मनोज कुजूर द्वारा संपादित
प्राचीन काल से ही आदिवासियों के घरों में अनेकों स्वनिर्मित वस्तु देखने को मिल जाता है, जिसमें से अधिकतर वस्तुओं का निर्माण महिलाएँ ही करती हैं। कुछ वस्तुओं का निर्माण पुरुषों द्वारा किए जाते हैं।
आदिवासियों के घरों में कई तरह के उपयोगी सामान होते है, जिनके बिना कार्य संभव ही नहीं हैं जिसमें झाड़ू भी एक घरेलू वस्तु है। जिसके बिना घर की सफाई अधूरी रह जाती है। आदिवासियों के घरों के अधिकतर वस्तुएँ स्वनिर्मित होते हैं। गाँवों में स्वनिर्मित वस्तुओं का उपयोग प्रायः अधिक होता है। जिससे पैसे की बचत होती है।
प्राचीन काल में आदिवासियों के पास पैसों की कमी ने हस्तनिर्मित वस्तु के निर्माण को ज्यादा प्रोत्साहित किया है। आधुनिक उपकरण भी इन वस्तुओं का स्थान नहीं ले सका है। अभी भी इन वस्तुओं की मांग और उपयोगीता बरकारा है। यही वजह है कि आज वर्तमान में भी ग्रामीण आदिवासीयों द्वारा स्वयं 'बाहरी' झाड़ू का निर्माण किया जाता रहा हैं। आदिवासी इन्हे बाहरी के नाम से जानते हैं। एवम बाजार में इसे झाड़ू के नाम से जाना जाता है।
आइए जानते कि घर को झाड़ू लगाने के काम में आने वाला वस्तु बाहरी (झाड़ू) को किस प्रकार बनाया जाता है।
झाडू को बनाना बहुत ही आसान है। इसे कोई भी आसानी से सीख कर अपने घर के लिए स्वयं झाडू का निर्माण कर सकता है। इसे बनाने के लिए जंगलों में, जहाँ मैदानी इलाका होता है, वहाँ एक अलग प्रकार का घास पाया जाता है। जिसे सबसे पहले काटकर कर ले आते हैं। यदि घास सुखा हो तो उसे तुरंत झाडू नहीं बनाया जा सकता परंतु यदि घास हरा है, सुखा नहीं है, तो उससेे तुरंत झाडू बनाया जा सकता है, क्योंकि यह लचीला होता है। जिससे इसे मोड़ने पर नहीं टूटता है। किन्तु सूखे घास को मोड़ने पर यह टूट जायेगा।
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सूखे घास को काटकर घर लाने के पश्चात उसे पानी में भिगोया जाता है। ताकि यह लचीला हो सके। जिससे यह मोड़ने पर न टूटे। उसे पूरी तरह भिगोने के पश्चात उसे गाँथने का कार्य किया जाता है, इसे एक लाइन में गाँथा जाता है, और हमें जितना मोटा झाडू बनाना है उसी के मुताबिक़ लम्बाई में गंथ लिया जाता है। इसे गाँथने के पश्चात् इसे बेलन की तरह मोड़ दिया जाता है और यह वापस न खुले इसके लिए उसे रस्सी से बांध दिया जाता है। इस प्रकार हमारा झाडू बनकर तैयार हो जाता है। तत्पश्चात उसे सूखा दिया जाता है। ताकि भिगाने के लिए जो पानी इस्तेमाल किया गया था वह सूख जाए।
जब यह झाडू बनकर तैयार हो जाता है, तो इसे बेचा भी जा सकता है। अलग-अलग जगहों में इसका मूल्य अलग-अलग होता है। सामान्यता इसका मूल्य 30-60 रुपये के बीच होता है। शहरी क्षेत्रों इसका मूल्य अधिक भी हो सकता है।
ग्रामीण आदिवासियों के पास अनेक प्रकार के कला होते हैं, जिससे वे अनेकों चीजों का निर्माण करते हैं, और उनमें से कुछ स्वनिर्मित वस्तुओं बेचकर आय भी प्राप्त कर लेते हैं। जिससे उनके छोटी छोटी जरूरतों की पूर्ति हो जाती है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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