी क्षेत्रों के देव व्यवस्था के हिसाब से चलते हैं, तो बस्तर में ऊना-पुना, सम-विषम माँ किस गोत्र की दूध पी हैं। इस प्रकार अलग-अलग जगहों पर लोगों ने अपने सुविधा अनुरूप पूर्व में परिवर्तन किये हैं। इससे ज्यादा परिवर्त्तन पिछले 500-1000 सालों में ही हुआ है। सर्व प्रथम गोंड़ से भील ,भील से उरांव, उरांव से मीणा, मीणा से हल्बा, हल्बा से कांवर ऐसे अलग-अलग जातियां में बांटते-बांटते 783 आदिवासियों की जात बन गई। ये सिर्फ आदिवासियों की जाति है।


हम सिर्फ गोंडो की ही बात करते हैं, तो इस छत्तीसगढ़ प्रदेश में देखते हैं कि, ऑन रिकॉर्ड गोंडो की ही लगभग 55 से ज्यादा उप-जातियाँ है। ये सिर्फ वर्तमान की बात है। इस प्रकार देखा जाये तो सभी अन्य जनजातियां एक ही समुदाय गोंड़ की ही उपजातियां है। जब हर समय काल में हमारे पूर्वजों ने अपने बेटी-रोटी के लेंन लेन-देन के माप दंड को अपने सुविधा अनुसार बदला है, तो हम आज एक अखण्ड गोंड़वाना के लिए प्रयास क्यों नही करते हैं? एक ऐसा अखण्ड गोंड़वाना बनाने की जिसमें हम अपने सभी उपजातियों को बुला कर एक अखण्ड गोंड़वाना के निर्माण का अखंड क्यों नहीं करते हैं। यह प्रयास सिर्फ गोंड़ को एक करने से नहीं होगा। हम नये सिरे से लिंगो बनाने की व्यवस्था को कायम क्यों नही करते हैं? सिर्फ कहना कि, मैं फलाना देव वाला हूं, मेरे घर का देव स्वीकार नही करेंगे। मैं फलाना गढ़ वाला हूं, मेरे घर ये गोत्र वाला नहीं चलता है। मैं फलाने मंडा वाला हूं। मेरे घर में ये नहीं चलता है, तो मेरा आप सभी से एक सवाल है।


हम सभी के जो पेन शक्तियां (पुरखा देवता) है। वह हमारे लिये है कि हम उनके लिए है, पुरखा देवता को मानते आ रहे हैं और हमें उनका मार्गदर्शन व आशिर्वाद प्राप्त हो रहा है। मैंने अक्सर देखा है कि, माँ-बाप बच्चों के जिद के आगे झुक जाते है। फिर जितने हमारे पेन शक्तियां (पुरखा देवता है) है क्या वह हमारे आधुनिक गोंड़वाना के संरचना के लिये तैयार नही होंगे? मेरे अनुसार जितनी हमारी पेन शक्तियां है। सब इसके लिये तैयार होंगे, क्यों कि हमारी पेन शक्तियां (पुरखा देवता) हमारे लिये होते है।


यहाँ संदेश यह है कि, एक बार पुनः हमें समग्र गोंड़वाना के गोंडो को एक करने का, एक साथ बेटी-रोटी शुरू करने का, आपस में प्रेम बढ़ाने का और आने वाले समय के लिए इस लोकतंत्र में राजनीतिक दृष्टि से हमें एक नई ताकतवर शक्ति बन कर उभरना होगा। इस संदेश के साथ आप यहां सभी सागा बिरादरी के लिए अपना सुझाव-विचार जरूर दें , ताकि इस दिशा में हम मिल कर कार्य कर सकें।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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