top of page
Adivasi lives matter logo

जानिए आदिवासियों द्वारा बनाए जाने वाली सिरकी (चटाई) के बारे में

Writer's picture: Sadharan BinjhwarSadharan Binjhwar

प्राचीन काल से ही आदिवासी अपने ही हाथों से बनाए हुए वस्तुओं का उपयोग करते आ रहे हैं, बैठने का हो या बिछाने का, हर जरूरत की वस्तु को वो खुद बना लेते हैं। ऐसे ही एक चटाई है जिसे आदिवासी, पत्तों का इस्तेमाल करके बनाते हैं, इसे सिरकी कहा जाता है। इस चटाई को खजूर (छिंद) के पत्तों से बनाया जाता है।

सिरकी का उपयोग बहुत से कामों में किया जाता है। शहरों में इसका उपयोग अधिकतर बैठने और सोने के लिए किया जाता है, लेकिन गाँवों में इसके और भी कई उपयोग होते हैं। गाँवों में कई प्रकार के सब्जी या भाजी पाए जाते हैं, उन्हें सुखाने के लिए सिरकी का उपयोग किया जाता है, धान को सुखाने के लिए विशेष रूप से सिरकी का उपयोग किया जाता है, साथ ही साथ इसका उपयोग सोने, बैठने के लिए भी किया जाता है। आजकल आधुनिक तरीके से बने प्लास्टिक के चटाई आ जाने से लोग सिरकी बनाना छोड़ रहे हैं, लेकिन आज भी गाँवों में अनेक आदिवासी ऐसे हैं, जिनके द्वारा सिरकी बनाया जाता है और उपयोग भी किया जा रहा है। सिरकी बनाने के लिए सबसे पहले छिंद इकट्ठा किया जाता है। अधिकतर सिरकी बनाने का काम महिलाओं द्वारा किया जाता है इसलिए छिंद इकट्ठा करने भी वही जाते हैं।

सिरकी बनाती वृद्ध महिला

छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के ग्राम रिंगानियां निवासी एक वृद्ध महिला, श्री मति समारो बाई जी बताते हैं कि उन्हें छिंद इकट्ठा करने के लिए जंगल जाना पड़ता है और वे घर के बकरीयों को भी चराने का काम करती हैं, बकरी चराने के दौरान ही वे छिंद भी इकट्ठा कर लेती हैं। गाँव मे महिलाएं 2-4 का समूह बनाकर जंगल में छिंद इकट्टा करने के लिए जाती हैं। एक सिरकी बनाने के लिए बहुत सारे छिंदों की जरूरत पड़ती है, जो एक ही दिन में इकट्ठा नहीं किया जा सकता है, इसलिए कई दिन छिंद काटने जंगल जाना पड़ता है। जब छिंद इकट्ठा हो जाता है तो फिर उसे सुखाया जाता है।

सुखा कर गट्ठा बांधा हुआ छिंद

छिंद जब पूरी तरह सुख जाता है तब उसके पत्ते को अलग किया जाता है या फिर पहले से ही इस पत्ते को अलग कर लेते हैं उसके बाद उसे सुखाते हैं। छिंद के पूरी तरह सुख जाने के बाद उसे एक गट्ठा बना के बांध के रखे रहते हैं और जब उन्हें खाली समय मिलता है तब उस छिंद को सिरकी (चटाई) बनाने के लिए गुंथा जाता है, सिरकी बनाने से पहले छिंद के पत्ते के निचले भाग को आग से थोड़ा थोड़ा जला देते हैं ताकि वह फटने से बच जाए। फिर उसे पानी में भिगाया जाता है ताकि वह मुलायम हो जाए, उसके बाद ही सिरकी गांथने का काम किया जाता है।

दरी की तरह लंबा गांथा हुआ सिरकी

जब छिंद को सिरकी बनाने के लिए पूरी तरह तैयार कर लेते हैं तब जाके सिरकी बनाने का काम शुरू किया जाता है। सिरकी एक साथ पूरा तैयार नही होता है बल्कि उसे पहले छोटे छोटे भाग में बनाया जाता है उसके बाद उसे जोड़ कर सिरकी बनाया जाता है।

पूरा बना हुआ सिरकी

सबसे पहले छिंद को दरी की तरह लंबा गूथा जाता है, उसे बहुत लंबा भी गूथा जाता है और कई लोग जितने लंबाई का सिरकी बनाना रहता है उतने लंबाई का नाप लेकर काटते जाते हैं। और जो लोग लंबा गूथ लेते हैं वे एक निश्चित लंबाई का नाप लेकर काटते हैं। जब काट लिया जाता है उसके बाद उसे जोड़ा जाता है, जोड़ने के लिए किसी रस्सी या तार का उपयोग नहीं किया जाता बल्की छिंद से ही जोड़ा जाता है, काटे हुए भाग को किनारे से जोड़ा जाता है और जितना चौड़ा सिरकी बनाना रहता है उतना अधिक जोड़ा जाता है। जब पूरा जोड़ लेते हैं तब उसके बाद लंबी किनारों को मोड़ कर तार या रस्सी से सिलाई कर देते हैं, ताकि वह गूथा हुआ छिंद ना खुले, और इस तरह पूरा सिरकी तैयार हो जाता है।


गांवों में प्रत्येक आदिवासी के घर में सिरकी पाया जाता है। पहले जब घरों में कुर्सी या चटाई नही होता था तब लोग मेहमानों को बिठाने के लिए भी इसी सिरकी का ही उपयोग करते थे, आज भी कई गाँव घर में यह देखने को मिलता है। सिरकी जैसे अनेक कलाओं की ज्ञान आदिवासियों को है, इन ज्ञान को संरक्षित करना बहुत जरूरी है। किसी भी ज्ञान को लुप्त होने से बचाने का सबसे बढ़िया तरीका यह है कि, उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को सिखाया जाए।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

Kommentare


bottom of page