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जानिए कैसे अपना संघर्षपूर्ण जीवन जीतीं हैं ग्रामीण आदिवासी महिलाएं?

ऐसे तो सभी मनुष्यों का जीवन ही संघर्ष से भरा हुआ है। हम जितना अधिक तरक्की करते जा रहे हैं, उतना ही अधिक हमारा संघर्ष भी बढ़ता जा रहा है। एक सामान्य पुरूष की तुलना में एक महिला का संघर्ष दुगुना है, और अगर वह महिला गाँव में रहती है फ़िर तो उनका संघर्ष पुरुष की तुलना में तीन गुना से चार गुना हो जाता है। एक ग्रामीण आदिवासी महिला न सिर्फ़ अपने घर का चूल्हा-चौका संभालती है, बल्कि बाहर से दो पैसा कमा कर लाने की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं की होती है।

छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले की लहुरा बाई कहती है कि "अक्सर गाँव में रोजगार की कमी रहती है। हमें बस अपने आसपास मिलने वाले संसाधनों का उपयोग कर के उसी से अपना गुजारा करना पड़ता है। समय-समय पर जंगल से मिलने वाले फल-फूल-पत्तों को तोड़कर बेचते हैं, ताकि हमारा घर चल सके।"


वैसे तो गाँव में पुरुषों को घर-परिवार की धूरी माना जाता है लेकिन अगर सही मायने में कोई घर को संभालता है तो वो महिलाएं ही हैं। यह चिंतनीय है कि पुरुषों से ज्यादा संघर्ष कर के अपने जिम्मेदारियों का सही से निर्वाहन करने के बाउजूद महिलाओं को कम सम्मान मिलता है और उनका हक़ भी उन्हें नहीं दिया जाता है।

एक ग्रामीण आदिवासी महिला सुबह चार-पांच बजे ही उठकर जानवरों को बाहर निकालती है, घर पर झाडू-पोंछा लगाती है, आँगन की लिपाई करती है, भोजन पानी की व्यवस्था करती है, यदि बच्चे हों तो उन्हें तैयार करती है। उसके बाद खेती-बाड़ी में पुरुष से कंधा मिलाकर खेती का काम भी करती है। जब खेती का कार्य नहीं रहता है, तब महिलाएं मनरेगा के तहत मिलने वाले कामों में मज़दूरी करने भी जाती हैं। तालाब का मिट्टी खोदना हो या पुलिया आदि का निर्माण करना हो, सभी में महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं और पुरुषों से ज्यादा कार्य करती हैं। पुरुष तो सिर्फ़ बाहर का कार्य ही करते हैं जबकि महिलाएं बाहर तो कार्य करते ही हैं साथ ही साथ घर भी संभालती हैं। भोजन पकाने के लिए यदि जंगल से लकड़ी लाना हो तो वह भी वे तीन-चार किलोमीटर पैदल चलकर जलावन लेकर आती हैं।


आदिवासी महिलाएं तन मन धन से अपने परिवार की सेवा में दिन भर लगी रहती हैं, फ़िर भी मेहनत करने का श्रेय पुरुष ले जाते हैं और उनकी ही कर्मठता की वाहवाही होती है। महिलाओं को न उचित श्रेय मील पाता है न सम्मान, कई आदिवासी समुदायों में मौजूद इस सोच को बदलने की आवश्यकता है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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