आइए हम आपको आदिवासी क्षेत्रों में मनाए जाने वाले बेलकट पर्व के बारे में अवगत कराते हैं
- Shubham Pendro
- Feb 28, 2023
- 4 min read
पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
गांव के आदिवासी क्षेत्रों में अक्सर ऐसे बहुत से पर्व मनाये जाते हैं, जिन्हें आदिवासी समुदाय बड़े धूमधाम से मनाते हैं। और सभी पर्व आदिवासियों के जीवन से जुड़ी हुई प्रमुख कड़ी होती हैं। आइए, हम ऐसे ही एक पर्व के बारे में आप सभी को अवगत कराएंगे जो आदिवासियों क्षेत्रों में मनाते हैं।
क्या आप लोगों ने बेलकट पर्व के बारे में सुना है? जो आदिवासियों का एक प्रिय त्यौहार होता है, जिसमें सभी आदिवासी शामिल होते हैं, और अपने देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं। आप सभी ने देखा होगा कि ज्यादातर आदिवासी समुदाय अपने प्राचीन सभ्यता को जिंदा रखने के लिए बहुत ही ज्यादा मेहनत और हमेशा प्रयास करते रहते हैं। ताकि, उनकी प्राचीन सभ्यता को सभी लोग जान सकें। हमारे गांव में, आदिवासी समुदाय के लोग सबसे ज्यादा हैं, और उनकी आस्था जंगलों और पेड़-पौधे व चट्टानों से जुडी हुई हैं। जो आज की पीढ़ी में भी देखने को मिल रहा है। आदिवासी समुदाय पेड़-पौधों व जंगलों को देवतुल्य समझकर अपने मन में विश्वास बनाए रखे हैं कि, यही हमारी रक्षा के साथ ही हमारी भूमि की रक्षा, हमारी फसल की रक्षा और हमारे गांव की रक्षा कर सकते हैं।
आप सभी ने देखा होगा कि हर क्षेत्र में अलग-अलग समुदाय के आदिवासी बसे हुए हैं, जिनकी अपनी अलग-अलग पारंपरिक रीति-रिवाज होते हैं। और ये अपने देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में आदिवासियों के द्वारा कई तरह के देवी-देवताओं की उपासना, अपनी पीढ़ी से करते आ रहे हैं। हमने गांव में होने वाले सभी तरह के पर्व के बारे में जानने का प्रयास किया है, जो मानव व प्रकृति से जुड़ा हुआ हो और जो मानव और प्रकृति का एक मुख्य कड़ी हो।

हमने कोरबा जिला के अंतर्गत आने वाला कोडगार क्षेत्र के निवासी, जिनका नाम जवाहिर सोरठे है, जिनकी उम्र 50 वर्ष है। उन्होंने हमें बताया कि उनके क्षेत्र में 50% गोंड आदिवासी निवास करते हैं, जिनके द्वारा हर साल बेलकट पर्व मनाया जाता है। इस त्यौहार में गांव के सभी आदिवासी शामिल होते हैं, और अपने देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं।
आइए हम आपको बताते हैं कि, इस पर्व की प्राचीन मान्यता क्या है
गांव के लोगों का कहना है कि इस त्यौहार को हर जनवरी माह लगने से पहले एक साल में मनाया जाता है और इस त्यौहार में एक बकरे की बलि दी जाती है। बुजुर्गों के द्वारा बताया जाता है कि इस त्योहार को मनाने का प्रमुख उद्देश्य, गांव की सुरक्षा व फसलों की सुरक्षा के लिए मानाते हैं।
गांव के लोगों का कहना है कि, पहले जब फसल लगाते थे, तो फसलों की बहुत ही ज्यादा चोरी हुई करती थी। रात में बाहर के लोग फसलों को काट कर ले जाया करते थे, इन्हीं सब परेशानी को देखते हुए गांव के लोगों ने इस पर्व को मनाना शुरू किया। और यह जो पर्व है, यह बहुत पहले से चली आ रही है, जिसे आज भी यहाँ के आदिवासी बेलकट पर्व के रूप में मनाने के लिए उत्साहित रहते हैं। गांव के लोग बेलकट पर्व का इंतजार पूरे साल भर करते हैं। जिससे गांव के लोग बड़े उत्साह से मनाते हैं। बेलकट पर्व कि यह मान्यता है कि, किसानों के फसल के प्रति हमारे देवी-देवताओं की कृपा बनी रहे और उनके आशीर्वाद से हमारी मनोकामनाएं पूरी हो, और सभी किसानों के फसल को कोई नुकसान न हो। गांव के लोगों का कहना है कि, आज हमारा गांव और हमारी फसल हमें सुरक्षित रूप से प्राप्त हो रहा है। और न ही किसी भी तरह का नुकसान देखने को मिल रहा है।

चलिए अब हम बताते हैं कि, इस पर्व को गांव के लोग आखिर किस तरह से मनाते हैं
गांव के सभी लोग अपने-अपने घरों से दाल चावल पकड़ कर हसदेव नदी के किनारे जाते हैं। उस जगह को बहरा घाट हसदेव नदी कहते हैं, और इस जगह को एक विशेष स्थान के रूप में जाना जाता है। बेलकट पर्व इसी जगह में मनाया जाता है और किसी दूसरे स्थान में बेलकट पर्व नहीं मनाया जाता है। गांव के लोगों का कहना है कि, इसी जगह में बकरे की बलि दी जाती है। गांव के सभी लोग इसी जगह में खाना बनाते हैं, साथ ही तरह-तरह के पकवान बनाकर पूरा दिन इसी जगह में गुजारते हैं।
इस त्यौहार के बारे में और भी जानकारी हासिल करने के लिए गांव के बुजुर्गों से बात की। जिन्होंने हमें बताया कि बेलकट त्यौहार मनाने का हमारा यह उद्देश्य रहता है कि हर साल फसलों की बढ़ोतरी हो और हमारे फसलों को खेतों से कोई चुरा कर ना ले जा सके। क्योंकि आप सभी जान रहे हैं कि गांव के लोग ज्यादातर कृषि क्षेत्र में सबसे आगे रहे हैं और आज भी हैं। उन किसानों के सभी फसलों की सुरक्षा के लिए इस तरह की पूजा हमारे गांव में की जाती है।
यह जो त्यौहार है, वह कई सालों से बुजुर्गों के द्वारा मानाते है, और यह परंपरा चलती आ रही है। इसलिए आज भी बेलकट पर्व को गांव में जिंदा रखे हुए हैं। यह सभी फसल के कट जाने के बाद का एक आखिरी त्यौहार होता है, जो हमारे छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला के प्रसिद्ध हसदेव नदी के किनारे मनाते हैं। हसदेव नदी के किनारे, बड़ी-बड़ी चट्टानों के जगह को आदिवासी लोग अपने देवतुल्य का रूप माने हैं। बुजुर्गों का कहना है कि, पहले जंगल की सुरक्षा और फसल की सुरक्षा के लिए गांव के लोग हमेशा आगे रहे हैं, और आज भी इस पर्व को पीढ़ी दर पीढ़ी चलाते आ रहे हैं।
हम यह कह सकते हैं कि, आदिवासी समुदाय एक ऐसा समूह है, जो अपने पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही परंपरा व प्राचीन सभ्यता का मान रखे हुए हैं। और अपने युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के बारे में भी जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं, इस तरह के पर्व में युवा वर्ग के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। जिससे हमें यह ज्ञात होता है कि, युवा पीढ़ी भी अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति और रहन-सहन के तरीके को जिंदा रखने का प्रयास कर रहे हैं।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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