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आदिवासियों के कमाई का अच्छा जरिया बन रहा है खरपतवार चरोटा

Jagmohan Binjhwar

छत्तीसगढ़ राज्य का वन श्रेत्र लगभग 59772 वर्ग किलोमीटर है, जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 44.2 प्रतिशत है। ग्रामीण तथा जंगल के किनारे क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों का जीवन मुख्य रूप से वनों में पाये जाने वाले वनोपज पर निर्भर होता है। यहाँ मुख्य रूप से तेन्दुपत्ता, महुआ, भेलवा, चार, बहेड़ा, हर्रा, चरोटा, इमली, धवई फूल, आँवला, साल बीज, आदि पाये जाते हैं।


चरोटा एकवर्षीय तथा द्विबीजपत्री पौधा है। जिसका वैज्ञानिक नाम केशिया टोरा है जो कि सीजल पिनेसी कुल का पौधा होता है। इसे और भी कई नामों से भी जाना जाता है, जैसे- चक्रवत, चकोड़ा, और चकवत, नाम शामिल हैं। छत्तीसगढ़ में यह पौधा पहले एक तरह की खरपतवार मानी जाती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग इसके पत्तों को भाजी की तरह बना कर खाते हैं। देखा जाये तो यह भारत के लगभग सभी राज्यों में पाया जाता है। इसके पौधे की लम्बाई करीब-करीब 30 से 40 सेमी. तक होती है, फली की लम्बाई 15 से 20 cm होती है, और एक फली में करीब 40 से 60 दाने होते हैं। इस सब के अलावा चरोटा को उगने के लिए अधिक मात्रा में पानी की जरूरत भी नहीं होती है। यह सड़क किनारे तथा पहाड़ियों पर बरसात के दिनों में आसानी से उग आते हैं।

लकड़ी से चरोटा को पीट पीट कर मिसाई किया जा रहा है

कई आदिवासियों के लिए यह चरोटा कमाई का साधन बना हुआ है, गरियाबंद जिले के ग्राम रिंगनियां निवासी मानसाय बिंझवार जी बताते हैं कि, उनके परिवार में सात सदस्य हैं, तीन बेटी एक बेटा, बहू, और उनके पत्नी। और ये सभी लोग इस समय चरोटा इक्कट्ठा करने में लगे हुये हैं। उन्होंने बताया कि "हम सुबह से ही लगभग 8 बजे खाना खा कर और दोपहर का खाना लिए, घर को ताला लगाकर चरोटा की खोज में जंगल की ओर निकल पड़ते हैं। और दिन भर चरोटा की लुआई हसिया से करते हैं। दोपहर को पानी की व्यवस्था देख भोजन कर लेते हैं, फिर लुआई करते हैं, और शाम होते-होते घर लौट हैं। अगली सुबह फिर वही कार्य दोहराते हैं, ऐसा करते हुए हमें लगभग एक महीना हो गया है, गुरुवार के दिन हम नहीं जाते हैं, क्योंकि इस दिन हमारे गाँव से 6 किलोमीटर दूर गुरसियां में बाज़ार लगता है, तो उस दिन सुबह से हम चरोटा की मिसाई करते हैं और बाज़ार में ले जाकर बेचते हैं। मैं एक छोटा किसान हुँ और कृषि कार्य के दौरान मुझे खेतों की जुताई, से लेकर फसल की कटाई तक काफ़ी खर्च उठाना पड़ता है, तब जाकर कहीं 30-40 हजार प्राप्त होता है। लेकिन चरोटा में बिना जुताई वगैराह किए ही 60 -70 हजार केवल एक महीना में ही प्राप्त कर लिया।


गाँव में रहने वाले बहुत से आदिवासी चरोटा से आमदनी प्राप्त कर रहें हैं। रोड किनारे रहने वाले आदिवासी लुआई करने के बाद चरोटा को रोड में डाल देते हैं, भारी वाहन के आने-जाने से उसके बीज अलग हो जाते हैं, और फ़िर उन्हें इकट्ठा करके बाज़ारों में ले जाते हैं।

सुखा हुआ चरोटा बीज

एक खबर के अनुसार सड़क किनारे तथा पहाड़ियों पर उगने वाले चरोटा का पौधा रायपुर के बाज़ारों में वर्तमान समय में 42 से 46 रुपए प्रति किलो की दर से बिक रहा है, जो की क्षेत्र में बिकने वाले एचएमटी चावल के बराबर है। इसके दामों को सुनकर आदिवासीयों का रुझान चरोटा बीज संग्रहण की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है। जानकारों की माने तो चरोटा बीज की मांग विदेशों में हो रही है, जिस कारण इसके बीजों के दामों में बढ़ोत्तरी हो रही है। व्यापारियों का कहना है कि गत वर्ष 30 से 32 रूपए प्रति किलो में बिकने वाले चरोटा बीज इस साल साढ़े चार हजार प्रति क्विंटल से भी ज्यादा में बिक रहा है, चरोटा को रायपुर और धमतरी के आस-पास के व्यापारी विदेशों में निर्यात करते हैं। जहाँ इसका उपयोग ग्रीन टी, आयुर्वेदिक दवाइयां, साबुन, चॉकलेट, कॉफ़ी बनाने में, आइसक्रीम, पशु चारा, आदि के रूप में किया जाता है।


चरोटा के बढ़ते मांग और इसके उपयोगिता के तथा अच्छे आमदनी के साधन को देखते हुए, आदिवासियों को इसकी बढ़िया से खेती करनी चाहिए।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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