छत्तीसगढ़ के आदिवासी चावल से बने बहुत से खाने की चीजें बना कर खाते रहते हैं, और ये सभी व्यंजन बड़े ही स्वादिष्ट होते हैं। इन्हीं अनेक व्यंजनों में से एक है आदिवासी मुरकु, इसे यहाँ के लोग बहुत ज्यादा पसंद करते हैं वे इसे चावल और बचे हुए भात से बनाते हैं।
आदिवासी इस मुरकु को नास्ते के रूप में भी खाते है। मुरकु बनाना बहुत ही आसान होता है इसे कोई भी आसानी से बना सकता है। यह मुरकु दो तरह से बनता है पहला भात से बनाने वाली मुरकु, जो ज्यादा आसान है तो वही चांवल के आटे से बनाने के लिए एक बार देखना जरूरी हो जाता है। पहले भात से बनने वाली मुरकु ज्यादा बनाते थे लेकिन अब तो उसको बनाने के लिए बर्तन आ गए हैं जिससे मुरकु बहुत अच्छा बनता है, और कई तरह के डिजाइन से बनाया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ में धान की खेती बहुत ज्यादा होती है इसलिए इसको धान का कटोरा भी कहा जाता है, यहाँ के ज्यादातर आदिवासी चावल खाते हैं, साथ ही चावल से बनी रोटियां एवं और भी बहुत सारी चीजें जो चावल से बनती है उनका उपयोग करते हैं। इसी चावल और उसके भात से बनने वाली स्वादिष्ट व्यंजन मुरकु को छत्तीसगढ़ के आदिवासी बड़े चाव से खाते हैं। आदिवासी घरों में चावल का बना भात खाने के बाद अक्सर बच जाता है जिसे बहुत लोग फेंक देते हैं तो कई लोग इसे सूखा कर बेचते हैं। इसके साथ ही बहुत आदिवासी इस भात का मुरकु भी बनाते हैं इस मुरकु को तेल में छानकर बनाया जाता है। जब कभी अधिक चावल बन जाता है तो वह बच जाता है जिसे आदिवासी बासी कहते हैं इस बासी में नमक और मिर्च को मिलाकर छोटे-छोटे गोल लड्डू की तरह बना कर सूखा दिया जाता है, जब यह पूरी तरह से सुख जाता है तो उस समय तेल में तलकर इसे खाते हैं, इससे बचे हुए चावल के बासी का उपयोग सही तरीके से हो जाता है।
जो लोग मुरकु बनाना नही जानते हैं वे लोग इसे सूखा कर बेच देते हैं जिससे उन्हें इसका फायदा मिल जाता है। वे इसके बदले कोई दूसरा समान खरीद लेते हैं। तो वहीं आज कल दूसरे तरीके से मुरकु बनाने वालों की संख्या बहुत है दूसरे तरीके से बनाने के लिए सबसे पहले चावल का आटा पिसवाना पड़ता है, उसे अपने हिसाब से पिसवा सकते हैं इसके बाद एक बर्तन में पानी गरम करना पड़ता है, पानी इतना गरम रहना है कि उबल जाए। उबलते पानी में चावल के आटा को डाला जाता है फिर उसमें जीरा, जलेबी रंग नमक, हल्का मिर्च करके आटे को चम्मच की सहायता से चलाना पड़ता है जब वह थोड़ा पक जाता है तो उसे हल्का ठंडा करके सांचों मुरकु से बनाया जाता है, और जब बन जाता है तो उसे धूप में अच्छी तरह से सूखा दिया जाता है। 2 दिन सुखाने के बाद इन मुरकुओं को प्लास्टिक आदि में बंद कर रख दिया जाता है ताकि हवा न लगे, हवा लगने से इनमें फफूंद आ जाता है और ये ख़राब हो जाते हैं।
जब ग्राम झोरा की अशोक बाई का कहना है कि "पहले मैं चावल के आटे से मुरकु बनाना नहीं जानती थी, गांव के ही कुछ महिलाएं बनाती थी जिसे मैं देखी तो उनसे कहा कि हमारे घर आकर दो दिन बनाकर सिखा दो तो उन्होंने मुझे हमारे घर आकर सिखाया फिर मैं भी जान गई तो अब मैं बरसात भर के लिए बना कर रख ली हूँ, जब सुबह-सुबह खेत जाएंगे तो इसे नास्ते बना कर खाएंगे और जब खेत गए रहेंगे तो खेती करवाने गांव के मजदूर लेकर जाते है तो उनके लिए भी दोपहर में नास्ता पकड़कर जाना पड़ता है उसमें भी काम आएगा, नहीं तो यही चीज़ दुकान से खरीदने पड़ते और खेती के समय तो पैसे की भी कमी रहती है जिससे कुछ पैसे बच जाएंगे।"
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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