प्राचीनकाल से आज तक आदिवासी स्वयं के द्वारा निर्माण किए गए वस्तुओं का उपयोग करते दिखाई देते हैं। वे हमेशा से ही आत्मनिर्भर रहे हैं, वे अपने ज़रूरतों का सामान स्वयं निर्माण करते हैं। इन वस्तुओं के निर्माण हेतु उन्हें कठिन मेहनत करना पड़ता है तब जाकर वे अपने उपयोग हेतु वस्तुओं का निर्माण कर पाते हैं। ऐसा ही एक वस्तु है खपरा, ग्रामीण आदिवासी घरों का अभिन्न अंग है खपरा, लगभग सभी आदिवासी अपने घरों का छत बनाने के लिए खपरा का इस्तेमाल करते हैं।
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बहुत पहले से ही आदिवासी मिट्टी के घर में ही रहते आ रहे हैं। उससे भी पहले लोग छिंद के बने झोपड़ी में रहा करते थे। किंतु उसके उपरांत लोगों के जीवन में बदलाव आया और वे लकड़ी के दीवार का निर्माण करना शुरू कर दिए, उसके बाद और भी बदलाव आता गया एवं वे लकड़ी के दीवार में मिट्टी से छबाई कर देते थे, किंतु उसके पश्चात पत्थरों से दीवार का निर्माण शुरू हो गया और इसके साथ ही मिट्टी का दीवार बनना भी शुरू हो गया। फ़िर वे मिट्टी से चीरा (एक प्रकार का ईंट जिसे सांचा से एक घनाभ के आकार का बनाया जाता है और ऐसे पकाया नही जाता) बनाने लगे और उसे दीवार निर्माण में इस्तेमाल किया जाने लगा, जो आज भी किया जाता है। अभी भी कई आदिवासी गाँवों में मिट्टी और चीरा के ही दीवार देखने को मिलते हैं, बहुत कम ही मात्रा में पक्के मकान देखने को मिलते हैं।
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घर बनाने के लिए मात्र दीवार खड़ा करना नहीं होता है उसे छप्पर से ढकना भी होता है। अपने घरों को छाने के लिए आदिवासी स्वयं से खपरा का निर्माण करते हैं। ग्रामीण आदिवासीयों को खपरा बनाने के लिए कई तरह के क्रियाओं को करना पड़ता है और साथ ही कड़ी मेहनत भी करना पड़ता है। सबसे पहले उन्हें चाहिए होता है चिकनी मिट्टी, जो काला होता है। वे किसी जगह से काली मिट्टी को खोद कर घर ले आते हैं और उसके बड़े ढेलों को छोटे छोटे भागों में फोड़ दिया जाता है ताकि वह जल्दी से भींग जाएं। फिर घर के आंगन या कोठार में एक गड्ढा बनाया जाता है जिसमें मिट्टी को डाल दिया जाता है और उसमें उचित मात्रा में पानी डाला जाता है, ताकि वह जादा गीला न हो जाए। जब मिट्टी भींग जाती है तब उसे निकालकर अच्छे से आटे की तरह गूंथा जाता है, अंतर सिर्फ़ इतना है कि आटा को हाथों से गूंथा जाता है और इसे पैर से मिलाया जाता है। उसके बाद उसे एक मूर्ति की तरह खड़ा कर देते हैं, फ़िर धनुष की सहायता से एक छोटा टुकड़ा काट लिए जाता है और फ़िर उसे सांचा की सहायता से एक निश्चित आकार का काट लिया जाता है। उस खपरा का आकार देने के लिए एक ओर सांचा होता है जिसे बैल-घोड़ा कहा जाता है। पहले के सांचा से काटे गए आकार को दूसरे सांचा में रखकर उसे खपरा का आकार दिया जाता है। उसके बाद उसे सूखने के लिए छोड़ देते हैं। जब सारे खपरे सूख जाते हैं तो उन्हें पकाया जाता है। खपरा पकाने के लिए एक गड्ढा बनाया जाता है और उसमें सुखी लकड़ियों को जमा किया जाता है और उसके ऊपर खपरों को जमा करके उसके चारों तरफ से लकड़ी से ढक देते हैं, जब वह पक जाता है और आग बुझ जाता है तत्पश्चात उसे निकाल लेते हैं और फ़िर घर के छतों की छवाई की जाती है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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