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क्यों महत्वपूर्ण है कोडगार ग्राम के आदिवासियों के लिए सरना पूजा

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


गांव क्षेत्रों में कई तरह के त्यौहार मनाया जाते हैं और आदिवासियों के द्वारा ज्यादातर त्यौहार पेड़-पौधों से जुड़ी होती है। जिन्हें आदिवासी अपने देव के रूप में मानते हैं और उन्हीं पेड़-पौधों की आराधना कर गांव के हित और अच्छे फसल के लिए पूजा करवाते हैं। हम जिस त्यौहार के बारे में बात कर रहे हैं, वह गांव का सबसे आखरी त्यौहार माना जाता है और यह छोटे सरना के पूजा का त्यौहार है। और इस त्यौहार को वैशाख के माह में मनाया जाता है। आदिवासियों का मानना है कि, इस त्यौहार को मनाने से गांव के लोगों के फसल में बढ़ोतरी होती है और आदिवासियों के देवी-देवता गांव की रक्षा करते हैं। और इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए, लोग इस छोटे सरना पूजाई को गांव में बहुत ही ज्यादा महत्व देते हैं। गांव वालों का कहेना है कि, इस पूजा में गांव के लोग चंदा इकट्ठा कर बकरा की बलि देते हैं। ताकि, हमारे गांव की सुख, समृद्धि और शांति हमेशा बनी रहे।

सरना पुजाई के लिए कोठार में एकत्रित ग्रामीण

कोरबा जिला के अंतर्गत आने वाला कोडगार ग्राम जहां कई तरह के सरना पुजा की जाती है। जिसमें से यह सरना पुजा सबसे अंतिम पूजा माना गया है, गांव के एक व्यक्ति जिनका नाम नोहर लाल शोरठे है और जिनका उम्र 30 साल है, उन्होंने हमें इस सरना पुजाई के बारे में अवगत कराया। उन्होंने हमें बताएं कि, "यह जो सरना पुजाई है वह बहुत प्राचीन समय से चली आ रही है और यहां की प्राचीन मान्यता यह है कि, यहां फसल बहुत अधिक मात्रा में होती है और गांव में किसी भी तरह की कोई नुकसान देखने को नहीं मिलता है। बताया जाता है कि, पहले इस गांव में फसल बहुत कम मात्रा में हुआ करता था। फिर, फसल के बढ़ोतरी के लिए इस त्यौहार को मनाया जाने लगा। इस त्यौहार को मनाने का हमारा प्रमुख उद्देश्य रहता है कि, हम सभी अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न रखें और वही प्रकृति रूपी देवी-देवता, हमारे गांव की भी रक्षा करें। इस त्यौहार को गांव के लोग बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं। इसके लिए, पूरे गांव के लोग एक जगह इकट्ठे होते हैं। फिर, एक स्थान में फसल को इकट्ठा किया जाता है, जिसे गांव के लोग कोठार के नाम से जानते हैं। और उस जगह में, गांव के लोग इकट्ठा होकर बकरा की बलि देते हैं।"

नोहर लाल शोरठे

हम आदिवासी जिस तरह प्रकृति से जुड़े हुए हैं, उसी प्रकृति से प्राप्त फल-फूल से कुछ विशेष तरह के वस्तु का निर्माण करते हैं। प्रकृति से हमें तरह-तरह के फल-फूल प्राप्त होते ही हैं, जिससे आदिवासी विशेष प्रकार के खाद्य पदार्थ का निर्माण करते हैं और अपने दैनिक जीवन में उपयोग में लाते हैं। इसी तरह महुआ फूल का सबसे ज्यादा महत्व माना गया है। चाहे महुआ फूल से लाटा तैयार करना हो या लड्डू बनाना हो या मदिरा तैयार करना हो या उस महुआ फूल को सुखाकर बाजारों में बेचकर कुछ आमदनी कमाना हो।

कोठार में बकरा पुजाई करते हुए

आदिवासी समाज में महुआ रस को पीने के लिए उपयोग में लाया जाता है। लेकिन, साथ ही साथ महुआ फूल और महुआ रस का प्रयोग प्रकृति के पूजा में भी किया जाता है। आदिवासियों का कहना है कि, महुआ रस को हमारे सभी तरह के त्यौहारों में प्रयोग में लाते हैं।

पूजा में महुआ भेंट करते हुए

हमने गांव के ही एक व्यक्ति से सरना त्यौहार के बारे में चर्चा किया। उन्होंने कहा कि, आज भी इस सरना त्यौहार के बारे में लोग परिचित नहीं है। और आज भी ऐसे क्षेत्र हैं, जहां पुराने परंपरा और रीति-रिवाजाें को मानते आ रहे हैं। लेकिन, कई आदिवासी समुदाय अपने पुराने रीति-रिवाजों और अपने पुराने परंपराओं को भूलते चले जा रहे हैं। हम यह कह सकते हैं कि, समय के अनुसार लोगों के हाव-भाव व उनके विचारों में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। और आज आदिवासी इस रास्ते में खड़े हैं कि, वे अपने रीति-रिवाज और अपने परंपराओं को छोड़ नए तौर-तरीकों को अपनाने में लगे हुए हैं।

एक तरफ देखा जाए तो पूरे रीति-रिवाजों के द्वारा आदिवासी समुदाय अपने परंपराओं को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। और दूसरी ओर देखा जाए तो, वहीं कुछ आदिवासी समुदाय एवं लोग बदलती हुई विचारों को अपना रहे हैं। हम आदिवासियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि, हम प्रकृति में पैदा हुए हैं और हम प्रकृति के रखवाले हैं। प्रकृति और हम आदिवासियों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी स्थापित है, जिसके माध्यम से आज भी प्रकृति को हम अपनी जननी के रूप में मानते हैं। हम यह कह सकते हैं कि, प्रकृति हमारा सब कुछ है। प्रकृति के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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