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वर्तमान में कैसे बदल रहा है, 'छेरछेरा पर्व' मनाने का तरीका

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


छेरछेरा छत्तीसगढ़ का लोक तिहार (त्यौहार) है। जो पौष-पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह पूरे छत्तीसगढ़ में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है और पौष-पूर्णिमा से लगभग कुछ दिन पहले से ही, ग्रामीण और बच्चे छोटे-टोली बनाते हैं। जो लकड़ी के डंडे लेकर मांदर, ढोलक, झांझ, मंजीरा और अन्य पारंपरिक वाद्य-यंत्रों के साथ पारंपरिक लोकगीतों की धुन में घर-घर जाकर नृत्य करके दान मांगते हैं।


छेरछेरा तिहार को, "नए फसल के काटने" की खुशी में मनाया जाता है। क्योंकि, किसान धान की कटाई और मिसाइ पूरी कर लेते हैं, और लगभग 2 महीने फसल को, घर तक लाने में, जो जी-तोड़ मेहनत करते हैं। उसके बाद, फसल को समेट लेने की खुशी में, इस त्यौहार को मनाने की बात भी कही जाती है।


इस छेरछेरा पर्व को मनाने के पीछे, एक लोककथा भी है


बापू रेवाराम की पांडुलिपियों से पता चलता है कि, कलचुरी राजवंश के कौशल नरेश, कल्याणसाय व मंडल के राजा के बीच विवाद हुआ। इसके पश्चात, तत्कालीन मुगल शासक अकबर ने, उन्हें दिल्ली बुला लिया। कल्याणसाय वर्षों तक दिल्ली में रहे, वहां उन्होंने राजनीति व युद्धकला की शिक्षा ली और निपुणता हासिल की। आठ साल बाद, कल्याणसाय, उपाधि एवं राजा के पूर्ण अधिकार के साथ, अपनी राजधानी, रतनपुर वापस पहुंचे। जब प्रजा को राजा के लौटने की खबर मिली। तो, पूरी प्रजा जश्न के साथ राजा के स्वागत में, राजधानी रतनपुर आ पहुंची। प्रजा के इस प्रेम को देखकर, रानी फुलकेना द्वारा, रत्न और स्वर्ण मुद्राओं की बारिश करवाई गई और रानी ने प्रजा को, हर वर्ष इस तिथि पर आने का न्योता दिया। तभी से, राजा के उस आगमन को यादगार बनाने के लिए छेरछेरा पर्व की शुरुआत की गई। राजा जब घर आए, तब समय ऐसा था, जब किसानों की फसल भी, खलिहानों से घर को लौट आई थी और जश्न में हमारे खेत और खलिहान भी जुड़ गए। (स्रोत: इन्टरनेट)

भक्ति-गीत गा कर छेरछेरा माँगते हुए

“छेरछेरा माई कोठी के धान ला हेर-हेरा” यही आवाज आज प्रदेश के ग्रामीण आंचलों में गूंजती है और दान के रुप में धान और नगद राशि बांटी जाती है। शहरों, दुकानों एवं कालोनियों में पैसे या टॉफी खाने की चीजें देते हैं। इस त्यौहार के मौके पर लोग घर में, आइरसासोहारी और उड़द-बड़ा आदि छत्तीसगढ़ी व्यंजन बनाते हैं एवं मांस-मछली प्रमुख तौर पर बनाये जाते हैं। पहले की अपेक्षा, यह छरछेरा त्यौहार, समय के साथ परिवर्तित हो रहा है। लोग अपनी परम्पराओं और कला-संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं। पहले पुरुषों की टोली बनाकर, गांव-गांव जाकर, डंडा नाच करते थे। और लड़कियां भी टोली बनाकर सुआ नृत्य करती थी। यादव समाज के लोग भी अपने पूरे वेशभूषा पहनकर, ढोल, निशान और मंजीरा के साथ घर-घर जाकर रावत नाच करके, अपना प्रदर्शन करते थे और दान मांगते थे। पर वर्तमान समय में अपने पुरखों के कला-संस्कृति और पारंपरिक गीत-संगीत, बाजा-गाजा को भूलते जा रहे हैं।

आइरसा रोटी और भजिया बनाती हुई महिलाएं

ग्राम डोंगरी में, इस साल के छेरछेरा पर्व पर, लोग डीजे में छेरछेरा मांगते हुए नजर आए, लोग गली में डीजे साउंड लगाकर घर-घर जाकर छेरछेरा मांग रहे थे। इसी प्रकार कुछ लोग तबला, हारमोनियम, मंजीरा-झेला के साथ ही भक्ति-गीत गाकर के, छेरछेरा मांगते नजर आए। तो कोई, छोटे ब्लूटूथ वाला स्पीकर लेकर भी दान मांग रहे थे। इन सब को देख कर लगता है कि, आने वाले कुछ सालों में, परंपरागत जो गीत-संगीत व वाद्य-यंत्र हैं, वे पूरी तरह विलुप्त हो जायेंगे और नए जमाने के वाद्य-यंत्र उसकी जगह ले लेंगे।

छेरछेरा माँगने के लिए तैयार युवा टोली

मौजूदा समय में, युवा वर्ग, टोली बनाकर छेरछेरा तो मांगते हैं। पर, वह लोग शराब का सेवन,अधिक मात्रा में किये रहते हैं या फिर शराब पीने के लिए छेरछेरा मांगते हैं। और उन्हें जो दान में 'धान' मिलता है, उसको बेचकर, वो शराब पीते हैं। मैंने देखा है कि, युवा वर्ग बहुत ज्यादा शराब के आदी हो चुके हैं। जिससे, गांव और समाज में हो रहे त्यौहार और सांस्कृतिक प्रोग्राम पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे पूरे गांव का माहौल खराब होता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए ग्राम केराकच्छार में त्यौहार के 1 दिन पहले, गांव में सभा का आयोजन किया गया। जिसमें ग्राम के सरपंच, पंच और गांव के प्रमुख व्यक्ति शामिल हुए। जिसमें इन्होंने यह फैसला किया कि, इस बार के छेरछेरा त्यौहार पर यहां केवल छोटे बच्चे ही, जो 18 साल के नीचे हैं, वही लोग गांव में छेरछेरा मांग सकेंगे। बाकी कोई भी बड़ा व्यक्ति या युवा लोग इसमें शामिल नहीं होंगे।


इस गांव में एक और अजीब सा नियम देखने को मिला है। यह नियम छोटे बच्चे और युवाओं को मोबाइल के प्रति बढ़ते लगाव को देखकर बनाया गया है। गांव के लड़के अधिकतर समय, गांव की गली-चौराहे में बैठकर मोबाइल गेम खेलते नजर आते थे। इसलिए यह नियम बनाए गए हैं कि, कोई भी व्यक्ति शाम के 7:00 बजे के बाद, गली में मोबाइल लेकर नहीं बैठेगा। यदि, कोई बैठे हुए पकड़ा जाता है, तो उसे 5000 रुपये आर्थिक दंड के रूप में देना पड़ेगा। यह केवल गांव के लोगों पर ही लागू होता है।


वर्तमान में लोग अपने पुरखों के परंपरागत लोक-नृत्य, कला, वाद्य-यंत्र को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। इसे आने वाली पीढ़ी के लिए संजोकर रखना बहुत आवश्यक है। ताकि, वे भी अपनी संस्कृति को जानें, समझें और उस पर अमल करें।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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