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जानिये गाँव के आदिवासी लोग लम्बे समय से चल रहे तालाबंदी में कैसे जीवन यापन कर रहे हैं

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने लाखों लोगों की जान ले ली। करोड़ों लोगों ने अपनी नौकरी और आय के स्रोत खो दिए। आज दुनिया एक बहुत बड़ी संकट से गुजर रही है। पुरे विश्व में किसी न किसी रूप में सरकारें तालाबंदी कर इस बीमारी को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। छत्तीसढ़ में भी अप्रैल से ही तालाबंदी लगा हुआ है। इससे कई लोगों की आमदनी पे असर पड़ा है लेकिन इससे कोरोना का प्रकोप भी नियंत्रण में लाया गया है।

जो लोग दिहाड़ी मजदूरी कर घर चलाते थे अब उनके पास कोई रोजगार नहीं रहा । अब वे स्मार्टफोन के साथ व्यस्त रहते हैं

कोरोना वायरस महामारी 2019 से शुरू होकर 2021 में सबसे ज्यादा विकराल रूप धारण कर चुकी है। शुरुआती दौर में इस बीमारी से जनधन की हानी कम हुई थी। लेकिन 2021 में लगता है पूरे मानव को और उसके साथ- साथ पशु पक्षियों को भी निगल लेगी।


इस महामारी से देश को आर्थिक, व्यापारिक, जनधन एवं कई और पहलुओं पर बहुत असर पड़ा है। बीमारी के डर से तथा लॉकडाउन का पालन करते हुए लोग अपने - अपने घरों में बंद हैं। तथा घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं। घर में जो है, जिस स्थिति में है उसी स्थिति में खुश हैं, एवं उनमें उतने में ही अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। अंदर से दिल टूटा हुआ है, फिर भी सभी खुश हैं, खुश इसलिए हैं, कि वे सुरक्षित हैं, और लॉकडाउन का पालन करके हमारे और दूसरे की भी रक्षा कर रहे हैं।


पहली लहर के विपरीत दूसरी लहर में भारत के गांव बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। मैंने गाँव के कुछ लोगों से पूछा की इतने लम्बे समय से चले आरहे तालाबंदी का उनके जीवन पे क्या असर पड़ा।

जंगल के पास रहने वाले आदिवासियों ने तालाबंदी के दौरान वन उपज इकठ्ठा कर अपना घर चलाया

पहले मैंने बात की लक्ष्मी कंवर से। वे ग्रेजुएशन कर चुकी हैं और अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ-साथ छुटपुट काम करती रहती हैं। उनका कहना है कि, गांव में उतनी किल्लत नहीं है जितना की शहरों में है। खास करके जो पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी लोग रहते हैं, उनको इतनी दिक्कत इस महामारी से नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि चूंकि आदिवासी जंगल के पास रहते हैं, इसलिए उन्हें अपनी दैनिक जरूरत की कई चीजें वहीं से मिल जाती हैं। "जंगल के औषधीय फल-फूल को तोड़कर जैसे- चार, हर्रा, बहेरा इत्यादि, आदिवासी लोग उसे बेचकर पैसे कमा सकते हैं। इसके इलावा भी सभी के पास छोटे-छोटे खेत होते हैं जिन में लोग कुछ न कुछ खेती करके जीवन यापन कर लेते हैं। "


गाँव के रहने वाले गंगाराम प्रजापति का कहना है की जो लोग रोज दिहाड़ी मजदूरी करके घर चलाते हैं उनके लिए जीवन बहुत कठिन होगया है। गंगाराम जी खुद एक मूर्तिकार हैं। वे मिट्टी से बनी हुई बर्तन और अनेक प्रकार के वस्तुएं बनाते हैं। वे कहते हैं की कोरोना महामारी के चलते उनकी स्थिति बहुत खराब है क्योंकि एक दूसरे के घर आने-जाने में रोक राग गया है। इससे उनकी बनाई मूर्ति, घड़ा, और बर्तन सब गोदाम में पड़े हुए हैं और बिक्री नहीं हो रही है। "इन दिनों लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं। कुछ गांवों ने तो उनके प्रवेश बिंदुओं पर बैरिकेडिंग कर दी है। मुझे अपने माल के लिए ग्राहक नहीं मिल रहे हैं। मेरी आमदनी बहुत ज्यादा घट गयी है। "

नौकरी गंवाने वाले कुछ लोग ईंट बना रहे हैं

गंगाराम के जैसे ही रमेश कुमार भी बहुत दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। वे बाहर काम करने जाय करते थे लेकिन लॉकडाउन लगने से वे गाँव में ही रहने लग गए। उनका कहना है कि जहां एक तरफ उनकी पुरानी नौकरी चली गई, वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपने परिवार के साथ समय बिताने का मौका मिल रहा है। गाँव की हालत देख उन्होने ने निर्णय लिया है की अब वे खुदसे ईंट बनाना शुरू कर देंगे। "अगर बाहर जा नहीं सकते तो घर में हम ईट बनाकर उससे नया घर बनाएंगे और कुछ ईटों को जरूरतों के हिसाब से बेच देंगे उनके कहना यह भी है। रही बात परिवार की तो एक साथ हम लोग कभी नहीं मिले थे, क्योंकि घर की दिक्कतें एक ना एक व्यक्ति को बाहर जाने के कमाने के लिए मजबूर कर देती थी। और कोरोना के चलते हम लोग आज एक साथ हैं।"


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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