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आइए जानें आदिवासी कंवर समाज में देह-संस्करण कैसे होता है?

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


मृत्यु एक कड़वी सचाई है, और इसे सभी को स्वीकार करना पड़ता है। जो इस संसार में जन्म लिए हैं, उनका समय पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त होतें हैं। इस संसार में जो पैदा होता है, उसको एक-न-एक दिन इस संसार को छोड़कर जाना ही पड़ता है, फिर चाहे वह पेड़-पौधा हो या जीव-जंतु। जब इंसान की मृत्यु होती है, तब उस इंसान का मृत्यु-संस्करण, अपने समाज के पुरखों से चले आ रहे रीति-रिवाज के द्वारा सम्पन्न होता है।


आज हम जानेंगे कि आदिवासी कंवर समाज में जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तब कैसे रीति-रिवाज के साथ पूरे प्रक्रिया को संपन्न किया जाता है। कंवर समाज में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो उस परिवार के लोगों द्वारा जोर-जोर से रो कर और मृत व्यक्ति की बातों को याद करके दुखी होने की भावना व्यक्त किया जाता है। और कुछ मृत व्यक्ति के सगे-सम्बन्धियों को शोक संदेश देकर कफन ओढ़ने और मिट्टी में दफनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। इस कार्य में इस समाज के अन्य गोत्र के व्यक्तियों द्वारा यह कार्य संपन्न कराया जाता है, जिसे इस समाज में कुटुम् के नाम से जाना जाता है।


वही लोग इस कार्य को संपन्न कराते एवं इस गोत्र के लोगों द्वारा मृत शरीर को नए कपड़े पहनाने और उसमें हल्दी तेल लगा कर तैयार कराना और श्मशान घाट तक ले जाने के लिए चारपाई या बांस के रथ बनाए जाने का कार्य करते हैं। और उस मृत व्यक्ति की इस्तेमाल की सभी समान, थोड़ी-थोड़ी मात्रा में इकट्ठा करते हैं। जो वह अपने दैनिक जीवन में उपयोग करता था। परिवार के सभी व्यक्ति द्वारा उसे घर पर ही कफन से ढका जाता है, और परिवार की महिलाओं द्वारा मृत व्यक्ति को आखरी बार पानी पिलाया जाता है, हालांकि मृत व्यक्ति पानी नहीं पीता पर यह इनका परंपरागत रिवाज है।


और वहीं पर थोड़ा-थोड़ा करके मिट्टी उसके ऊपर डाल दिया जाता है, क्योंकि महिलाओं को श्मशान घाट पर जाना प्रतिबंधित होता है। और उस लाश को चार व्यक्तियों के कंधो के सहारे शमशान घाट ले जाया जाता है। यहां पर गड्डा खोदकर वही प्रक्रिया दोबारा चलता है। दूर-दूर गांव से आए रिश्तेदार व गांव के आये गैर-आदिवासियों द्वारा, फिर से उसे पानी पिलाया जाता है।


उसके बाद उस गड्ढे में गोबर का घोल डाला जाता है, साथ ही उसमें कुछ बेल की पत्तियां और सिक्के डाले जाते हैं। उसके बाद उसमें उस लाश को उतारकर, वहां पर मौजूद सभी व्यक्तियों द्वारा थोड़े-थोड़े करके मिट्टी डाल दिया जाता है। उस मिट्टी में दफन करने के पश्चात उसमें एक खास घास, जो काशी-घास के समरूप दिखाई देता है, जिसे उरई के नाम से जाना जाता है। उसे दफन किए गए मिट्टी के ऊपर रख दिया जाता है और उसके एक भाग को महिलाओं को दिया जाता है। जिसे तालाब के घाट किनारे पर नहाने के स्थान पर मिट्टी या पत्थर के सहारे गोल घेरा बनाकर, उसे बीच में रख देते हैं। और हर रोज उसमें चावल, दाल, बिस्कुट और रोटी जैसे खाने की वस्तु और पानी अर्पण करते हैं। और आखिर के दिन उसे तालाब में विसर्जन कर दिया जाता है। यदि किसी महिला की मृत्यु हुई हो तो 9 दिन और अगर पुरुष की मृत्यु हुई हो तो 10 दिन तक यह प्रक्रिया चलती है।

रोते हुए तालाब में नहाने जाती महिलाएं

इस पुरे प्रक्रिया में 2 दिन मुख्य होता है, तीसरा दिन जिसे तिजवा के नाम से जाना जाता है और आखिरी दिन जिसे बड़की नहावन के नाम से जाना जाता है। इस बीच इन रीति-रिवाज में छुआछूत की भावना रहती है। जैसे कि कोई भी मृत परिवार के व्यक्ति के लोग रसोई घर के भीतर प्रवेश नहीं करते और कोई भी पानी या खाना अपने हाथों से निकाल कर वहां से नहीं खा सकते हैं। और न ही कोई भी व्यक्ति नहाने के वक्त साबुन, सर्फ व तेल का उपयोग करते हैं। तिजवा के दिन पुरुष वर्ग के छोटे एवं बड़े सभी को मुंडन करवाना होता है।

मुंडन करवाते हुए

इसमें परिवार के कुछ बड़े-बुजुर्ग बचे रहते हैं, उसके बाद इसी समाज के अन्य गोत्र वाले, जिसे कुटुम के नाम से जाना जाता है, महिलाओं को तालाब में नहलाने लेकर जाते हैं। तिजवा के दिन तलाब में सभी महिलाओं को मिट्टी के घोल से उनके सिर पर डालकर मिसाई करते हैं। इसी प्रकार उनके घर आने के बाद पुरुष वर्ग भी आते हैं और उनके साथ भी यही प्रक्रिया दोहराई जाती है। सब स्नान करके आने के बाद, घर के आंगन में चावल के आटे से चौक बनाया जाता है। बीच में कांसा लोटे के ऊपर आम के पत्ते डाल करके कलश दीप जलाए जाते हैं।

सर में तेल लगाने की प्रक्रिया

उसके बाद मुंडन हुए सभी व्यक्ति को, इसी जाति के अन्य गोत्र के लोगों द्वारा सिर् पर तेल लगाया जाता है। यह प्रक्रिया महिला एवं पुरुष वर्ग दोनों के ऊपर लागू होते हैं। उसके बाद जो इस कार्य में सम्मिलित हुए रहते हैं, वे पवित्र हो जाते हैं। और अपने हाथों से खाना एवं पानी, रसोईया से निकाल सकते हैं साथ ही तेल, साबुन लगा सकते हैं। और कहीं भी आ-जा सकते हैं। परंतु घर के कुछ बड़े-बुजुर्ग बड़े नहावन (दशगात्र) के दिन मुंडन होने के लिए बचे रहते हैं, उन्हें आखिरी के दिन पर उनके साथ में ये सारी प्रक्रिया चलती है। लेकिन महिलाओं के साथ तालाब में इस दिन और भी प्रक्रिया होती है, जैसे अगर कोई विधवा होती है, तो नाई के द्वारा उसके मांग से सिंदूर मिटाना और उसके हांथ से चूड़ियां तोड़ना होता है। इसी नौ से दस दिन के बीच में मरे हुए व्यक्ति के लिए मठ स्मृति चिन्ह बनाया जाता है।

स्मृति चिन्ह (मठ) बनाते हुए लोग

इस मठ को लेकर समाज में एक नियम है, यदि किसी पहले से मृत व्यक्ति का मठ नही बना और उसे इस काम के बीच बनाना चाहते हैं या उसे बाद में बनाते हैं, तो उस समाज के लोगो द्वारा खान-पान संबंधी दंड दिया जाता है। दंड में बकरा मार कर के समाज को खिलाना प्रमुख है, परन्तु यह दशगात्र होने के बाद खिलाया जाता है। लेकिन अब कहीं-कहीं पर उसके जगह में, मिठाई खिलाने का प्रावधान हो गया है। यह कार्य मृत व्यक्ति के भांजा-भांजी को दान के साथ खत्म होता है।

दान करते हुए

जिसमें उनके पैरों को दूध से धोना व चावल से चंदन लगाना, और दान में दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले वस्तु जैसे कपड़ा, चप्पल, पैसे, छतरी, चारपाई, छोटी-छोटी बर्तन, चावल, दाल, सब्जी, हल्दी, मिर्च, तेल, सर्फ, साबुन, दर्पण, कंघी आदि वस्तुएँ दान में दिया जाता है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।


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