हमारे जीवन में कई चीज़ों का महत्व है जिसमें से हमारा पर्यावरण सबसे महत्वपूर्ण है। आदि काल से जंगलों के साथ जीवन का संबंध निभाने वाले आदिवासी अपने पारम्परिक रूप से पेड़ - पौधों की पूजा करते आ रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों को बचा रहे हैं। यही कारण है कि वे प्रकृति के पुजारी भी कहलाते हैं। जल जंगल और ज़मीन को अपने रीति-रिवाजों में भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासी बिना किसी दिखावे के जंगलों और स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए आज भी प्रयासरत हैं।
आदिवासियों की अनेकों परंपराएं पेड़ पौधों से जुड़ी हुई हैं, आदिवासी गोंड लोग नवाखाई के पर्व में साहजा पेड़ की पूजा करते हैं और अपने पूरे परिवार के साथ कोरिया पेड़ के पत्ते से भोजन व प्रसाद ग्रहण करते हैं। उस दिन वह उसी पत्ते से ही धान के नए चावल का खाना खाते हैं। शादी समाज का एक महत्वपूर्ण संस्कार है और पीढ़ी दर पीढ़ी सभ्य समाज के लोगों को इन परंपराओं से गुजरना होता है। उसी प्रकार, महुआ, आम, डूमर, नीम, पीपल, बरगद आदि इन सभी पेड़ों की पूजा करते हैं आदिवासी लोग। आदिवासियों के कोया वंशीय गोंड सगा समाज में कुल 750 गोत्र हैं, उन प्रत्येक गोत्र के लिए एक पशु, एक पक्षी तथा एक पेड़ चिन्हों के रूप में निश्चित कर दिया गया है, प्रत्येक कुल गोत्र धारक का कुल चिन्ह है, वह उनकी पूजा और रक्षा करते हैं। आदिवासियों की धार्मिक आस्था को पर्यावरण के साथ जोड़ दिये जाने से अनेकों बेहतर परिणाम सामने आये हैं।
कोरोना के आने से प्रकृति की महत्वता और अधिक बढ़ गई है, ऑक्सीजन की कमी के कारण होने वाली मौतों ने हमें पेड़-पौधों की कीमत का एहसास करवा दिया। अब यह ज़रूरी हो गया है कि हम सभी लोग अधिक से अधिक पौधारोपण करें एवं उनका संरक्षण करें ताकि हमें उनसे फल - फूल एवं छाया के अलावा भरपूर शुद्ध ऑक्सीजन भी मिल सके।
इसके अलावा हमें ऐसे पौधे भी लगाने चाहिए जिससे मनुष्य के शरीर का प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़े। कोरोना के पिछले 2 वर्ष, पर्यावरण की दृष्टि से अभी तक के पृथ्वी के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं, क्योंकि इन 2 वर्षों में जिस तरह से पर्यावरण को सुरक्षा मिली है, ऐसी सुरक्षा मानव जाति इससे पहले कभी प्रकृति को प्रदान नहीं कर पाई थी। लॉकडाउन की वजह से उद्योग की रफ्तार पर ब्रेक लगा और यह पर्यावरण के लिए काफ़ी फायदेमंद हुआ।
प्रकृति को बचाने के लिए सिर्फ़ एक अकेला व्यक्ति काफ़ी नहीं है, ऐसे में हम सबको मिलकर कुछ संकल्प लेने होंगे, जिनसे हम अपने पर्यावरण को फिर से हरा भरा कर सकें। हर किसी को वर्ष में कम से कम 2 से 3 बार एक पौधा ज़रूर लगाना चाहिए और उनकी देखरेख भी करनी चाहिए। साथ ही संकल्प भी लेना चाहिए कि अपनी नदी, तालाबों और पोखर को प्रदूषित नहीं करेंगे। इसके अलावा कूड़े कचरे को कहीं भी फेंकने की जगह पर उसे एक कूड़ेदान में ही डालेंगे ताकि पर्यावरण की रक्षा हो पाए।
कई शिक्षित लोग ज़्यादातर इसी मानसिकता में रहते हैं कि जंगलों में रहने वाले आदिवासी समाज में ना तो जीने का ढंग है और न ही शिक्षा लेकिन वही शिक्षित लोग यह भूल जाते हैं कि यही आदिवासी सैकड़ों सालों से जंगलों में रहते हुए, अपनी परम्पराओं से पर्यावरण को बचाते हुए आ रहे हैं। वन संरक्षण में सबसे बड़ा योगदान आदिवासियों का है, जो परंपराओं को निभाते हुए शादी से लेकर हर शुभ कार्यों में पेड़ों को साक्षी बनाते हैं। पूरी दुनिया को प्रकृति के सरंक्षण के तरीके आदिवासियों से सीखने की ज़रूरत है।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l
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