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Writer's pictureSadharan Binjhwar

आदिवासी किसी भी चीज़ के लिए दूसरों पर आश्रित नहीं रहते, स्वयं कर लेते हैं उत्पादन

प्राचीन काल से आदिवासी आत्मनिर्भर रहे हैं। आजीविका के सभी संसाधनों का इंतजाम वे खुद कर लेते हैं। आज के दौर में लोग खाने, पहनने एवं रहने जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी बाज़ार पर ही निर्भर हैं, लेकिन आदिवासी समुदाय हमेशा से स्वालंबी रहे हैं।


कृषि और पशुपालन के जरिये खाने का इंतजाम करना हो, बुनाई कर कपड़े बनाना हो, परंपरागत तरीके से घर बनाना हो या लकड़ियों से खुद का फर्नीचर आदि बनाना हो, मूलभूत सभी ज़रूरी चीज़ों की पूर्ति आदिवासी स्वयं से ही करते आये हैं। जीवन जीने को लेकर आदिवासियों का ज्ञान भण्डार सबसे अनोखा और अद्भुत है।


छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला के ग्राम रिंगानिया निवासी एक बुज़ुर्ग, श्री सुंदर साय जी बताते हैं कि, पहले दुकान और बाज़ार न के बराबर थे, जिससे उन्हें राशन आदि का सामानआसानी से मिल नहीं पाता ऊपर से कीमत इतनी होती कि खरीद कर गुज़ारा कर पाना संभव नहीं था। सुंदर जी कृषक हैं और साल भर के खाने का अनाज(गेहूँ या चावल) वे अपने खेतों से ही उपजा लेते हैं। ज्यादातर सब्जियों का तत्काल ही इस्तेमाल करना होता है, लेकिन सुन्दर जी अनेकों सब्जियों को धूप में सुखा दिया करते हैं, जिससे इनका इस्तेमाल बाद में भी किया जा सके। ऐसा अनेकों आदिवासी घरों में होता है।


लगभग सभी आदिवासी घरों में बाड़ी (किचन गार्डन) होता है, जहाँ मौसम के अनुसार साग-सब्ज़ियां उगाई जाती हैं। इन सब्जियों का उपयोग खाने के अलावा बेचने में भी किया जाता है, अपने बाड़ी पर सब्जियां उगा कर बेचने से एक प्रकार का रोज़गार भी हो जाता है।

अपने फसलों की देखभाल करता किसान

सुंदर जी कहते हैं कि "पहले सिर्फ़ बरबट्टी, डोडका, तोरई, तुमा(लौकी), बतरिया(मखना), रखीया(कोंहड़ा) आदि ही उगाते थे, परंतु अब टमाटर, आलू एवं गोभी भी लगाने लगे हैं। कई प्रकार के साग भी लगाते हैं, जैसे:- सरसों, भतुआ, बर्रा आदि। हमारे खेती करने का तरीका भी पुराना एवं प्राकृतिक है, आधुनिक एवं कृत्रिम तरीके से हम खेती नहीं करते, जिसकी वजह से भूमि उपजाऊ बनी रहती है, पारंपरिक तरीके से की गई कृषि में पर्यावरण को नुक़सान नहीं होता।"


आदिवासी लोग मसालों की भी खेती खुद से कर लेते हैं। धनिया, हल्दी, मिर्च आदि को उगाकर उन्हें सूखने दिया जाता है, फ़िर उसका पाउडर बनाकर इस्तेमाल किया जाता है।


आदिवासी अनाज, सब्ज़ी और मसालों की तरह दलहन और तिलहन की कृषि भी स्वयं ही करते हैं। रवि फसल के रूप में इनकी खेती जोरों से होती है। दलहन में उड़द, राहर(अरहर), हिरुआ आदि दालों के खेती की जाती है, एवं साल भर इनका इस्तेमाल किया जाता है। तिलहन के रूप में तिल एवं सरसों के खेती जोरों से होती है। इसके अलावा कुछ जंगली फलों के बीज का भी तेल निकालकर इस्तेमाल किया जाता रहा है, जैसे- नीम, कुसुम, महुआ आदि।

खेत में लगे सरसों के साग

आदिवासियों को सिर्फ़ नमक खरीदने की ही आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा वे बाक़ी सभी चीज़ें अपने से उगा लेते हैं।

औधीगीकरण के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है, यही वजह है कि प्रकृति के साथ तालमेल बना के जीने वाले आदिवासियों को भी अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

दुनिया को बनाए रखने के लिए हमें आदिवासियों के ज्ञान की सख़्त ज़रूरत है, इसीलिए हर स्तर पर उन्हें उनके तरीके से जीवन जीने का बढ़ावा दिया जाना चाहिए।


यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अन्तर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है l


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