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क्या होली जैसे त्योहारों को मना कर, युवा आदिवासी हो रहे हैं अपनी संस्कृति से दूर?

एक गांव में 2 लड़के एक लड़की को तेज़ी से दौड़ा रहे हैं, उनके हाथों में रंग है और उनके चेहरे भी रंगे हुए हैं, पीछे उनके दोस्त कुछ लड़कियों के साथ खड़े हैं और चिल्ला रहे हैं "पकड़-पकड़ यही मौका है” और लड़कियां चिल्ला रही हैं "भाग-भाग, भागकर छुप जा" पर वह लड़की भाग नहीं पाती है, वे लड़के उसे दबोच कर पहले उसके मुंह पर रंग पोतते हैं, बालों को खोलकर उसे रंगों से भर देते हैं और उसके कपड़ों के अंदर हाथ डाल कर उसके निजी अंगों पर रंग डालने का दिखावा करते हैं। और दांत दिखाते हुए "होली है !" चिल्लाते- चिल्लाते वापिस अपने दोस्तों के तरफ़ लौटते हैं। वह लड़की वहीं बैठ कर रोने लगती है।


एक दूसरे गांव में चार-पांच लड़के एक घर से एक लड़के को जबरदस्ती उसके हाथ पैर पकड़ कर निकालते हैं, और उसे सड़क पर लिटाते हैं और फ़िर उसके कपड़े यहाँ-वहाँ फाड़ कर, रंग और गोबर से भरी बाल्टी भर पानी उस पर उड़ेल देते हैं। यह करने के बाद सभी लड़के झूमते हुए चिल्लाते हैं "बुरा न मानो होली है !" वह लड़का अपने फटे कपड़ों को संभालते हुए अंधाधुंध गाली देते रहता है, जो किसी तक नहीं पहुंचती है।

प्रतीकात्मक छवि (स्रोत-यूथ की आवाज़)

यह दोनों घटनाएं होली के हैं और यह किसी दूसरे राज्यों की नहीं, झारखंड के दो आदिवासी गांव की घटनाएं हैं। फिल्में देखकर, गाने सुनकर और शहरों में रहने वाले गैर आदिवासियों को देखकर आजकल आदिवासी युवक-युवती भी होली खेल रहे हैं। होली खेलना किसे कहते हैं? यह उन्हें नहीं पता है, उन्हें बस इतना पता है कि इस दिन दोस्तों को जबरदस्ती रंग लगाना है वह भी इस तरह से कि छूटे न। लड़के इस ताक में रहते हैं कि किसी लड़की को रंग लगाने का मौका मिले और वे रंग लगाने के बहाने उसे यहाँ-वहाँ छुएं। साथ ही साथ दारू पीकर फूहड़ गीतों पर नाच-गान करना ही आदिवासियों के लिए होली मनाना है। कमोबेश आजकल सभी आदिवासी गांव में इसी तरह होली मनाए जाते हैं, खासकर उन गांव में जो शहरों से थोड़े सटे हुए हैं।


पर क्या यह सब आदिवासियों की परंपरा रही है? क्या उन्हें होली क्यों मनाते हैं, यह पता है?

जवाब है - नहीं !

आदिवासी संस्कृति में कभी होली का त्यौहार पारम्परिक रूप से रहा ही नहीं है, यह सब वे गैर आदिवासियों से, खासकर शहर में रहने वाले लोगों से देखकर सीखे हैं। वे इस त्यौहार के मूल स्वरूप को नहीं जानते हैं, वे बस इतना जानते हैं कि रंग लगाना होता है।

राह चलती युवतियों को रंग लगाते युवक (स्रोत- @manojmuntashir/ Twitter)

यदि कोई त्यौहार फूहड़ता के लिए बदनाम है तो वह होली ही है। और यही फूहड़ता अब धीरे-धीरे आदिवासी गांवों में प्रवेश कर रही है। फूहड़पन, अश्लीलता, अनैतिकता जैसे शब्द सुनने-पढ़ने में अच्छे नहीं लगते लेकिन जिन हरकतों को हम इन शब्दों से संबोधित करते हैं, लड़के उन हरकतों को होली में करने का प्रयत्न ज़रूर करते हैं, चाहे वह दोस्तों के दबाव में हो या स्वयं की इच्छा से पर करते ज़रूर हैं। इन्हीं कारणों से आदिवासी युवक भी होली मनाने को आतुर रहते हैं और इन कारणों को हवा मिलती है फ़िल्मों और इस जैसे गानों से-

लहू मुहँ लग गया...

आज न छोड़ेंगे...

होली में तोके गुइया...

लहंगवा लस लस करता...


होली हिंदुओं का त्यौहार रहा है और वह भी उत्तर भारत के हिंदू ही ज्यादातर करके इसे मनाते आए हैं। होली विभिन्न प्रांतों में विभिन्न तरीकों से मनाई जाती है। होली को लेकर प्रचलित कथाएं भी भिन्न-भिन्न है, शैवों की अपनी कथा है, वैष्णवों की अपनी कथा है और राधा-कृष्ण से संबंधित अपनी कथाएं हैं। पर इनमें से किसी भी कथा से भारत के आदिवासी नहीं जुड़ पाते हैं। आदिवासियों के अपने रीति रिवाज, पर्व-त्यौहार, देवी-देवता, लोक कथा, यहाँ तक कि अपनी पूरी अलग संस्कृति ही रही है।

अपने मूल स्वरूप में होली एक अच्छा त्यौहार हो सकता है, लेकिन आदिवासियों के बीच इसकी फूहड़ता ही पहुंच रही है। अक़्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाता है कि होली एक भाईचारे का त्यौहार है, रंगों का त्यौहार है, पर आदिवासियों को किसी बाहरी त्यौहार से भाईचारे का संदेश देना सूरज को दिया दिखाने वाली बात होगी। आदिवासी तो सदियों से सामुदायिक जीवन व्यतीत करते आ रहे हैं, भाईचारा उनसे सीखने की ज़रूरत है, सिखाने की नहीं। जहाँ तक रंगों की बात है, तो एक बार उनके पहनावे और घरों को देखिए, प्रकृति के सभी रंग दिख जाएंगे।

अपने परंपराओं के साथ दूसरे की संस्कृति को अपनाना यह किसी का अपना निजी फैसला हो सकता है, लेकिन आदिवासियों में एक व्यक्ति का जीवन उनके पूरे समुदाय से जुड़ा हुआ रहता है, तो ऐसे में उन्हें ऐसी किसी भी संस्कृति को अपने जीवन में अपनाने से पहले अपने समुदाय से चर्चा ज़रूर कर लेनी चाहिए। ख़ुद आदिवासियों में त्यौहारों की कमी नहीं है और आदिवासी त्यौहार तो ज्यादा अच्छे तरीके से व्यक्ति को प्रकृति के क़रीब ले जाते हैं। लेकिन सदियों से कुछ तथाकथित उच्च वर्गों द्वारा बार-बार उन्हें हीनता का बोध कराते रहने से वे अपने को कमतर और दूसरों को श्रेष्ठ समझते आए हैं, बाहरी संस्कृति के प्रति रूझान का यह एक मुख्य कारण है।


यह आदिवासी चिंतकों, शोधकर्ताओं और लेखकों की ज़िम्मेदारी है कि वे आदिवासी रीति-रिवाजों और उनके पर्व - त्यौहारों के दर्शन का बढ़िया से शोध कर, दुनिया के सामने लाएं। आदिवासी नेताओं और समाज सेवकों को आदिवासियों के बीच चरणबद्ध तरीके से जागरूकता फैलाना चाहिए, तभी यह आदि जीवनशैली और यह आदि दर्शन किसी दूसरे के प्रभाव में ना आकर अपने अस्तित्व को बचाए रख पाएगा।


नोट:- यह लेखक के निजी विचार हैं।


लेखक परिचय:- प.सिंहभूम, झारखण्ड के रहने वाले नितेश कुमार महतो एक समाजसेवी हैं, विभिन्न सामाजिक संगठनों में वे अपना सहयोग देते हैं। आदिवासी दर्शन और उनकी जीवनशैली से प्रभावित होकर आदिवासियत को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

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