मनोज कुजूर द्वारा सम्पादित
पितर पक्ष के बारे में तो लगभग सभी जानते हैं। ये पितर मनाने के प्रकिया तो पूर्वजों से चली आ रही है। इस पितर पक्ष में पितरों के लिए उड़द की, बड़ी उड़द की दाल सहित बहुत सारे पकवान बनाये जाते हैं। पितरों की पसंदीदा चीजें भी बनाई जाती हैं। और जब इनके जाने का समय होता है, तो इन्हें बहुत सारी सामानों के साथ बिदाई भी करते हैं। पितरों को अगर कोई चीज नहीं मिलती है, तो वे घर के लोगों को बहुत परेशान भी करते हैं।
हिंदी के कुंवार महीने में होने वाली इस पितर को छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुत अच्छे से मनाते हैं। आइये जानते हैं आखिर इस पितर में क्या-क्या होता है। सबसे पहले तो घर का कोई भी सदस्य सुबह-सुबह घर के आंगन-द्वार को गोबर से लिपाई करता है।और लिपाई के बाद कोई भी फूल और चाँवल को उस लिपाई में डालते हैं। फिर द्वार में कांसे के लोटे में पानी डाल कर लोटे में सराई का दातुन भी रख देते हैं। लोटे में पानी के साथ दातुन पितरों के लिए रखा जाता है। खास बात यह होती है कि, पितरों को खाना-पीना भी सराई के पत्तों में दिया जाता है। सराई के पत्तों से दोना-पत्तल बनाया जाता है जिसमें पितरों को खाना देते हैं।
पितरों के खाने के लिए चाँवल कोई भी ले सकते है। लेकिन, दाल के लिए सबसे ज्यादा उडद और रहर दाल का उपयोग करते है। और इन दालों के साथ तरोई को भी डाला जाता हैं। जिससे इस दाल का स्वाद और भी बढ़ जाता है। इसके साथ ही उडद की रोटी भी बनाते है जिसे बड़ा कहते हैं। अगर बात की जाय पितरों के लिए सब्जी की तो सब्जी में अक्सर तरोई की सब्जी, साथ ही मछली की भी सब्जियां लगभग सभी के घरों में बनते हैं। पितरों को हुमन के माध्यम से सब्जी बनाने वाले तरोई के पत्तों में दी जाती है।
रखनी होती है इन बातों का ध्यान नहीं तो हो सकता है अमंगल
पितरों को हुमन देते समय यह ध्यान देना अतिआवश्यक है कि, हुमन अच्छे से अँगीठी में जल गयी है या नहीं। कभी कभी यह होता है कि हुमन देने के बाद आग बुझ जाती है। जिससे उनमें कीड़े पड़ने की संभावना रहती है। क्योंकि पितरों को उड़द का बड़ा और मछली का हुमन देते है। ये ऐसी चीजें हैं, जो गलत तरीके से रहे तो उनमें कीड़े पड़ जाते है। इस हुमन को रोज विसर्जन भी नहीं कर सकते हैं। इस हुमन को पितर के शुरुआत से लेकर पितर के बिदाई तक आखिरी में विसर्जन करते है। इसलिए हर दिन के हुमन को एक जगह किसी पात्र में एकत्रित करते हैं। इस दौरान मछली या बड़ा की वजह से उसमे कीड़े पड़ सकते हैं। यदि ऐसा होता है, तो उसे बहुत अमंगल समझा जाता है। फिर उस घर के लोगों को इस बात की जानकारी अपने गांव और समाजो को भी देनी पड़ती है। ऐसा कहा जाता है कि ऐसी बात छुपाने पर और भी ज्यादा समस्या पैदा हो सकती है। इसके शुद्धिकरण के लिए गांव-समाज को एक बकरा देना पड़ता हैं। साथ ही समाज को एक बैठक खाना भी खिलाना पड़ता है। जिसमें बहुत ज्यादा पैसा लग जाता है, जिसे तत्काल जुगाड़ करना आम आदमी के लिए मुश्किल हो जाता है।
ऐसि परिस्थिति जिस घर में भी हो जाता है, उस घर के सभी पुरूष लोगों को मुंडन भी कराना पड़ता है। एक तरह से कहा जाय तो दशगात्र का कार्य कराना पड़ जाता है। जोकि सामान्य रूप से बहुत बड़ा काम हो जाता है। जिसमें गांवों के साथ समाजिक सदस्यों को भी शामिल होना पड़ता है।
इसके संबंध में जब पूछा तो पता चला कि पहले की अपेक्षा अब कुछ बदलाव भी हो गए। ग्राम पंचायत डोंगरी के अर्जुन सिंह का कहना है कि पहले दाल को नदी या तालाब में जाकर ही धोते थे। इस दाल को धोने जाते समय तरोई के पत्तो को ढककर ले जाते थे। इस प्रकार दाल या चाँवल को धोते समय मछलियों को खाना मिल जाता था। जिसे मछलियां खाती थी, तो समझ लिया जाता था कि, पितरों को खाना मिल गया। अभी भी कुछ जगहों में ये परंपरा जिंदा है। लेकिन, पहले की अपेक्षा बहुत कम ही लोग ऐसा करते है। अब तो हर घर मे पानी की सुविधा हो गयी है नदी तालाबों में नहाने बहुत कम लोग ही जाते हैं। अब तो घर में ही उड़द की दाल और चाँवल को धो लेते हैं, जो कि एक बदलाव ही है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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